प्रो. मृगेश पाण्डे

प्रेम ग्रन्थ भनार टनकपुर के बुबू : कैलाश चंद्र लोहनी

अस्सी पार कर चुके हैं लोहनी जी. टनकपुर में उनका घर ढूंढने में कोई देर न लगी. सड़क पर एक बुजुर्ग व्यक्ति से उनके घर की गली जानने के लिए मैंने अपने साथी से कहा तो सड़क से जा रहीं चार महिलाओं में से एक ने कहा- बस ये जो गेट है, उसके भीतर जाओ, वो सामने जहां पेड़ हैं बहुत. वहीं रहते हैं मास्साब. ये बताते उन्होंने वह गेट भी खोल दिया. हमने भीतर कदम रखे तो कुत्ते के भोंकने की आवाज आई. महिला ने कहा ये बदमाश तो ख्यात करता है, मतलब पीछे पड़ता है. अरे जाओ-जाओ वो बंधा है.
(Kailash Chandra Lohani)

सामने करीब सात आठ फिट का कच्चा रास्ता था. अगल-बगल खेत. नीचे के दो खेत पानी से लबालब भरे. दाईं तरफ के दुमंजिले से एक युवक कुत्ते की आवाज सुन बाहर आया. सलाम कर बोला- वो मास्साब के यहाँ. आगे बगीचे के पल्ले वाला घर है जिसमें पेंट वारनिश हो रही है. हैं घर में ही बुबू. अब्भी देखे मैंने. कहते वह नीचे उतर आया. नीचे मिट्टी लकड़ी और घास से बनी खूब लिपी पुती झोंपड़ी बनी थी. उससे दूर भैंस बँधी थी जिसे कम्बल उढ़ा रखा था. भोंकते कुत्ते को चुप का आदेश दे वह बोला- किसी से बात करो तो और टिटाट मचाता है ये. कह उसने पास में पड़ी एक लकड़ी उठा ली. कुत्ता कुनमुना के चुप हो गया.

आम के खूब बड़े पेड़ के बगल में दुमंजिला था. खूब गमले. बड़े सीप से रखे. खूब फूल ज्यादातर मौसमी और देशी. पीछे सदाबहार पौँधे तरतीब से लगे. गेट के पास ही नल लगा था. हमें देख एक महिला टोकरी में धुले बर्तन उठाये बोली- गेट खुला है. आइये बस बैठिये. बाबू.. ओ बाबू. आओ.अचानक उसके पीछे से ही प्रकट हो गये लोहनी जी.

हमारी पिछली मुलाकात 1998 में हुई थी एक बड़ी दुखद घटना के साथ, जब डॉ रामसिंह जी की डॉक्टर बेटी जीवरत्न प्रभा का एक्सीडेंट हो गया था और वह बच न पाई. मैं पिथौरागढ़ महाविद्यालय के अपने मित्र कुण्डल सिंह के साथ तब आया था. कुण्डल की यहीं चकरपुर में ससुराल थी और बाद में दफ़्तरी के पद से सेवनिवृत होने के बाद वह यहीं बस भी गया था. कुण्डल मेरी अनेक यात्रा-पदयात्रा में साथी रहा था.

अरे हो पांडे जी होsss. पहुँच ही गये. फोन आए थे कभी पर अब तो मोबाइल पर में गजबजा जाता हूँ होss. आओ आओ, भीतर आओ.’मैंने पाया कि कुछ आवेग में उनकी आँखें डबडबा रहीं हैं जिसे स्वेटर की आस्तीन से वह पोछ भी रहे हैं. पर..

चेहरे पर पूरा लुआब. तुरत-फुरत तेजी और सर-फर भी वही.

‘अरे, जूता पहने रहो. ठंडा कित्ता हो गया. कोहरा भरा रहता है घंटों’.वह बोले और बैठक में हमें बैठा दिया.

‘आप बैठो, मैं पानी लाती हूँ,’ उनकी बहू भीतर जाते बोली.

‘पानी तता के लाना, अरे हाँ. ये कौन हुए साथ में. इनको देखी जैसी याद नहीं आ रही..’

‘बाबू सूरत नहीं भूलते कभी भी कोई मिला हो याद रहता है, मैं ईजा को भेजती हूँ हाँ, वह भीतर चली गई. ‘

‘अब कुछ सब याद नहीं आता. कभी खाप तक आते -आते लोप हो जाता है. क्या कहा अभी ये भी खो जाता है. अब मैया की लीला है.. प्रथमम शैलपुत्री च, द्वितीयम ब्रह्मचारिणी…’

उनकी अर्धांगिनी ने प्रवेश किया.

‘बोलते रहते हैं खूब, कभी गुम्म भी हो जाते हैं, मुझे तो इनका चुप रहना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. अब आप लोग आ गये तो खूब खुश रहेंगे, मौसम खराब हो और घर के अंदर गोठी रहेंगे, तो उदास हो जाते हैं. अभी पिछले हफ्ते वो प्रेम पुनेठा आए थे पिथौरागढ़ से.तब खूब चहक गये.

‘हाँ उसकी ससुराल हुई, यहीं चकरपुर बनबसा के बीच. मेरे मित्र हुए. खूब पढ़ाकू हुए अभी टाइम्स ऑफ़ इंडिया के करेस्पोंडेंट हुए ‘

‘राम सिंह जी की किताब लेने आए थे. किताबों का तो ढेर पड़ा है. अब इतनी जगह भी नहीं. कई तो गट्ठर बांध रख दी हैं. बिकी ही नहीं. कभी कीड़े लगे कभी सीलन पड़ी. सब ऐसे ही बर्बाद हो रहीं’.

‘फिफ्टी-फिफ्टी परसेंट के मुनाफे को बांट-बेच देने की बात करी थी ना मेरठ वाले जॉली प्रिंटर ने. पर सब यहाँ रख फिर आया कहाँ? क्योंsss, फिर तो आया नहीं था.’ लोहनी जी अपनी रौ में बोले. अब मैंने तो लिख दिया छपा दिया एडिट कर दिया, मेरा काम खत्म, क्यों. प्रथमम शैलपुत्री चsss..

आगे तुरंत उनकी श्रीमती जी ने बात आगे बढ़ाई.

अब भूल भाल जाते हैं… हाँ,जब से नौकरी लगी लिखना शुरू हो गया इनका. कितनी दुख -तकलीफ हो घर परिवार की पर लिखते जरूर थे. फिर पोस्ट ऑफिस की दौड़ हुई. कितने दिनों-दिनों बाद डाक मिलती थी पहाड़ में. लेख-कविता छप जाती, धैँ कहा, उसके बाद चिट्ठी मिलती कि छाप रहे हैं. कितनी ही वापस भी आतीं. नजीबाबाद की भी दौड़ लगती रेडियो स्टेशन में. खूब लिखते रहे, दौड़ भाग होती रही’.

तो आपकी नौकरी कहाँ कहाँ रही? ‘खूब डोलते रहा पहाड़ में. अच्छी जगह मिले तो दो -एक साल में स्थानांतरण. वहीं जहां कोई सुविधा न हो कॉपी पेन गुड़ मिश्री भी दूर से मंगानी पड़े तो वहां दस-दस साल तक पड़े भी रहे. क्यों? कहाँ कहाँ रहे हम. भीमताल भी रहे थे ना क्यों?’

‘हाँsss, रहे थे भीमताल. वहीं लड़की हुई.’लोहनी जी आगे कुछ कहने के लिए सोच में पड़ गये थे तभी उनकी श्रीमती जी ने बात आगे बढ़ाई.

स्थानांतरण हो गया कनालीछिना, वो पिथौरागढ़ से भी आगे. तुरंत ज्वाइन करने का आदेश था. ये होलडोल बांध तैयार, लोहे का ट्रंक भी हुआ, झोले भी. पर जाएं कैसे? एक बस ही जाती थी सुबह, भवाली से पकड़नी होती.वहां सुबह खड़े हो इनको पता चला कि अल्मोड़ा से आगे सड़क बंद. फिर तो ये खैरना वाली भी बंद हो गई. अपने बड़े साहब को फोन मिलाया तो हुकुम वही.जैसे भी हो ज्वाइन करो. ज्वाइन न करने पर टर्मिनेट भी हो रहे हैं टीचर आजकल कह झस्का भी दिया. अब ये तो बस झोला पकड़ रामगढ़ के रास्ते निकले. कितना पैदल चले. कनाली छिना की सड़क भी एकहरी, कई जगह कच्ची.

अब जब कनाली छिना के विद्यालय पहुंचे तो वहां के प्रधानाध्यापक तो थे छुट्टी पे और हिंदी वाले अध्यापक को ही प्रभारी बना गये थे. उसने तो ज्वाइन कराने से मना कर दिया.’

‘कौन था वह? मना कर दिया. थपलियाल था?’लोहनी जी को कुछ याद आया.
(Kailash Chandra Lohani)

‘अरे, जब इन्होने कहा लिख के दो, मैं जाता हूँ उच्च अधिकारियों के पास. तब जो वह ठंडा पड़ा.तखत -रजाई का भी जुगाड़ किया. खाना भी खिलाया. अब ये कनालीछिना. छोटी बच्ची भी हुई फिर यहीं. बाब्बा हो लोथ निकल गई. कुछ समय तो मैं मायके कर्नाटक खोला अल्मोड़ा रही.फिर आई कनाली छिना. दो लड़के भी यहीं हुए. अब आगे उनकी पढ़ाई- लिखाई की सोचूँ तो निस्वास लगे. रह भी तो पूरे दस साल गये वहां कनालीछिना. अब इनके पास सारी योग्यता हुई. खूब लिखते पढ़ते थे. डायरी भर गईं कितनी. और जगह भी आवेदन किया अब दो बार तो आयोग में ही नहीं छंटे.

तो खूब शौक पाले इनने लिखने के साथ. टसर के कीड़े, रेशम के कीड़े पाले. मैं भी सीख गई थी.ये तो जानकार हो ही गये.’

‘हाँ उनका लाइफ साइकिल, सब देखा. कोकून कत जाता, बढ़िया धागा.’एक तक अपनी श्रीमती जी की बातों में खोये लोहनी जी बड़े खुश दिखे.’वो बांज के पत्ते भी तो रखते थे ना हम!’

‘कितने शौक हुए इनको. बच्चे पढ़ाने के लिए घेरे रखते. ये कॉपी झोला ले कहाँ कहाँ डोलते, कहीं से कथा सुन आते, किसी से वंशावली, फिर भूल जाऊंगा के भय से सब डायरी में नोट करने बैठ जाते. अब कहीं अटक जाते तो मुझे धाल लगाते कि उसने क्या बताया था? अब मैं जो गई थी इनके साथ जो पता होता. फिर मैं चाय -वाय पिलाती. ये खुश हो जाते. फिर लिखने लगते’.

‘पहले लेख लिखते थे खूब लम्बे. उनके लिए संस्कृत की खूब पोथी पढ़ते. कहाँ कहाँ से मंगाते. कुछ छपते, कुछ पड़े रह जाते. तब कहते खुद छपाऊंगा. अपना प्रकाशन खोलूंगा. अपने साथ अपने दगड़ियों की भी किताब छापूँगा.
(Kailash Chandra Lohani)

लेख लिखे, निबंध लिखे, फिर कविताएं. कभी अनुवाद करने बैठ जाते. एक किताब पूरी होने में साल साल लग जाते. बिल्कुल घरघुस्सू हो जाते’.

‘एक बार तो संस्कृत-हिंदी के शब्दकोष में लग गये. अब इनके बराबर का ज्ञान मुझमें कहाँ हुआ, पर ये मैं जानती थी कि ये तो बहुत ही कठिन काम है. कनालीछिना जैसी जगह में रहते तो बड़ा दुशवार हुआ. कागज-कॉपी भी पिथौरागढ़ से मंगानी पड़ती. उस पे ठंडा भी खूब. हाथ ही नहीं चलते थे. अब लकड़ी की कमी नहीं हुई आग जगाओ, तो कमरे में धुरमन्न हुई. ऊपर से हमेशा काणी लाइट. कभी हफ्तों तक गायब भी. पर लैंप -लम्पू जला ये रजाई ओढ़ के भी लिख देने वाले हुए.’

आप ने कितनी पढ़ाई की? मैंने पूछा.

‘अsss, हाई स्कूल ही किया था कि शादी हो गई. अठारहवाँ चल रहा था मुझे. इनकी देखादेखी खूब पढ़ने का मन होता. फिर इंटर तो मैंने कर ही दिया. फिर बच्चे हुए, बड़ी कठिन जगहों में रहना पड़ा. बच्चे बड़े हुए तब हल्द्वानी में बी ए का पहला साल पास किया अगले साल परीक्षा दे न पाई तो उससे अगले साल एक और विषय निकालने जैसा रूल कर दिया विश्वविद्यालय ने. उसमें बड़ी झंझट पड़ गई और बी. ए मेरा आधा -अधूरा ही रह गया.’

‘लोहनी जी की पढ़ाई कहाँ हुई?’ मैंने पूछा.

‘मैंss तो नैनीताल पढ़ा. बाबू, महेन्द्र सिंह ठेकेदार के साथ काम करते थे. क्यों महेन्द्र सिंह ही हुआ ना वो?..लोहनी जी कुछ याद करने लगे.

हाँ. हाँ.तुम बताते तो हो कि उसका काम कभी तल्ली ताल के गोदाम कभी मल्ली ताल में. तो प्राइमरी के लिए तो ये तल्ली-मल्ली के प्राइमरी स्कूलों में ही नाचते रहे. फिर जा के नीचे गोरखा लाइन सरकारी हाई स्कूल. फिर इंटर तो देब सिंह दान सिंह कॉलेज से किया’.

‘इंटर की कक्षा तो वहीं चलती थीं. फिर बी.ए, एम.ए तो ऊपर चलता था. खूब पढ़ाई होती थी. बड़ा पुस्तकालय था. रीडिंग रूम था. बड़े सख्त प्रिंसिपल थे.’लोहनी जी बोले.

‘प्रिंसिपल साहिब का नाम क्या था’? इसी कॉलेज से में भी पढ़ा तो मेरी यादें भी ताजा हो गईं. लोहनी जी सोच में पड़ गये. उनके हाथ की उंगलियां बार- बार माथा छूती, आँखे मुंदती -खुलती. फिर बड़े उत्साह से वह जोर से बोले,’काला भूत’

अरे. ये नाम तो वहां के चपरासियों ने प्रोफेसर के एन श्रीवास्तव का रखा था जो बड़े स्ट्रिक्ट और विद्वान थे. डांठते भी खूब थे खास कर अपने चपरासियों को. उनके साथ लगे रहने के दायित्व से बंधे पियन ने ही उनका नाम रखा था,’काला भूत ‘ जो माउथ पब्लिसिटी से रातों रात फैल गया’.

मैं जब ये कह चुका तो वो बोले,’हाँ हाँ के एन साब… के एन साब. और हमारे संस्कृत के हेड थे पांडे जी, गोपाल दत्त पांडे जी.’ लोहनी जी खूब खुश हो कर बोले.

‘इन्होने तो डिग्री कॉलेज की नौकरी के लिए भी सोची पर पहाड़ में ओने-कोने पटके जाने से दो एक मौके मिस हो गये. जब वनवास टूटा तब उम्र ज्यादा हो गई. अब गढ़वाल भी खूब रहे थे.’

‘गढ़वाल में कहाँ?

अरे कभी बड़कोट, कभी राजगढ़ी में ड्यूटी उससे पहले श्रीनगर गढ़वाल..’
(Kailash Chandra Lohani)

‘श्रीनगर बिरला कॉलेज तो में भी रहा’. मैंने उन्हें बताया.

‘हाँ पुंडीर जी के मकान में रहा उसका नाम…’

‘गंभीर भवन था..’ बात मैंने पूरी की. अरे वहीं दुमंजिले में मैं भी रहा. “

श्रीनगर की याद हम दोनों को ताजा हो गईं. आदर्श पुस्तक भंडार, पीपल के पेड़ के पास पान की दुकान. कमलेश्वर का मंदिर जहां संतान प्राप्ति कामना से रात्रि भर दिए की थाली लिए महिलाएं भगवान शिव से प्रार्थना करतीं हैं. जीआई सी को जाने वाली कच्ची सड़क. जी एम ओ यू, टी जी एम ओ यू, काली कमली धर्मशाला और श्रीकोट से आगे जाती सड़कपर हमेशा सफेद मिट्टी से लसी कलियासोड़ की सड़क, फिर धारी देवी.

लोहनी जी का चेहरा दमक रहा था तभी वह बोल पड़े,’प्रथमम् शैलपुत्री च, द्वितीयम..’

‘इन्होने खूब मंदिरों की सैर कराई. अपना पहाड़ तो हुआ ही, दक्षिण भारत के कोने तक ले गये. जहां मन लगा जिस जगह में वहां खूब डोलते, जहां पहले ही ठीक नहीं चिताया तो बस चलो-चलो. राजधानी लखनऊ थी तब भी गये पुरस्कार लेने तो दिल्ली देहरादून भी. नारायण दत्त तिवारी जी भी इन्हें खूब मानते थे, निशंक जी भी बुलाते थे. कितनी शौल मिली कितने सम्मान पत्र. अपना सब कुछ ये मेरठ से किताब छपाने में लगा दिए. अब कितने बंडल यहां बांध के रख दिए, तुम खुद ही देख लो.’

सन 2000 में टनकपुर गेंडाखाली इंटरमीडिएट से रिटायर हुए.16 अगस्त 1941 का जनम हुआ. सतराली लोहना के लोहनी हुए हम. भोलानाथ ईष्ट हुए. अब तो बस मैय्या को याद कर तुरत फुरत कुछ काम पकड़ लेते हैं. बस मोबाइल से दूर रहते हैं तो कंप्यूटर में मैं नहीं बैठने देती. उसमें बैठे कि आँखें डबडबाने लगतीं हैं.

कैलाश चंद्र लोहनी का रचना संसार बहुविध रहा. एक तरफ ‘शकुंतलाकि पछाण’ उनके प्रकाशित नाटकों में है जो पुरस्कृत हुआ. फिर कर्णभार नाटक व दूत वाक्य जिसका बड़े परिश्रम व लम्बा समय ले कुमाई अनुवाद किया. फिर सतराली दर्शन का संपादन व दूदबोलि त्रेमासिक पत्रिका के संपादन से जुड़े.
(Kailash Chandra Lohani)

अस्सी वर्ष की आयु से ज्यादा हो चले हैं, अभी छन्दसार और वंशापति कोष के बड़े काम में लगे हैं. इससे पहले गुमानी ग्रन्थावली व वैद्य जीवनम का संपादन, प्रकाशन कर चुके हैं.साथ ही होल्कर वंश (चंद्र जोशी), हरिविलास काव्य (लोलिम्बराज)व नृसिँह चम्पू काव्य (केशव भट्ट) का संपादन भी किया.

अभी प्रकाशन की प्रतीक्षा में दस अनूदित नाटक हैं :पंचरात्र, अभिषेक, बालचरित, प्रतिमा, प्रतिज्ञायौगन्धरायण, स्वप्नवासवदत्ता व चारुदत्त जो सभी महाकवि भास द्वारा रचित हैं. भवभूति के उत्तररामचरित, शूद्रक के मृच्छकटिक व विशाख दत्त के मुद्राराक्षस की पाण्डुलिपियाँ भी तैयार पड़ी हैं. रचनाकार कैलाश चंद्र जी की अर्धांगिनी कमला अब चुप हो गईं.

भीतर से उनकी बहू शोभा चाय ले आईं थीं. चाय की चुस्कियों के बीच अपनी आँखों की नमी को मफलर से पोछते कैलाश जी की आवाज फिर उभरी…
(Kailash Chandra Lohani)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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