पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : तुझको पुकारे मेरा संसार…
मिलम हिमनद से ‘गौरी’ यानी गोरी नदी निकलती है उसके दाईं ओर हिम से भरी उपत्यका पौराणिक सन्दर्भ में “जीवार” कही गई, जिससे इस क्षेत्र का नामकरण “जोहार” पड़ा. संकल्पना है कि इसी “जीवार” की श्रेणी से गौरी निसृत हुई जिसने “हर लिंग” जिसे प्रचलन में हंशलिंग कहा जाता है को निरन्तर स्पर्श किया. प्रवाहमान रही गोरी मुनस्यारी को दो भागों में सिंचित करते मदकोट–जौलजीबी को चल दी.
(Johar Munsiyari Pithoragarh Mrigesh Pande)
मान्यता थी कि हरलिंग में इतना ताप इतनी ऊष्मा है कि उसमें हिम नहीं टिकती. हरलिंग से शिव लिंग को गौरी या पार्वती का नदी रूप में स्पर्श कर सतत बहना उस बोध से जुड़ा जिससे यह प्रदेश पार्वती की तपस्थली कहा जाता है. शिव से परिणय का स्थान भी यही है. यहीं वह सुरम्य शिखर हैं जो पंचचूली, राजरम्भा, नन्दा देवी, नन्दा कोट व छिपला केदार-छिपला कोट की समृद्ध व विशिष्ट जैव विविधता से परिपूर्ण सघन-गहन तपोभूमि की ओर आकर्षित व सम्मोहित करते हैं.
मुनस्यारी मल्लादेश जोहार, तल्ला देश जोहार और गोरी फाट पट्टियों का संयुक्त नाम हुआ जहां की जलवायु, मौसम, सौंदर्य, बर्फ से ढकी चोटियों, हिम से नहाई पहाड़ियों, सरिता-नदी-प्रपातों के साथ सांस्कृतिक-सामाजिक विविधताओं व विभिन्नताओं को देखते, इसे “आध संसार एक मुंन्सयार” की उपमा दी गई जिसके भावार्थ यहां की प्राकृतिक संरचनाओं, जातियों व वंशों की अनेकता में समाहित हैं. यहां मंगोल, शक,आर्य, गोरखा-नेपाली, हूंण-तिब्बती, नागा, किरात, खस, कुमाऊंनी, गढ़वाली, हिमाचली व जाड़ लोगों की आवत-जावत रही तो स्वाभाविक रूप से बोली-भाषा-पहनावे में विभिन्नता भी रही जो फिर एक दूसरे से अनुकूलित-प्रभावित होती रहीं.
बाबू राम सिंह पांगती जी ने अपने समग्र अध्ययन “जोहार का इतिहास व वंशावली” में लिखा कि हल्दुआ -पिंगलुवा वाले युग में जोहारियों की अपनी बोली हुई. टोला गांव के भीमू पधान का पिता वरू पधान और उसका दादा जैंता उसी पुरानी जोहारी बोली के आदी थे. अपनी रचना ‘छितकू की कथा’ की प्रस्तावना में जोहारी बोली पर उनका कथन है कि ज्वार का खास बोली कोई नहातन. हमरा बोली में अनेक शब्द संस्कृत का छन. कुछ नेपाली बोली का लपेट हैबेर बाकी नंड़री बोली में ‘त्यर पिस्यूँ में मेर मिस्यू’ है रोछ. देश उन्नति वास्ता अपना भेष भाषा (बोली), साहित्य व धर्म ठीक हुने छन. हमले अल्मोड़ा का बोली का अनुसरण करना चाय, किले की यो पर्वत में अल्मोड़ा बोली सब है साफ-शुद्ध मानी जांछ.
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परगना जोहार यानी वर्तमान की तहसील मुनस्यारी की बोली पर भाषाविद जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने सन्दर्भ ‘स्पेसिमन ऑफ़ पहाड़ी लैंग्वेजेज एंड गुर्जरी’ में लिखा. उन्होंने कुमाऊंनी की भांति जोहारी को भी आंचलिक बोलियों में शामिल किया. वहीं चार्ल्स शेरिंग ने मुनस्यारी के बासिंदों की रोजमर्रा की बोलचाल को ”शैकिया खून” एवम आंशिक रूप से हिन्दू राजपूतों की बोली में बांटा. इस बात को समझाते डॉ शेर सिंह पांगती का कथन है कि मुनस्यारी इलाके के कुछ गावों जैसे हरकोट, पातों, व मल्ला दानपुर के चौरा, हरकोट, खलझुनी व किलपारा के गावों की बोली ‘शैकिया खून’ कही गई. दूसरी ओर हिन्दू राजपूतों की बोली से कुछ हद तक प्रभावित बासिंदे जोहार के शौका और मुनस्यारी मूल के शौका हुए. ग्रियर्सन ने स्यामी चीनी भाषा के उप परिवार में असम में फकियाल खातमी, ताड़ रोंग या तोरा गुरंग व एतोन को रखा तो तिब्बती बर्मी उप परिवार में असम के क्योइरैग, त्रिपुरा की लेंगरोड, हिमाचल की रंगोली, दानपुर अल्मोड़ा व जोहार पिथौरागढ़ की ‘रड़कस’ को शामिल किया. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जोहार के ‘जैठोरा भोटिया’ जो गोरीफाट, मल्ला दानपुर और जोहार पट्टियों के निवासी रहे वह जिस बोली में संवाद करते थे उसे शौकिया खून, रड़ कस या रंकाश कहा गया. शेरिंग का भी यही मत रहा.
राहुल सांस्कृतायन के अनुसार जो जाति समूह अपनी भाषा बोलते रहे हैं उसमें असकोट अल्मोड़ा के राजी, चम्बा के लाहुली, कुल्लू के मलाणा ग्रामवासी, ऊपरी सतलज के किन्नर, नीती माणा के मारछा, पश्चिमी नेपाल के मगर गुरंग, मध्य नेपाल के तामँग, नेपाल घाटी के नेवारी, पूर्वी नेपाल की लिम्बू, माखा व राई के साथ सिक्किम के लेपचा व असम के नागा शामिल हैं. राहुल ने लिखा कि व्याँस-चौदास, नीती-माणा एवं मिलम के निवासियों को दूसरे पहाड़ी लोग भोटिया कहते हैं तो तिब्बत वासियों को हूँण या हुणिया. वस्तुतः भोट देश या तिब्बत के सीमांत भोटान्त में रहने वाले ये भोटान्तिक न तो हूण हैं न तिब्बती. इनकी भाषा के जो अवशेष मिलते हैं वह इनके किरातवंशी होने की ओर इशारा करते हैं जो एक कालावधि में लद्दाख,असम व बर्मा तक फैला हुआ था.
जोहार घाटी के शौका गढ़वाल की घाटियों से कुमाऊँ के इस विस्तृत भू भाग पर आये जिसके नदी-घाटी इलाकों, दर्रों-हिमनदों से होते प्राचीन पथों के अवशेष व तिब्बत की ओर टोपीढुंगा व उसके समीप ‘गेरती’ में खंडहर मिलते हैं. कहा गया कि विकास व बसाव के आरंभिक चरण में पहले पशु चारण किया जाता रहा. मौसम की प्रतिकूल दशा से खेती कम होती थी. यह भी कहा गया कि जब एक खास किसम की चिड़िया बोलती तो उसे सुन खेतों में बीज डालना तय होता था. एक बार वह चिड़िया बोली नहीं तो अनाज की बुवाई भी न हुई इससे अन्न संकट हुआ जिससे फिर पलायन हुआ.
जोहार की जिस हस्ती ने जोहार के इतिहास को लिपिबद्ध किया उस विभूति का नाम मानी था जो देबू बूढ़ा के ज्येष्ठ पुत्र थे. मानी को मानी कम्पासी, मानी पेशकार व मानी पटवारी के नाम से जाना जाता रहा. मानी कम्पासी ने सन 1835 में जो अभिलेख रचा उसका आधार ले कर ही पंडित नैन सिंह ने 1883 में जोहार के इतिहास पर काम किया जिसे आधार बना बाबू राम सिंह ने रचना प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. मुखाग्र सुनी बातों व किंवदन्तियो का आधार ले जोहार के इतिहास को लिपिबद्ध किया. इनमें हल्दुआ-पिंगलुआ का नाग वंश भी है तो आगे शकिया लामा के शिष्य द्वारा स्थापित पंज्वारी युग और फिर बाद में धाम सिंह रावत के जोहार आने की कथा भी है.
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पूर्व प्रागेतिहासिक काल की कल्पना कर हल्दुआ-पिंगलुवा युग जोहार का आरंभिक ऐतिहासिक काल खंड हुआ. महाभारत में ‘आस्तिक पर्व’, अध्याय 35 के नवें व बारहवें श्लोक में ‘हरिद्रक’ व ‘पिंगलक’ नागों का वर्णन है जो माता कदरू के श्राप से आहत हिमालय के उत्तर में आ बसे. हरिद्रक-पिंगलक का अपभ्रँश हल्दुआ-पिंगलुवा हुआ. इन नागवंशियों का विनता पुत्र गरुड़ का प्रतिरूप चौगम्पा पक्षी द्वारा विनाश किये जाने पर लेपथल में ध्यान लगाए शाक्या लामा ने अपने चेले को जोहार भेजा. चेले ने युक्ति से चौगम्पा पक्षी का वध किया जिससे जोहार घाटी आबाद हुई. शाक्या वंश के कारण यहां के निवासी शौका कहलाये. शाक्या लामा बौद्ध धर्म का प्रर्वतक था. तिब्बत, मंगोलिया, चीन, नेपाल, सिक्किम व भारत के हिमालयी क्षेत्र में बौद्ध धर्म के अनुयायियों का प्रसार होते रहा. तिब्बत में जो शाक्य संप्रदाय का अनुसरण करते हैं उनके मठ दायीं से बायीं ओर हैं तथा वह कैलास पर्वत की परिक्रमा भी इसी दिशा के अनुरूप करते हैं. धर्म चक्र घुमाने की प्रथा भी वही रही.
बौद्ध धर्म में लामाओं के आकाश में विचरण व चौगम्पा पक्षी सा ‘ख्यउँग’ पक्षी होने की मान्यता है जिसके नाम पर पश्चिमी तिब्बत के एक गांव का नाम ‘खिंगलुंग’ पड़ा. सिक्किम में ऐसा ही राक्षस पक्षी ‘लासे-फो- मुंश’ की लोक कथा है जो लेप्चा लोगों को पकड़ तिब्बत की ओर उड़ता व उन्हें मार कर कहा जाता. तब लेप्चा लोगों के ईष्ट देव ‘रनमन’ ने उसका वध किया. बौद्ध धर्म के शाक्या लामा व उसके शिष्य ने जोहार घाटी की ओर सात वर्ग के लोगों का रहवास आरम्भ किया जो बुर्फाल, ल्वाँल, रहलम्वाल, तितरपा, हेलम्पा, घोनरपा व निरखुपा थे. इनमें तितरपा व घोनरपा के विनिष्ट होने के बाद पांच ‘पंचज्वारी’ कहलाये. हल्दुआ -पिंगलुवा वंश मिलम से मापांग तक ही सीमित था,तब उत्तर में तिब्बत व दक्षिण में मुनस्यारी तक आने का मार्ग न था. तिब्बत व मुनस्यारी की ओर आवागमन पंज्वारी काल में आरम्भ हुआ. इनमें ल्वाँल, रहलम्वाल व बुरफालों का अधिक वर्चस्व रहा. कालांतर में इन्होंने कत्यूर घाटी तक व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार कर लिया. जोहार के शौकाओं से पंज्वारियों की बोली अलग थी. हालांकि जोहार के पूर्व में दारमा-व्यास के निवासियों की तरह ‘रंग-बंग’ नृत्य गीत से युवक-युवतियाँ अपने जीवन साथी का चुनाव करते थे. मृत्यु संस्कार में ‘दुरंग’ होता. तिब्बत के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध अधिक होने व बोन धर्म को मानने के संकेत भी मिलते हैं.
जोहार के मिलम गांव में सावन मास के आखिरी दिन संध्या काल में ‘सोंबली’ त्यौहार मनाया जाता है जिसमें बलि के बकरे को दायीं दिशा से पूरे ग्राम की परिक्रमा कराई जाती है. बकरी का सीना चीर कर समूचे हृदय को निकाल लेने का तरीका भी प्रचलित रहा जो मंगोलिया में बुद्ध के अनुयायी करते रहे. इसी भांति जोहार घाटी में नागिनी की पूजा करने व चरखमिया जंगपागियों को नाग वंशज की मान्यता यहां नाग वंश का प्रभाव सम्मिश्रित करती है.
सुनपति शौका के युग तक उत्तर में तिब्बत व दक्षिण में कत्यूर घाटी तक व्यापार सम्बन्ध विस्तृत हो चुके थे तदन्तर पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्ध तक जोहार में चंद शासकों का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था जिससे पूर्व इस इलाके में डोटी शासन था. चंद काल में जोहार में कुमाऊँ, गढ़वाल व नेपाल के साथ अन्य पहाड़ों से आ कर बसने लगे. इनमें मिलमवालों के मूल पुरुष श्री धाम सिंह रावत मुख्य थे.
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पंडित नैन सिंह लिखते हैं कि धारानगर के पवार राजपूत गजेंद्र सिंह बुटोला गढ़ में आ कर बसे जो हरिद्वार के समीप था. कुछ पीढ़ियों बाद उनके वंशज गढ़वाल में ज्वाला व सोलन में व मलारी के मढ़वाल जो मलारी के समीप भुजगढ़ा में आ बस गए. इनमें हीरु व धाम सिंह भी थे. धाम सिंह तिब्बत में पश्चिमी तिब्बत के धार्मिक प्रशासक बोतछोगेल की सेना में भर्ती हुआ व उसने युद्धकौशल से लद्दाख के आक्रमणकारियों को हरा दिया. उसकी शूरवीरता से प्रसन्न हो बोतछोगेल ने तिब्बती रिवाज के हिसाब से उसे पांच उपहार प्रदान किये. कहा जाता है कि तिब्बत की आबोहावा रास न आने से धाम सिंह जोहार लौट यही बसा. अपने साथ वह गढ़वाल के कई बासिंदों के साथ पट्टी बांगर के गोलू व श्यामा को भी लाया और जोहार में अपना दबदबा कायम किया. फिर कुमाऊँ और नेपाल से जोहार में बसने का सिलसिला बढ़ निकला. फिर जोहार के मूल निवासी बुरफाल व नए बसे समूहों में लड़ाई भी होने लगी. जब बुरफालों ने मिलम्वालों को कोथलो में जिन्दा ही ठूंस गोरी नदी में बहा दिया तब इसकी प्रतिक्रिया से ‘समगों कांड’ हुआ. काफी बुरफाल मारे गए.
राजा रुद्र चंद जिन्होंने 1568 से 1597 तक यहां राज किया द्वारा इनके बीच सन्धि कराई गई व इनके बीच शादी ब्याह भी होने लगे. अब धीरे-धीरे बोन धर्म का प्रभाव कम होता जा रहा था व कुमाऊँ के प्रभाव में आ जोहार वासी वैदिक परंपराओं को अपनाने लगे थे.दूसरी ओर व्यास घाटी 1674 तक डोटी शासन के अधीन थी. सन 1670 में भादू मिलम्वाल व लोरू बिलज्वाल ने राजा बाजबहादुर चंद का कैलास मानसरोवर यात्रा जाने में पथ प्रदर्शन किया जिससे चंद राजा उनसे प्रसन्न रहे.
बाबू राम सिंह लिखते हैं कि अठारहवीं सदी के बीच भादू बूढ़ा की चौथी पीढ़ी के कोनेच्यों बूढ़ा ने बमन गांव से जयदेव नामक द्विवेदी ब्राह्मण को मिलमवालों का पुरोहित नियुक्त किया. तदन्तर कुमाऊँ के पंत, पांडे, लोहनी व जोशी जोहार में गरखाओं के पुरोहित बने. शौकाओं ने मिरासी व हरिजनों को आश्रय दिया. चंद शासन काल में जोहार के कई लोगों को राजा ने जागीर स्वरूप गांव प्रदान किये. इस घाटी में भी हजूर व मजूर वाली सामंती व्यवस्था-दास प्रथा लागू हुई.
अठारहवीं सदी के आखिर तक चंद शासन दुर्बल पड़ने लगा था. हर्षदेव जोशी की कूट गतिविधियों से राजा महेंद्र चंद्र और कुंवर लाल सिंह गोरखा सूबेदार अमर सिंह थापा द्वारा परास्त कर दिए गए और वह कोटा भाबर भाग गए. अब गोरखा शक्तिशाली थे जिन्होंने सन 1790 में अल्मोड़ा पर अधिकार कर गढ़वाल से कांगड़ा तक अपना शासन फैला दिया.
जोहार के जसपाल बूढ़ा के नेतृत्व में शौका समुदाय ने गोरखों का दस वर्ष तक डट कर मुकाबला किया और लीलम के पास हर्ष देव जोशी को बंधक बना चंद राजाओं को यह सूचना दे दी. युद्ध से जो तबाही हुई तथा व्यापार व आर्थिक दशा पर बुरा प्रभाव पड़ा उसे देखते सन 1801 में गोरखों की अधीनता स्वीकार ही करनी पड़ी. जोहार वासियों ने गोरखा राज का लम्बे समय तक विरोध किया जिसका दंड उन्हें गोर्खाओं द्वारा लगाए भारी कर के रूप में चुकाना पड़ा. करों की वसूली शासन द्वारा नियुक्त पधानों के माध्यम से ठेकेदारी प्रथा द्वारा करने की परिपाटी थी. पधान मनमाने तरीके से कर वसूल आम लोगों को परेशान करते थे. जसपाल बूढ़ा के बाद उसके पुत्र बिजै सिंह को गोरखा सरकार से लाल मुहर मिली ताकि वह कर वसूले . बिजै सिंह ने मनमानी कर जनता से कर वसूल करने में निरंकुशता दिखाई. जिससे परेशान हो कई लोग जोहार से बाहर जाने लगे. इनमें कुछ मरतोलिया नेपाल में दूंगमर्मा तो कुछ टोपी ढुंगा के पास गेरती चले गए. कई इलाकों में नए पधान नियुक्त हुए.
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पहले सोर की तरह जोहार एक परगना था जिसे 1863 में अल्मोड़ा जिले में किये गए विकट के बंदोबस्त से ‘तल्ला देश जोहार’और ‘मल्ला देश’ जोहार नामक दो पट्टियों में बांटा गया. फिर एक और पट्टी गोरी फाट बनी. जोहार मुनस्यारी को प्राचीन समय में ‘भोट प्रदेश’ भी कहा गया.’भोट’ शब्द तिब्बत के ‘बोध’ से निसृत हुआ. सयाने बताते हैं कि हूँण देश या तिब्बत को वहाँ के स्थानीय निवासी बोध कहते हैं.
ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर भोट के पथ पर चल चंद्र वंशी राजा बाजबहादुर चंद ने तिब्बत पर आक्रमण किया व ताकलला खाल पर विजय प्राप्त कर राज्य आदेश दिया कि अभी तक जो कर तिब्बती राजा को दिया जाता था उसे बन्द किया जाय. इस हानि से भयभीत हो तिब्बती राजा ने चंद राजा से माफ़ी मांग यह वचन दिया कि वह व्यापार व धर्म के मामले में जोहार के व्यापारियों से किसी तरह का विवाद नहीं करेगा व रास्ते सम्बन्धी सभी परेशानियों का मिलजुल कर हल निकालेगा. ऐसी सहमति के उपरांत जोहरी व्यापारी पुनः तिब्बत के राजकोष में कर जमा करने लगे.राजा बाज बहादुर चंद जब तिब्बत गए तब पथप्रदर्शक की जिम्मेदारी जोहार के भादू बूढ़ा और लोरू बिलज्वाल की थी जिनकी सलाह से प्रसन्न हो राजा ने लोरू को कोश्यारी बाड़ा व भादू बूढ़ा को तेली, बुई -पातू, पाछू व धापा गांव इनाम में मिले.
तिब्बत से व्यापार बंद हुआ तो अजीविका के लिए खेती बाड़ी, पशु पालन और ऊन के काम ने जोर पकड़ा.काम धंधों की तलाश में मैदान व भाबर जाने की सूझ बढ़ी. अभी तक जोहार, तल्ला जोहार और मुनस्यारी के गावों में उत्क्रमण होता रहा. जोहार, मुनस्यारी और तल्ला जोहार के गाँवों में होने वाला उत्क्रमण, “मौ ओँन जान ” कहलाता था. पहले सदियों तक लोगों की आवत-जावत के साथ वस्तुओं का आदान-प्रदान होता रहा जिसे बार्टर ट्रेड कहा जाता. इस सीमा व्यापार में देशों की राजनीतिक उठा पटक के हिसाब से बदलाव भी होते रहे. भारत-तिब्बत सीमा व्यापार में ‘ यंगहसबैंड ‘ के तिब्बत अभियान और 1904 का ‘ल्हासा समझौता बीसवीं सदी की सबसे बड़ी घटना रही. इसमें सीमा व्यापार को न केवल मान्यता मिली बल्कि उसके कुशल संचालन व आवागमन के लिए बेहतर प्रबंध किये जाने तय हुए. इससे भारत और तिब्बत के बीच का व्यापार संतुलन समायोजित रहा. अन्य वस्तुओं के साथ भारत सूती कपड़े का मुख्य निर्यातक व तिब्बत से ऊन का आयातक रहा. धीरे धीरे वस्तुओँ की नकद व उधार बिक्री का चलन बढ़ा.
1950 के दशक में चीन ने तिब्बत पर आधिपत्य करने के बाद ‘वायुवांग’ नामक चांदी के सिक्के और फिर करेंसी नोट की तरलता इतनी अधिक मात्रा में तिब्बत में प्रवाहित कर दी कि तिब्बत में प्रचलित सिक्का ‘तनका’और भारतीय सिक्के व करेंसी का चलन सीमित हो गया. ऐसे में भारत के व्यापारियों के सामने अपने लाभ व अवशेष धन को स्वदेश ले जाने में बहुत परेशानी उठानी पड़ी. फिर धीरे धीरे तिब्बत में सामाजिक आचार व्यवहार व जीवन शैली में बदलाव आने लगा. अब घर में बनी ‘छयांग’और पुराने बक्खू व पारम्परिक परिधान का विकल्प चीन में बनी बियर व मशीन से सिले कपड़ों का चलन बढ़ा. पुराने घुमंतू कबीले भी कम होते गए. अंततः 1962 के चीनी आक्रमण ने इस सीमावर्ती इलाके की सर्वाधिक महत्वपूर्ण गतिविधि को विनिष्ट कर दिया.
(Johar Munsiyari Pithoragarh Mrigesh Pande)
भारत तिब्बत व्यापार की गतिविधि समाप्त होने के बाद परंपरागत पेशों पर आश्रित होने व खेती बाड़ी की मध्यवर्ती तकनीक को समझने-जानने को पिथौरागढ़ से मिलम गांव तक जाना तय हुआ. अब जा कहाँ तक पाएंगे वह अर्थ शास्त्र के ‘अदर थिंग्स रिमेनिंग द सेम’ या अन्य बातें समान रहने पर टिका रहा. इसी को “सेटरस-पेरिबस” भी कहते. साथ में हुआ रिस्क और अन सरटेनिटी का एलीमेंट जिसमें सबसे महत्वपूर्ण आबो हवा और सीमांत के पहाड़ों पर कितना आगे चल सकें जैसी कशिश थी. साथ ही जहां तक तेरा आदेश होगा वहीं तक कदम टिकेंगे वाली बात अपनी घुमक्कड़ी के साथी और पथ प्रदर्शक ठाकुर कुण्डल सिंह ने हर अटक -बटक दूर करने जैसे फार्मूले की तरह मन के किसी तंतु में चिपका दी. आमा और ईजा भी हर काम की परिणति इसी गुसाईं जी पे छोड़ देते थे.अब सबकी कोशिश यह थी कि थल-नाचनी से आगे जितने अधिक गांवों में जा सकें, बातचीत कर सकें और साथ में देखें जोहार का विविधता पूर्ण संसार.
नाचनी से आगे सड़क खराब होने व रोडवेज की बस वहीं तक जाने की खबर रोडवेज वाले लोहनी जी ने हफ्ते में चार बार बता दी थी. उत्साही सोबन अपने मित्र गोपाल मरतोलिया के साथ रोडवेज के ऑफिस जा जा इसे पुष्ट करता और मुझसे कहता सर, जितना पैदल चलेंगे उतने गाँव से गुजरना होगा, लोग बाग मिलेंगे, मिल-भेंट होगी. प्रश्नावली भरेगी. गोपाल के पिता जी रोडवेज में कंडक्टर थे वो भी इसी रूट पर,सो उसके पास सारे डिटेल थे.
हमने मल्ला जोहार घाटी तक चढ़ना था. मुनस्यारी से मिलम तक पैदल रास्ते की दूरी 54 किलोमीटर थी जिसके मुख्य पड़ाव लीलम, बोगडियार, रिलकोट थे. मुनस्यारी से करीब तेरह किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है लीलम. इससे चार किलोमीटर आगे रड़गाड़ी पड़ाव के रास्ते रुपसिया बगड़ की सुंदरता मन मोहती है इसके आगे तीन किलोमीटर पर ही रड़गाड़ी है. मुनस्यारी से ऊपर जोहार घाटी के ठीक बीच में बोगड्यार इस रड़गाड़ी से पांच किलोमीटर है तो इससे आगे तीन कोस की दूरी पर नहर देवी है. इस स्थान की टोपोग्राफी खास है, अद्भुत व रमणीक. नहरदेवी के पश्चिमी ओर एक शिला का एकाकी पत्थर वाला सीधा पहाड़ खड़ा है जिसकी तलहटी में मैदान है. मंदिर में पूजा पाठ कर आगे बढ़ा जाता है. आगे जोहार वासियो का पुराना गांव हैं रिलकोट.फिर जोहार घाटी में आगे बहुत सारे गांव पड़ते हैं जिनमें लास्पा, मरतोली, टोली, बुर्फू, बिलजू, मापा, गनघर, पाछू और मिलम जहां अच्छी बसासत है. इनमें बुर्फू जोहार घाटी के बीचम-बीच का गांव है. पाछू से नंदादेवी पूर्व के लिए जाते हैं तो मिलम हिमनद के लिए मिलम गांव.
हमारे रुकने टिकने की व्यवस्था का पूरा जिम्मा पोस्ट ऑफिस वाले भगवती बाबू ने संभाली थी तो नाचनी से आगे पुलिस वाले पांडे जी के साथ का भरोसा था जिनकी कई जाँच और दौरे पेंडिंग थे और हमारा साथ देख उन्होंने सब फाइल टीप टाप सहित एस पी ऑफिस से दुरुस्त भी करवा लीं थी. उस पर हमारा कुण्डल सिंह जो न जाने कब अड़किनी, द्योताल के दरबार में जा रमेश धामी से अटक-बटक निबटने के चावल ला हमारे सर फिरा चुका था. बलभद्र ने तब बताया कि वो तो सैब अपनी घरवाली के साथ गया था. पांच लड़कियों में दूसरे नंबर वाली के लगन में कोई विघ्न आ रहा था, उसी को दूर करने.
(Johar Munsiyari Pithoragarh Mrigesh Pande)
यात्रा बनाम प्रोजेक्ट निबटान के साथी हमेशा की तरह बढ़िया मिले . दीप पंत था जिसका विषय तो भौतिक शास्त्र था पर उसकी रग-रग में गाड़-गधेरे बसे थे. कुछ भी हो पहाड़ उसे प्यारा था, कोई इस पर चूँ-चां करे तो उस संत पुरुष के भीतर से निकला ताप उसकी खाप में समाया दिखता. तब पहाड़ विरोधी चाहे जो भी रहे उन वचनों से एक दम चित्त कर दिया जाता. कित्ती ही गालियों से डबाडब डिकश्नरी शीघ्र पतन दिखा जाती. पहाड़ की गालियों के इतने कोष की जमा के पीछे उसका अनुभव सिद्ध अवलोकन था जिसे उसने पूरी तत्परता से उन बातूनी लड़ाईयों के प्रत्यक्ष दर्शन से किया था जिनके नमूने खेत में बंटवारे के लिए लगाए गए पत्थरों यानी ‘वड’ के घेरे के गिर्द एक दूसरे की झाकरी नोचती सैणियाँ से प्राप्त हुआ था. कमर में खोसी आंसी गुस्से में खाप के धाराप्रवाह चलायमान होने के साथ हाथ में लहराने लगती. एक धार से कई कोनों को कंपाती ‘सैँट’ यानी बहती हाव उनकी हंकार-दौँ कार को दूसरी धार तक हकौण देती. दीप को गालियों में प्रवीण बनाने के सेकेण्डरी सोर्स थे हुक्का गुड़ गुड़ाते, खैनी घिसते और भबके की पहली-दूसरी धार से कभी न अघाए सयाने-कका-ममा-बुबू जो हांट-बांट ढीले करने, आंग लुत्या देने के बोलवचन देते. जांठ पकड़ जुत्या देने को ह्यार-फियार करने लगते. गालियों में सिद्ध सयानों की खूब फाम होती उनकी धाक-दबदबा बस जिबड़ी और खाप के सुरताल से सिद्ध हो जाता. ऐसे नमूनों और फसक पराव में माहिर सिद्ध जनों की संगत में बैठना दीप को बड़ा प्यारा था.
कुण्डल और सोबन साथ थे और साथ में अगरवाला भी जिसने सुर-ताल भरी उजड्ड हरकत के बाद घी चुपड़ा भोला सा मुँह बना कसम खाई थी कि कुछ भी हो पहाड़ चढ़ के रहेगा. सोबन बोला ये अघोरी तो अखम हुआ गुरु जी. इससे अछड़ा छुड़ाना तो अजमल काथ हुई. अब इतनी प्योर पहाड़ी मैं समझा नहीं तो सोबन ने कहा अरे गुरूजी पूरा अड़यॉट है मजबूत इरादों वाला, इससे पीछा छुड़ाना तो अनहोनी ही समझो.
दीप की चिंता पनामा के लम्बे कश के बाद निकलते छल्लों से प्रकट हुई कि सेक्सोफोन गले में डाल जब अघाड़ी ये साथ चलेगा तो शिबजू के गणों सा मजमा अड़कस ही अतरण लगेगा उस रास्ते जितने भोटिया कुत्ते मिलेंगे वो ख्यात पड़ेंगे अलग. अरे कहाँ सैबो? गाने बजाने वालों से ही ऐंठू होते हैं वो. दिनमान भर कुछ नी करेंगे बस रात में चींथ देंगे. रस्ते भर गाते गुनगुनाते रहने का प्रण अगरवाल का पक्का था उसने गले में लटकाया सेक्सोफोन अपनी चमड़े की जाकिट से और चिपका कह ही दिया था कि इसे जरूर लिए चलते हैं, हमारी जान है बसी इसमें. अपनी भरी काली चमड़े की जैकेट भी उसने कुलबुलाट मचा दिखाई.
दीप देखते ही बोला ये ऊँट की खाल की है क्या? कहीं गधे खच्चर की ना हो. अमाँ, इम्पोर्टेड है. भीतर मुलायम लिनन है, देखो पहन कर. आपके लिए भी ला देंगे अगले बार रामपुर से. उसने पूरी चुलबुलाट दिखाई.
(Johar Munsiyari Pithoragarh Mrigesh Pande)
बकॉल दीप दाढ़ी ये जाकिट बांग्लादेश के शरणार्थियों के लिए दान में आई होगी जिसे रामपुर के हाथी खान चौराहे से ये खरीद पहन लिया होगा. कुण्डल ने अगरवाला को समझाया कि ढोलक-मजीरा वहाँ सब मिल जाएगा, इस सेक्स फुन को क्या बोकना. वैसे भी सफेद पहाड़ की चोटियों में ज्यादा चटक कपड़े लुकडे पहन और हल्ला-गुल्ला करने से आंचरी-वांचरी, भुतणी-सुतणी चिपट जाती हैं. फिर वहाँ गाड़- गधेरे हुए जिनमें मसाण की झस्स हुई. अब तुम हुए मैदान वाले, क्या समझो पहाड़ की भूत प्रेत माया . तुम्हारी जैसी काया कालामुनि पर्वत पर देख नया नमूना पा उनकी जठर अग्नि चीड़ के छिलुकों की तरह सुलग गई तो?
भइये. भले भले भूत भगा दें अम भी. पैंट की पाकिट के बगल रखते हैं रमपुरिया. वैसे बी हमारे रामपुर में तो मूठ चले है. चौबीस घंटो में हर काम शर्तिया होने वाले पीर फकीर मुल्ले वहाँ बेहिसाब हुए.
अरे, उन्हें तो एक ही चीज साधनी आती है,तू समझता क्यों नहीं. पहाड़ में धात सपनदोष कहाँ हुआ? तो तेरे हियां मुट्ठ बाजों और गाँडुओं की पकड़ वाले वाले पीर फ़क़ीर नजूमी हकीम हुए. और यहां हिमालय के तँतर मंतर वाले हुए. चेटक वाले हुए. छव हुए. छोल्याट कर दें जब जगरी जगूंण करें हुड़का गमका, थाली टनका ढोल दमुआ बजा. कुण्डल दा एक बार इसे बीसा बजेड़ रमेश धामी का कौतुक दिखा दो जिसके आंग द्योताल लिपटता है. दीप ने चुस्की छोड़ी.
अरे वो रमेश धामी तो बड़ा म्यूजिक लवर है, सर को अपना गुरु बना लेगा. अब मजे लेता सोबन बोला.
चलिए आपकी बात मान लेते हैं कह, भोले नतिया की तरह उसने सेक्सोफ़ोन को छोड़ा और एक बड़ी व दूसरी छोटी बांसुरी के साथ माऊथ ऑर्गन अपने चमड़े की जैकेट की ऊपर की जेब में घुसा दिया. कुण्डल ने उससे कहा भी कि इत्ती भारी जाकिट अभी से बस में चढ़ने पर लाद लोगे तो आगे नाचनी के बाद जब पैदल चलोगे तो थुलमा ओढ़ोगे क्या? उत्तर में उसने पान मसाले से भरी अपनी बत्तीसी निपोर दी.
नाचनी से हमारे साथ पुलिस वाले पाण्डे जी और पोस्ट ऑफिस वाले भगवती बाबू चलने थे जिनका मुख्यालय तो पिथौरागढ़ ही था पर वह अपने-अपने विभागों के काम से नाचनी में अटके थे. भगवती बाबू से इधर ही परिचय हुआ पर पाटिया के पांडे होने के नाते वो मेरे परिवार व वंशावली के बारे में मुझसे ज्यादा जानते थे. उनके मुख मण्डल पर हमेशा मुस्कान रहती और बातों में भरोसा जिसके बूते वह गाँव -गाँव में लोगों से अल्पबचत व धन दुगुन करने वाली योजनाओं के प्रति लोगों को जागृत कर देते. लोग उनके हाथ नोट, खिर्ची-मिर्ची पकड़ा देते और वह उनकी पास बुक में ठप्पा लगा उन्हें दिखा फिर उनके गट्ठे बना संभाल देते. उनका दुबला-पतला एक हरा बदन व लम्बी पतली टांगे लमालम उनसे बीस-तीस मील की डाक सुपुर्दगी यात्रा करा भी इतनी दम रखतीं कि सांझ होते ही समीप के थान, मंदिर में नियमित हाज़री बनाए रख सकें. हफ्ते में तीन चार दिन तो उनका एका बखत ही होता.उनका बड़ा रुतबा था तभी लोग बाग उनसे छोटी मोटी पूजा भी करवा लेते. भभूत भी लगवाते.काला डोरा बंधवाते. नान तिन झस्की जाएं या कहीं स्कूल में कन्याऐं अपनी झाकरी नोंचने लगें तो उनके अल्मोड़िया भैरब मर्ज के हिसाब से जाग सब ठीक ठाक कर देते. कब खुटकुणी भैरब पधारेंगे कब बटुक भैरब और कब काल भैरब यह समय व परिस्थितियों पर निर्भर करता. बड़े संतोषी थे दक्षिणा लेने में हमेशा ना-ना कहते तब भक्त लोग उनके बंद गले के कोट की जेब को पुड़-पुड़ा देते. जब भी जिस गांव से गुजरते सीधा, दूध दन्याली, साग पात सब बड़े आदर से मिलता. अपनी रसोई खुद बनाते और आटा हमेशा दूध में ही ओलते. तभी चोखी रोटी बनती. डाक हरकारे से शुरू पोस्ट ऑफिस की नौकरी ने उन्हें पूरा चमोली और अल्मोड़ा जिला घुमा दिया. मनीआर्डर की रकम से भरे थेलों को सहेज, अंतरदेसीय, पोस्टकार्ड और लिफाफे की गड्डी इलाके के पोस्टमैन को थमा वह हर ऊंच-नीच समझा उन्हें अपने काम में पारंगत बना देते.
थल तक हम रोडवेज की बस से आए जो डाक गाड़ी भी थी. यहां हमें भगवती बाबू मिले. आगे हम चले नाचनी जहां सबसे पहले भगवती बाबू ने अपने रहने-टिकने के गोठ के दर्शन कराये. खूब बड़ी सी चाख थी और भीतर तीन कमरे जिनमें डाक तार का समान बिल्कुल व्यवस्थित रखा था. कई भूरे थैले बंद पड़े थे. टेबल पर लाख के डब्बे और कई मोहरें-दर्जन भर तो होंगी ही. एक तरफ पास बुक के गट्ठे बंधे थे और हर एक भूरे कागज के बड़े लिफाफे में सुतली से बांध रखी जा रहीं थी गांव का नाम काली स्याही से हर लिफाफे में लिखा था जहां के मवासियों की ये थीं. मैं उनकी तरफ देख जब अपना चश्मा साफ कर रहा था तो भगवती बाबू बोले कि पहले जब यहां दौरे पर आया तो एक पास बुक खुलाने में ही जाड़ा बीत गया, तब जा उनके भैरब खुश हुए. पहला खाता गांव की सबसे सयानी आमा ने खुलाया और तखत पर बिछे दन में में भरी चेंज उलट दी. अब क्या बताऊँ माट्साब आपूँ कहोगे फसक मार रहा पर उसमें जॉर्ज और बिकटोरिया वाले चांदी के सिक्के भी हुए. एकन्नी-दुवन्नी-डबल की कौन कहे. सब चांदी के सिक्के मैंने अलग पोटली में बांध ठुल आमा को दिए और बाकी जमा में लगाए. एक पासबुक क्या खुली अगले फेरे तो लाइन लग गई. तीन चौथाई तो अंगूठे के निशान वाले हुए. भगवती बाबू के डाक विभाग की बारीकीयां समझ रहे थे.
(Johar Munsiyari Pithoragarh Mrigesh Pande)
ये वह दौर था जब उत्तर प्रदेश के पर्वतीय इलाकों के लिए संकल्पना बनी थी कि इसके पहाड़ी इलाके तो मनी आर्डर इकोनॉमी है. इस सीमांत में आ पहुँचने वाले मनी आर्डर के बारे में भगवती बाबू से पूछा तो उन्होंने बताया कि कई बार तो चिट्ठी-पत्री से ज्यादा मनी आर्डर होते हैं. ये देखिए ये चमड़े के थैले इनमें धरे जाते हैं नोट हर इलाके के हिसाब से. अब ये शांत इलाका हुआ सो चोरी होने लुट-पिट जाने की झसक नहीं हुई. इधर बाहर कमाने, नौकरी करने वालों की तादाद बढ़ती गई है. फौज में कम पर बैंक, तार -टेलीफोन, डॉक्टर, अभियंता की भेजी रकम के साथ प्राइवेट में काम करने वाले प्रवासियो की भेजी रकम गांव में आती है.
तिब्बत व्यापार के दौर में जहां उत्कृमण था वहीं अब नौकरी के लिए जहां अवसर मिले वहाँ जाने की, गांव से निकल पड़ने की ललक है. वहीं गांव में भी बारों महिने बस गए हैं मवासे. खेती पाती पर जोर देने लगे हैं जबकि पहले खुद की जाने वाली खेती नगण्य ही थी. जिनके पास तल्ला मल्ला जोहार में खेती की ज्यादा जमीन थी वह काश्तकार से खेती कराते थे. सब्जी बोने, फल फूल पर भी ध्यान न था. अब ऊन का सहायक काम तो शुरू हुआ ही खेती पाती जड़ी बूटी ने टेक दी. ये सब पंद्रा-बीस साल में हो गया. बड़ी खुर-बुर वाले हुए ये लोग. अब देखो बासठ से व्यापार तो डूब गया हुणियों के साथ वाला तो ऊन के काम से टेक बना दी. पढ़ाई लिखाई पे भी ध्यान दिया और काम के साथ साथ तो आगे की पढ़ाई के लिए बच्चों को बाहर भी भेजा. भाबर के साथ और कई जगहों में तो बच्चों के रहने के, खाने पीने के इंतज़ाम भी पक्के किये.
जोगा सिंह मास्साब आ गए थे. भगवती बाबू ने उन्हें हमारे आने के बारे में सब बताया था तो बड़े खुश कि इतनी दूर आ यहां के काम धाम को जानने आए. इंटर कॉलेज में गणित के प्रवक्ता हुए वो. यू पी के अधिकारी, पुलिस प्रशासन से खूब नाराज कि आते हैं खाली हाथ जब जाते हैं तब तक बोरा भर भर नोट अपने मैदान सरका देते हैं. फिर इनको शिलाजीत भी चाहिए और कस्तूरी भी. पुलिस तो यू पी की और भी पलीत हुई. इत्ती तोंद फुला दी और अब देखिये यहां वहाँ से खाने पीने के निनियानब्बे तरीके कर दिए. प्रोफेसर साब ये जो काली नदी है ना इसके पार से सोना आता है, उधर दाम कम हुए, वो साला चीन अपने यहां जूता चालीस का बेचेगा तो झूलाघाट दस में बेच देता है, ऐसे ही बिजली का सामान हुआ ये याशिका- फाशीका कैमरे हुए यहां तक कि पेंसिल -पेन हुई. देखो ये ठहरा स्मगलिंग का खेल. कम ही हुआ कहने को लड़कियां भी सब कानपुर मेरठ दिल्ली बम्बई तक सरका दे रहे. गरीबी तो नेपाल में और ज्यादा हुई.मैं तो कहता हूँ सीधे लखनऊ इनकी शिकायत भेजो. अखबार में लिखो. अब अपना उत्तराखंड बने तभी होगा कुछ. अभी तो ये इंदिरा गाँधी भी छनीचर के फेर में है.
जोगा सिंह मास्साब ने पहले ही झटके में आंचलिक अर्थव्यवस्था की पोल खोल दी. अब मैंने बताया कि हमारे यहां आने का मकसद क्या है. अब हम उनके चेले थे और वो हमारे कड़क से गुरूजी. तो कक्षा में आते ही सीधे शुरू हो जाने वाली टोन में उन्होंने यहां के बारे में बताना शुरू किया.
प्रोफेसर शाब,अभी जो नाचनी पार कर आप आये उससे ऊपर सब ब्यापारी कौम बसने वाली हुई यहां. जब व्यापार चलता तो सब मूल -बचत, चीज- माल खरीद बेच में लगती. हुणियों का आना बन्द हुआ तो ऊन का काम फिर जोर पकड़ा. भाभर से चीज बस्त आई,यहां बिकी. पहले भाभर से माल घोड़ों -बकरियों में लद इधर भैंस खाल लाते फिर आगे दरकोट ले जाते. बकरियों की पीठ पर ‘करबछ’ होता,मतलब ऊन का जोड़ीदार थैला जिसके तले में चमड़ा लगा होता था. सामान लाद कर पहले इन थैले -करबछोँ को घुरड़ के सींग से बने ‘स्युड़े’ यानी सुई से सिला जाता जिसे ‘बिटकू’ कहते थे. ऐसे ही घोड़ों पर जो सामान लदता तो उसके नीचे उनकी पीठ पर वह कपड़ा बिछाते जिसे ‘ताग्यप’ कहते.इसके ऊपर ‘बोलदन’ बिछाते जो गद्दे की तरह होता व जिस पर कहा जाता कि हिरन के बाल भरे होते.सवारी के लिए घोड़ों की पीठ पर पहले ‘ताग्यप’, उसके ऊपर दन, फिर बकरी-भेड़ की खाल या ‘छाल्ल’ बिछाया जाता. सबसे ऊपर लकड़ी की काठी चढ़ती जिसे ‘सिंगा’ कहते. अब सामान जो गाँठों में भरा होता व ऊन भरे बड़े थैले जो ‘कोथले’ कहलाते, लाद दिए जाते. जिन घोड़ों में घर के सयाने-बुजर्ग सवारी गांठते उसमें ताग्यप या संतुलन बनाए रखने वाले मोटे कपड़े के ऊपर बाल भरा गद्दा या ‘बोल्द’ रख फिर उसके ऊपर रंग बिरंगा दन बिछा दिया जाता. इसके भी ऊपर लकड़ी की काठी के बदले एक अलग तरह की काठी ‘बांखर’ रखते जिसमें रकाब या ‘यपचन’ होती. इनके भी ऊपर चमड़े की जोड़ीदार थैली ‘तापार’ रखी जाती. इसके दोनो थैलों में कीमती सामान रखने की गुंजाइश होती. तापार फिर बड़े आसन या छोटे दन से ढक दिया जाता. अमूमन जो सवारी घोड़े होते उनके गले में ‘बौदपू खांकर’ की जगह बीस दाने वाली कांसे की छोटी घंटियों की लड़ी वाली माला डाली जाती जिसे ‘लास्सा खांकर’ कहा जाता. इस लड़ी माला के बीच बीच में चंवर गाय के ऊन से बने फूल गुंथे होते जिन्हें ‘फूना’ कहते . विशेष रूप से सजे घोड़ों के मुँह में लोहे के छल्ले वाला लगाम होता. इसके बदले ऊन की रस्सी से बना लगाम भी लगाया जाता. सामान लादे घोड़ों के गले में लोहे की जो घंटी होती जिसे “बौदपू घोनो” कहते. सबसे आगे जो घोड़ा खच्चर चलता उसके गले में छह बड़े लोहे के दानों वाली तिब्बती घंटी बाँधी जाती जिसको ‘बौदपू खांकर’ कहते.
एक स्थान से दूसरे को संक्रमण करती सवारी के विवरण जो सुने और पढ़े उनमें एक एक बात एक एक बारीकी साफ झलकती. जैसे घोड़ों की सवारी गांठ घर के बड़े-बूढ़े-सयाने चलते जिनका खूब ध्यान रखा जाता. ऐसे ही ठाठ छोटे नानतिनों या शिशुओं-बच्चों के होते . एक जगह से दूसरी जगह की चढ़ाई चढ़ते बखत लौंडे-मोंडे, किशोर कूदते-फाँदते निकल चढ़ते तो छोटे अपने घर के किसी बड़े की ऊँगली पकड़ चलते. ज्यादा ही थकने पर उन्हें गोदी में उठा लिया जाता या वो काने मतलब कंधे पर सवार दिखते. सबसे आराम होता उन छोटे बच्चों का जो रिंगाल या निंगाल की लोचदार खपच्चियों से बनी टोकरी में बैठा दिए जाते. ढाई-तीन फिट की इस टोकरी के बीच में मजबूत डोरियों से बनी जाली होती जिसके ऊपर गुदगुदा कपड़ा बिछा दिया जाता.उस पर शिशु को आराम से बैठा या लिटा कर चला जाता. इस टोकरी को “बोकन डोगो” कहते थे जो बच्चों को बोकने के अलावा घर पर पालने की तरह प्रयोग में लाया जाता. छोटे बच्चों को पीठ में भी बोका जाता जिसके लिए चार-पांच फिट लम्बा कपड़ा जो ज्यादातर सफेद ही होता था और जिसे औरतें अपनी कमर भी बांध लेती का प्रयोग होता. इस कमर पट्टे को “पौकोर” कहा जाता. कमर में बंधे पौकोर पर बच्चे को टिका कर दूसरे पौकोर या मुलायम पँखी से पीठ पर लपेट बांध लिया जाता. अब उसे कैसे बांधते यह बताते अपने सफेद कोट के ऊपर पड़ी पँखी को पीछे पीठ में ले जा आगे कर अपने जोगा सिंह मास्साब ने जीवंत कर दिखाया. फिर मोटे फ्रेम के चश्मे को पोछने लगे. उनके गाल कुछ नम थे,बीती यादों ने छलक पड़े आंसुओं को चेहरे पर इकट्ठा कर दिया था. सफेद कोट के ऊपर गहरे भूरे काले भन्यान रंग के मफलर से उन्होंने अपना चेहरा पोछा. सर की ऊनी टोपी उतार बाल खुजाये. अब पीठ को दीवार की टेक दे मास्साब ऑंखें मूंद बैठे रहे. अतीत को याद कर रहे थे वह.
(Johar Munsiyari Pithoragarh Mrigesh Pande)
(जारी)
अगली कड़ी – छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : नैन बिछाए बाहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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