वर्तमान का अतीत में समाहित होकर भविष्य में उजागर होना ही इतिहास है. यह आलेख, शिलालेख, गुहा चित्र, ताम्र पत्र, धातु या मृदा भांड, मूर्ति अथवा जीवाश्म के रूप में प्राप्त वस्तुओं के सूक्ष्म अध्ययन के पश्चात निर्धारित किया जाता है. जब आज भी इतिहासकार आर्यों के मूल स्थान तथा उनके भारत आगमन के सम्बन्ध में एक मत नहीं हैं तो हिमालय के सुदूर दुर्गम जोहार घाटी जैसे एक बहुत छोटे क्षेत्र और इस क्षेत्र का इतिहास निर्धारित करने के लिए हमें ठोस ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हों ही, यह असम्भव है. फिर भी हमें गर्व है, इस समाज के उन व्यक्तियों और उनके कृतित्व पर जिनकी दूरदर्शिता के कारण आज हमारे पास पन्द्रह-सोलह पीढ़ी पूर्व तक का इतिहास उपलब्ध है.
(Johar Historical Background Uttarakhand)
जोहार का प्रारम्भिक इतिहास भी किम्वदन्तियों और लोक गाथाओं पर आधारित है. ई.टी. एटकिंसन के ‘हिमालयन गजेटियर’ निकलने से पचास वर्ष तथा बद्रीदत्त पाण्डे के ‘कुमाऊँ का इतिहास’ प्रकाशित होने से एक शताब्दी पूर्व जोहार के देबू बूढ़ा के ज्येष्ठ पुत्र मानी द्वारा 1835 में लिपिबद्ध अभिलेख के आधार पर ही पं. नैन सिंह को 1883 में जोहार के इतिहास को, आगे बढ़ाने का श्रेय प्राप्त हुआ तथा नैन सिंह के कार्य को आधार मानकर बाबू राम सिंह भी लेखनी उठाने में सफल हुए. हल्दुवा-पिंगलुवा नाग वंश, पंच ज्वारी युग और तत्पश्चात् धाम सिंह रावत के आगमन की कहानी को जो ऐतिहासिक रूप इन विद्वानों ने दिया, न तो हम इसे नकार सकते हैं और न इससे हट कर एक अन्य इतिहास की रचना ही कर सकते हैं.
इतिहास से पूर्व प्रागैतिहासिक काल की कल्पना करके हल्दुवा-पिंगलुवा युग को हम जोहार का प्रथम ऐतिहासिक काल मानते हैं. महाभारत कथा के आस्तीक पर्व के अध्याय 35 में नवें तथा बारहवें श्लोक में हरिद्रक और पिंगलक नामक जिन नागों का नाम आया है, उनका वंश-अपभ्रंश हल्दुवा-पिंगलुवा नाग वंश की शाखा जोहार में निवास करती थी. विनता पुत्र गरुड़ के प्रतिरूप विशाल चौगम्पा पक्षी द्वारा इस नाग वंश का विनाश किये जाने पर लपथेल में ध्यानावस्थित शाक्य मुनि के शिष्य ने उस पक्षी को मार कर जोहार घाटी को पुन: बसाया जो कि हेलंबा, तितरपा, घोनरपा, निखुर्पा, ल्वाँल, बुर्फाल और हलम्वाल उपजाति के लोग पंजरी कहलाये गये. ये लोग पल्थी-फाफर की खेती करते और शीत ऋतु में भूमि में गड्ढा खोद कर रहते थे.
वर्तमान जोहारियों की अपेक्षा इनकी बोली भी भिन्न थी. ये पंचज्वारी लोग जाड़ों में गोरी नदी के बर्फ से ढक जाने पर अथवा ऊँचे गिरि पथों से होकर दक्षिण में मुनस्यारी तक आते और यहाँ के मूल निवासी बारह थोक बरपटियों से नमक अनाज में बदल कर तिब्बतियों को देते थे. ऐसे दुरूह मार्गों पर नौ बकरियों के साथ दस ढकरियों को जोहार से मुनस्यारी पहुँचने तक एक महीना लग जाता था. मदकोट को ये लोग ‘माल’ (भाबर) समझते थे. केले की पत्ती में भात खाना इनके लिए आश्चर्य था. मुनस्यारी क्षेत्र की आबादी को देखकर इसे संसार का आधा भाग समझते तथा ‘आधा संसार, आधा मुनस्यार’ की उक्ति कहते थे.
पं. नैन सिंह के अनुसार पूर्व काल में तिब्बती लोग ही नमक लेकर जोहार आते और बदले में अनाज लेकर तिब्बत जाते थे. ‘रह-ल्हम’ (अज पथ) का अपभ्रंश वर्तमान का एक गाँव ‘रालम’ ही अतीत में तिब्बतियों के जोहार आने का मार्ग था. सुनपति के युग तक उत्तर में तिब्बत और दक्षिण में कत्यूर घाटी तक के लोगों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो चुका था. तब से पश्चिमी तिब्बत और कुमाऊँ-गढ़वाल के सुदूर अंचलों तक अनाज और नमक विनिमय का यह व्यावसायिक सम्बन्ध 1962 तक यथावत था.
एटकिंसन और बद्रीदत्त पाण्डे की अपेक्षा स्थानीय इतिहासकार पं. नैन सिंह और बाबू राम सिंह ने हल्दुवा-पिंगलुवा की कहानी पर अधिक प्रकाश नहीं डाला है. यह शाक्य मुनि जिसे शाक्या लामा भी कहा जाता है, बौन धर्म का समर्थक था. बौन धर्म में लामाओं के आकाश में उड़ने और ख्युंग पक्षी की मान्यता है. दाहिने से बाँयी दिशा की ओर धर्म चक्र घुमाने और मठों की परिक्रमा करने तथा बकरी की छाती चीर कर हृदय खण्ड निकालने जैसे बौन परम्परा के कुछ लक्षण जोहार के समाज में वर्तमान में भी विद्यमान हैं. नागिनी की पूजा करने और चरखमियां जंगपांगी लोगों को नाग की संतान कहे जाने की कहानी के आधार पर कहा जाता है कि जोहार में नागवंशी लोग निवास करते थे. बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार से पूर्व मंगोलिया, चीन, तिब्बत, नेपाल, सिक्किम और भारत के हिमालयी भूभाग पर बौन धर्म के अनुयायी निवास करते थे. कुमाऊँ के अनेक मन्दिरों में बूटधारी प्रतिमाओं का होना इसका प्रमाण समझा जाता है.
कुमाऊँ में कत्यूरी वंश के अवसान और चंद वंश के अभ्युदय काल में जोहार का यह क्षेत्र डोटी शासन के अधीन था. बद्रीदत्त पाण्डे ने ‘कुमाऊँ का इतिहास’ में जोहार के ल्वाँल ठाकुर को कत्यूरी राज्य का माण्डलीक लिखा है. चन्द शासन काल के प्रारम्भ में गढ़वाल, कुमाऊँ, नेपाल तथा अनेक स्थानों से आकर लोग जोहार में बसने लगे थे. इनमें मिलम्वालों का मूल पुरुष धाम सिंह रावत प्रमुख था. पं. नैन सिंह आदि पूर्ववर्ती लेखकों के अनुसार धारानगर के राजपूत गजेन्द्र सिंह हरद्वार के निकट बुटोलागढ़ आ बसे थे. कुछ पीढ़ी पश्चात् उनके वंशज परगना बधाण गढ़वाल के ज्वाला और सोलन में रहने लगे. इन्हीं में हीरू और धाम सिंह कुछ कारणवश तिब्बत जाकर पश्चिमी तिब्बत के धार्मिक प्रशासक ‘बोतछोगेल’ की सेना में भर्ती हो गये. उसने अपने पराक्रम से लदाखी आक्रमणकारियों को पराजित कर दिया था. अतः धाम सिंह की वीरता से प्रसन्न होकर बोत्छोगेल ने उसे तिब्बती प्रथा के अनुसार पाँच स्थायी उपहार प्रदान किये. जिसका लाभ धाम सिंह के वंशज तिब्बत व्यापार बंद होने से पूर्व तक लेते रहे. उत्तराखण्ड की विभूतियों के लेखक शक्तिप्रसाद सकलानी धाम सिंह को बुटोलागढ़ के रावतों के वंशज तथा बोत्छोगेल की सेना का प्रधान नियुक्त होने के प्रसंग से सहमत नहीं हैं.
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पूर्ववर्ती लेखकों के अनुसार धाम सिंह तिब्बत की जलवायु तथा भू-भाग उपयुक्त न समझकर जोहार आ बसा. वह गढ़वाल से अनेक लोगों को साथ लाकर जोहार में अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगा. पूर्व निवासी हलम्वाल और ल्वाँल लोगों का पतन और नवागन्तुक लोगों का प्रभुत्व बढ़ने से मूल निवासी बुर्फाल और इन नवागन्तुक लोगों में परस्पर संघर्ष होने लगा. बुर्फालों द्वारा मिलम्वालों को जीवित ही कोथलों में बंद कर गोरी में बहा दिये जाने के कारण प्रतिशोध स्वरूप समगों काण्ड में सभी बुर्फाल मारे गये. उनकी विधवाओं द्वारा चन्द दरबार में शिकायत किये जाने पर राजा रुद्रचन्द (1568-1597) ने इनके मध्य समझौता करा कर परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करा दिया. राजा रुद्रचन्द ने ही पुरुख पन्त की सहायता से सीरा के राजा हरीमल्ल को हरा कर जोहार को भी चन्द शासन में सम्मिलित कर लिया था. धीरे-धीरे पूर्व निवासी पंज्वारी और नवागन्तुक लोगों के मध्य वैवाहिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित हो जाने से बौन अथवा बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होता गया तथा कुमाऊँ के निकट सम्पर्क में रहने के कारण इन नवागन्तुक लोगों ने वैदिक धर्म को अपना लिया.
बाबू राम सिंह के अनुसार लगभग अठारहवीं शताब्दी के मध्य भादू बूढ़ा की चौथी पीढ़ी में उत्पन्न कोनच्यो बूढ़ा ने बमन गाँव के जयदेव नाम के एक द्विवेदी ब्राह्मण को सादर आमंत्रित कर उसे मिलम्वालों का पुरोहित नियुक्त किया था. तत्पश्चात् जोशी, पंत, पाण्डे, त्रिपाठी, लोहनी आदि पंडित आकर जोहार के अन्य गर्खाओं के पुरोहित बन गये. इसी अवधि में विभिन्न स्थानों से शिल्पकार और मिरासी वर्ग के लोग भी यहाँ आकर शौकाओं के आश्रय में रहने लगे, जिससे यहाँ वर्ण के आधार पर सामाजिक व्यवस्था की स्थापना होने लगी. पुरोहित वर्ग तो स्थायी रूप में मुनस्यारी के विभिन्न गाँवों में रहते थे, जबकि शिल्पकार वर्ग शौकाओं के साथ उत्क्रमणशील जीवन व्यतीत करते थे. चन्द शासनकाल से ही जोहार के कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों को शासन की ओर से जागीर के रूप में अनेक गाँवों का भू-स्वामित्व भी प्राप्त होने लगा था. अतः मध्ययुगीन सामन्ती प्रथा के अनुसार जोहार घाटी में भी ‘हुजूर और मजूर’ वाली सामाजिक व्यवस्था स्थापित होने से दास प्रथा भी आरम्भ हो गई. ऐसे दास गृहस्थी से लेकर पशु पालन और व्यापार के कार्यों में शौका व्यापारियों की सेवा में सपरिवार सम्बद्ध थे. परन्तु इन्हें न तो भू-स्वामित्व प्राप्त था और न इनसे वैवाहिक सम्बन्ध ही स्थापित हुआ था. पंज्वारियों और नवागन्तुक लोगों के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने से रक्त संक्रमण के कारण ही धीरे-धीरे यहाँ निवास करने वाले सभी लोगों की मुखाकृति में भी अंतर आ जाना स्वाभाविक था.
सन् 1670 में भादू मिलम्वाल और लोरू ब्रिजवाल ने कैलास-मानसरोवर यात्रा हेतु बाजबहादुर चन्द का मार्गदर्शन किया था. बाजबहादुर चन्द ने इन्हें कई गाँव जागीर स्वरूप प्रदान किये. चन्द और गोरखा शासन काल में कई कृषक भूमि-कर भी नहीं दे पाते थे. ऐसे लोगों की भूमि क्रय कर स्वयं कृषि कार्य न करके फिर उन्हें ही काश्तकार नियुक्त कर अनाज (गल्ला) प्राप्त करने के लाभ को देखते हुए ऐसे कई दूरदर्शी शौका लोगों ने सैकड़ों गाँवों के हजारों परिवार के लोगों को अपना काश्तकार नियुक्त कर लिया. इन काश्तकारों से प्राप्त अन्न से तिब्बत व्यापार में इन शौका व्यापारियों को दोहरा लाभ प्राप्त होता था. परन्तु सन् 1962 में सदियों से चला आ रहा तिब्बत व्यापार बंद हो जाने के साथ ही 1965 के भू-मापन और सर्वेक्षण के आधार पर ऐसे काश्तकारों को भू-स्वामित्व प्रदान करने की शासन की नीति से जोहारवासियों के आर्थिक स्रोत-साधन समाप्त हो गये.
कुमाऊँ में गोरखा शासन स्थापित होने से पूर्व चन्द शासकों की दुर्बलता के कारण जोहार एक स्वतंत्र क्षेत्र की तरह था. यहाँ पर जसपाल बूढ़ा मिलम्वाल का स्वछन्द शासन चलता था. इसी समय गोरखा शासन का तीव्र विस्तार हो रहा था. 1790 में गोरखों ने बड़ी सरलता से कुमाऊँ को जीत लिया. चन्द शासकों की दुर्बलता और हर्षदेव जोशी की कूटनीतिक गतिविधियों के कारण अन्तिम राजा महेन्द्र चन्द और कुँवर लाल सिंह, गोरखा सूबेदार अमर सिंह थापा से पराजित होकर कोटा भाबर की ओर चले गये. कुछ वर्ष पश्चात् गोरखों ने गढ़वाल और कांगड़ा तक भी अपना राज्य विस्तार कर लिया. परन्तु जोहार के तत्कालीन प्रधान जसपाल बूढ़ा ने दस वर्ष तक गोरखों को जोहार में घुसने नहीं दिया.
जसपाल बूढ़ा फर्त्याल धड़ का समर्थक था. हर्षदेव जोशी कैद से भाग कर जोहार पहुँचा. जसपाल बूढ़ा ने चन्द शासक को धोखा देने के आरोप से हर्षदेव को पकड़ कर राजा महेन्द्र चन्द और कुँवर लाल सिंह के पास सूचना भेज दी. उन्होंने जोशी को दंडित करने के लिए कुँवर पदम सिंह को भेजा. कूटनीतिज्ञ जोशी उसे राज्य दिलाये जाने का प्रलोभन देकर स्वयं गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह के पास चला गया. ‘गढ़राज्य शासन की यादें’ के लेखक मनीराम बहुगुणा हर्षदेव जोशी की अपेक्षा उसके पुत्र जयनारायण जोशी को जोहार में कैद किये जाने का उल्लेख करते हैं. युद्धजन्य परिस्थिति से व्यापार और आर्थिक स्थिति पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को देखते हुए जसपाल बूढ़ा ने गोरखों की अधीनता स्वीकार कर ली. परन्तु प्रतिशोध स्वरूप गोरखा सरकार द्वारा जोहारवासियों पर अत्यधिक कर लगा दिया गया.
ठेकेदारी प्रथा द्वारा राजस्व वसूल करने की नीति से शासन द्वारा नियुक्त प्रधान लोग जनता से मनमाने ढंग से कर वसूल करते थे. जसपाल बूढ़ा के पश्चात् उसका पुत्र विजय सिंह भी नेपाल दरबार से लाल मुहर प्राप्त कर निरंकुश शासक बन बैठा था. उसकी इस निरंकुशता से रुष्ट होकर जगू-राछू आदि मरतोलिया स्वदेश छोड़कर दुगमर्मा नेपाल तो कुछ लोग टोपीढुंगा के निकट गेरती चले गये थे. कुछ लोग नेपाल दरबार से विजय सिंह के विरुद्ध अपना नया प्रधान नियुक्त करने में भी सफल हुए थे.
विजय सिंह की चौथी पीढ़ी में उत्पन्न उत्तम सिंह रावत ने पादरी जे.एस. बडन के माध्यम से सन् 1878 में ईसाई धर्म ग्रहण किया तो क्षेत्र के लोग इस धर्म परिवर्तन से सन्तुष्ट नहीं थे. परन्तु पादरी उत्तम सिंह, उनके पुत्र प्रिंसिपल हेनरी जॉन रावत और डॉ. आर्थर रावत ने जो जनहित का कार्य किया, शैक्षिक विकास और सामाजिक उत्थान की दृष्टि से उनकी विचारधाराओं का जोहारी शौका समाज पर अपरोक्ष रूप से सकारात्मक प्रभाव अवश्य पड़ा.
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सन् 1812 में विलियम मूरक्राफ्ट के तिब्बत भ्रमण से लौटने और तिब्बत व्यापार से कम्पनी सरकार को होने वाले सम्भावित लाभ को देखते हुए शासन को उसके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर सन् 1815 में गोरखों की पराजय और कुमाऊँ-गढ़वाल पर कम्पनी सरकार का आधिपत्य स्थापित हो जाने के पश्चात् द्वितीय कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने इस सीमांचल से होने वाले तिब्बत व्यापार पर विशेष ध्यान दिया. बोर्ड ऑफ ट्रेड, फोर्ट विलियम कलकत्ता के भंडारागार से ब्रिटेन की मिलों में बने चौड़े कपड़े, शीशे का सामान, छुरी, कैंचियाँ, दियासलाई, लाल मूँगा आदि अल्मोड़ा के शाह लोगों के माध्यम से इस सीमांचल के व्यापारियों को उपलब्ध कराया गया.
विलियम ट्रेल ने व्यापार सम्बन्धी कठिनाइयों को देखते हुए ट्रांजिट कर भी समाप्त कर दिया तथा व्यापारिक मार्गों के सुधार हेतु पाइनियर कम्पनी नियुक्त कर दी. ट्रेल के इस प्रयास का क्षेत्र के आर्थिक विकास और तिब्बत व्यापार के हित में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. इसी कारण ज्ञानिमा पश्चिमी तिब्बत की सबसे बड़ी मंडी के रूप में विकसित हुआ. जोहार घाटी के व्यापारी बिना किसी प्रतिबंध के ज्ञानिमा, दर्चिन, छाकरा, गरतोक आदि मंडियों और छ्यूगाड़, खिंगलुग मेंसर, तीर्थपुरी, गुरग्यम, ज्यू गोम्पा, बरखा, शिवचलिम, बुगठोल, चुचू और सुदूर पश्चिमी तिब्बत में रुदौक तथा उत्तर में ज्यांगथांग तक व्यापार के लिए जाया करते थे. द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् भारत में अन्न-वस्त्र, चाय, चीनी आदि दैनिक वस्तुओं की कमी हो जाने के कारण सरकार को इसके वितरण के लिए राशनिंग प्रणाली अपनानी पड़ी थी. इनमें कपड़ा मुख्य था. परन्तु तिब्बत में कपड़े की बढ़ती माँग को देखते हुए जोहार के कुछ व्यापारियों को 1946 में केन्द्रीय सरकार की संस्तुति और टैक्सटाइल कमिश्नर की अनुमति से बम्बई की आलोक मिलों से तिब्बत व्यापार की आपूर्ति हेतु बहुत ही कम मूल्य पर 600 बेल कपड़े का परमिट प्राप्त करने में सफलता मिली थी. यह सुविधा 1955 तक मिलती रही.
सन् 1774 में जार्ज बोगले की असफल तिब्बत यात्रा से पूर्व मार्कोपोलो का यात्रा वृतान्त, यात्रियों और कुछ व्यापारियों तथा मिशनरियों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी तिब्बत के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं थी. 1857 में स्लागिन्टवाइट बन्धु एडोल्फ के काशगर में हत्या किये जाने और 1863 में तुर्गन विद्रोह उभरने के कारण विदेशियों के लिए तिब्बत में प्रवेश निषिद्ध हो गया था. जबकि 1644 से ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी तिब्बत से ऊन, सोहागा और सोना प्राप्त करने के लिए लालायित रहने लगी थी. अतः तिब्बत के सोने की खानों की खोज और चीनी-साइबेरियन मार्गों के सर्वेक्षण कार्य करने के लिए सन् 1861 में कर्नल मान्टगोमरी ने एक योजना बनाकर जोहार घाटी के रावत बन्धुओं को सर्वे ऑफ इण्डिया में प्रशिक्षण देना आरम्भ किया. भारत-तिब्बत सीमा क्षेत्र के इन निवासियों के लिए परम्परागत व्यापार के कारण तिब्बत में प्रवेश करने की किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं थी. ये लोग तिब्बती भाषा और संस्कृति से पूर्णत: भिज्ञ थे तथा मंगोल मुखमुद्रा के कारण छद्म रूप में कार्य कर सकते थे.
सन् 1855 से 1882 तक जोहार घाटी के निवासी मानी, नैन सिंह, कल्याण सिंह, दोलपा और किशन सिंह ने छद्म रूप में तिब्बत, चीन, तुर्किस्तान और मंगोलिया के कई क्षेत्रों का जिस प्रकार से त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण कार्य किया, भू-सर्वेक्षण की दृष्टि से आज विश्व में उनकी ख्याति है. उनके इस महान सर्वेक्षण कार्य के लिए पंडित नैन सिंह को रॉयल ज्योग्रेफिकल सोसाइटी लंदन द्वारा 1877 में ‘पैट्रन्स मैडल’ तथा ब्रिटिश शासन द्वारा ‘सी.आई.ई.’ (कम्पेनियन ऑफ इंडियन एम्पायर) तथा पंडित किशन सिंह को 1885 में ‘रायबहादुर’ के अलंकरणों से विभूषित किया गया था. पं. नैन सिंह की स्मृति में भारत सरकार ने 2004 में एक डाक टिकट भी निर्गत किया है.
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रावत बंधुओं के महान कार्यों और उपलब्धियों से प्रभावित होकर क्षेत्र के लोगों में शिक्षा के प्रति अभिरुचि बढ़ने लगी थी. व्यापार के निमित्त दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई आदि महानगरों का भ्रमण करने और राष्ट्रीय नेताओं के भाषण सुनने तथा समाचार पत्रों के माध्यम से ये लोग राजनैतिक गतिविधियों के प्रति भी जागृत होने लगे. अतः कांग्रेस के असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलन तथा अगस्त 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में इस क्षेत्र के तैंतालिस स्वतंत्रता सेनानियों को कारागार की यातनायें सहन करनी पड़ीं और आर्थिक दंड देना पड़ा. एक युवक त्रिलोक सिंह पाँगती चनौंदा गाँधी आश्रम में गोरे सिपाहियों के डंडे की मार से शहीद हो गया था.
भारत के स्वतंत्र हो जाने और तिब्बत में चीन के साम्राज्यवादी विस्तार की नीति के पश्चात् इस क्षेत्र से होने वाले तिब्बत व्यापार में हो रही प्रगति के साथ ही लोगों में शिक्षा और सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा. लोग राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़कर क्षेत्र के चहुँमुखी विकास की ओर अग्रसर होने लगे.. परिणामतः राष्ट्र की विशिष्ट सेवा के लिए श्री लक्ष्मण सिंह जंगपाँगी, हरीशचन्द्र सिंह रावत और हुकम सिंह पाँगती को पद्मश्री अलंकरण से विभूषित किया गया. श्री हरीशचन्द्र सिंह रावत, कुमारी सविता मरतोलिया और लबराज सिंह धमसक्तू ने विश्व के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ होकर क्षेत्र का गौरव बढ़ाया है. 1962 में तिब्बत व्यापार बन्द हो जाने से इस सीमा क्षेत्र के लोगों के आर्थिक जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को देखते हुए 1967 में भारत सरकार ने इन्हें अनुसूचित जनजाति में घोषित कर आरक्षण की सुविधा प्रदान की है. आज इस समाज के नवयुवकों को शिक्षा, चिकित्सा, तकनीकी ज्ञान, प्रशासन और सेना तथा अर्द्ध सैनिक बलों आदि में सेवा करने तथा अपनी योग्यता बढ़ाने का एक सुअवसर प्राप्त हुआ है.
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डॉ. शेर सिंह पांगती का यह लेख ‘पहाड़ पत्रिका‘ के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से साभार लिया गया है. पहाड़ हिमालयी समाज,संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर केन्द्रित भारत की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में है जिसका सम्पादन मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा किया जाता है.
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1 Comments
Kamal Kumar Lakhera
लेखक ने काफ़ी गहन अध्ययन कर लेख लिखा है ।