मदन जी पूरी रात नहीं सोए. और करवट भी नहीं बदल पाए. एक तरफ़ कनक भूधराकार सरीरा उनकी पत्नी सो रही थीं. जो समर भयंकर अति बलबीरा भी थीं. जिनके खर्राटे उनके हृदय में रणभेरी जैसी धमक पैदा कर रहे थे. और दूसरी तरफ़ तो वो ख़ुद करवट लिए ही हुए थे. रात भर सुबह की योजनाएं बनाते रहे. कानों में बस एक ही वाक्य बार-बार गूंज रहा था – पैला रँग तौ मेई लगाऊंगी. (A Satire Priy Abhishek)
सुबह उठे तो चप्पलें गलत पांवों में पहन लीं. मंजन, ब्रुश पर लगाकर जैसे ही मुँह में डाला, लगा जैसे मंजन नहीं, मिट्टी का तेल हो. “आक्खथू!” चेहरा उठा कर देखा तो सामने शेविंग क्रीम का ट्यूब रखा था. तनाव के कारण सुबह की तीन चाय भी वायु का दबाब बनाने में असफल रहीं. जैसे-तैसे निवृत हो कर बाहर की ओर कदम बढ़ाया कि श्रीमतीजी की दहाड़ गूँजी-“कहा जा रहे हो? आज होली के दिन कौन सा ऑफिस खुलता है? और तुम कौन सा होली खेलते हो?” “वो सोच रहा था कलेक्टर साहब से होली मिल आऊं.“ किसी पकड़े गए चोर की तरह उनके हाथ पैर कांपने लगे.
बात पिछले मदनोत्सव की थी. जब जिले के एक बड़े विभाग के अधिकारी मदन सिंह रावत की स्वयंसिद्धा योजना की हितग्राही रति कुमारी से मुलाक़ात हुई. योजना के नाम के अनुरूप रति कुमारी भी अपने सौंदर्य को स्वयं सिद्ध करती थी. किसी भी सामान्य पुरुष की तरह मदन सिंह को भी विवाह के छः माह के भीतर अपने जीवन से विरक्ति सी होने लगी थी, और एक साल पूरा होते-होते वे जगत की नश्वरता, माया-अध्यास से भी भली-भांति परिचित हो गए थे. कोई एक वर्ष पूर्व वे रति कुमारी के सम्पर्क में आए और ढलती उमर में चढ़ती जवानी के बुख़ार से ग्रसित हो गए. वो समय भी फागुन का ही था. रति ने उनके ऑफिस में दरवाजे से प्रवेश किया और कामदेव ने खिड़की से. और अपने रिटायरमेंट से सिर्फ़ दो वर्ष पूर्व मदन सिंह रावत ,रति कुमारी के लिये, जड़ भरत बनने को तैयार हो गए.
“कलेक्टर साहब सुबह सात बजे से ही होली खेलने लगे?” “नहीं.“ ”फिर?” “सुबह सबसे पहले रंग लगाऊंगा तो उन्हें याद रहेगा.“ “क्यों, क्या तुमाए नाम का पत्थर लगेगा या प्रमाण पत्र मिलेगा -प्रमाणित किया जाता है कि श्री रावत जी ने कलेक्टर साहब को सबसे पहले रंग लगा कर चमचागिरी में प्रथम स्थान प्राप्त किया. शासन इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है. हैं?” “तुम नहीं समझोगी!” इतना कह कर रावत जी घर से बाहर निकलने लगे तभी पीछे से चिंटू बोला, “पापा आपका फोन चार्जिंग में लगा रहा गया.”
रावत जी फोन लेने यूँ दौड़े जैसे दुश्मन देश में अपनी सेना का कोई गुप्त नक्शा छूट गया हो. “आजकल फोन बड़ा सीने से लगा कर रखा जा रहा है. पासवर्ड-आसवर्ड भी डालने लगे हो,” श्रीमती जी ने टोका. “पासवर्ड नहीं डालो तो फोन में वायरस आ जाता है,” रावत जी ने इनस्विंगिंग यॉर्कर को कुशलता से खेला. “जाओगे कैसे? ड्राइवर आज आया नहीं है और बस-ऑटो चल नहीं रहे.” “मैं साइकिल से चला जाऊँगा.” “साइकिल से?” श्रीमती जी और चिंटू दोनों चौंक गए. “पापा आज होली है और आपको गोदूपुरवा से निकल कर जाना है. आज के ख़ास दिन के लिए वो लोग गोबर, कींचड़, मिट्टी और न जाने क्या-क्या का फेसपैक बना कर रखते हैं. एक दिन की होली से पंद्रह दिन गंधाओगे.” माहौल का दबाव और कुछ आशिक़ी में रावत जी का नौसिखियापन, उन्हें मजबूरी में चिंटू के साथ कार में बैठना पड़ा. (A Satire Priy Abhishek)
चिंटू कार चला रहा था और रावत जी दिमाग़. बार-बार उनके अंदर यही शब्द गूँज रहे थे- पैला रंग तौ मेई लगाऊंगी. कभी वे चिंटू को किस तरह विदा करें इसकी योजना बनाते, कभी अपने ऊपर खीझते, तो कभी रति कुमारी पर. “यूँ भावनाओं में नहीं बहना था,” रावत जी मन ही मन बात करने लगे,” साला अस्थि चर्म मय देह उसकी, ता में ऐसी प्रीत?” वे ख़ुद से नाराज़ हुए. “पूरी नौकरी इज्जत से निकाल दी, थोड़ा सयंम और धर लेते. क्रौंच बीज!” रास्ते में लगे एक साइन बोर्ड पर क्रौंच बीज लिखा देख कर वे सजग हो गए. अपनी उम्र की दूसरी पारी में पहली बार मिली इश्क़ की बैटिंग ने उनकी रुचि क्रौंच बीज, अश्वगंधा, शिलाजीत, श्वेत मूसली जैसे तत्वों में बढ़ा दी थी. “तू भी तो पिछली होली के वक़्त होलिया गया था”, चिंतन चालू था,” क्या ज़रूरत थी चिपक कर फोटू खींचने की? साले तू दुनिया का पहला आदमी होगा जिसने अपना खुद का हनीट्रैप कर डाला. अब मर! और ये औरतें भी न, खामख्वाह इमोशनल होती रहती हैं. मजबूरी नहीं समझतीं. अरे तुम्हारा तो परिवार है नहीं, पति को छोड़ दिया, पर हमारा तो है! पैला रंग तो मेई लगाऊंगी, हुँह! पर अकेली स्त्री करे भी तो क्या! क्या है उसके लिए दुनिया में? एक अबला नारी की सहायता करना पुण्य का काम है, पुण्य का. इस निर्दयी दुनिया में अकेली है बेचारी. भली महिला है.” चिंतन चल ही रहा था कि अचानक ‘धपाक’ की आवाज़ हुई.
रावत जी ने मुड़ के देखा; खिड़की के ग्लास पर गोबर चिपका हुआ था. उनका दिल दहल गया. “अच्छा हुआ चिंटू को ले आया. वरना पैला रंग मेई लगाऊंगी की जगह पैला गोबर गोदूपुरवा वाले लगाते.” रावत जी की कार गोदूपुरवा से निकल कर सिविल लाइंस में कलेक्टर के बंगले पर पहुँच गई. वे कार से उतरे और चिंटू से बोले, “तुम निकल जाओ, मैं आ जाऊँगा.” “अरे! मम्मी ने कहा है पापा के साथ ही रहना, वो जहाँ भी जाएं. आपको वापस भी लेकर जाना है, हुकुम है.” नव्य-आशिक़ रावत साहब फिर फँस गए.
वे कलेक्टर बंगले के गेट तक गए, चिंटू दूर गाड़ी में बैठा उन्हें देख रहा था. गेट पर गार्ड उन्हें देखते ही बोला, “अरे साब आप इत्ती सुबै-सुबै?” “वो सोचा साहब को होली की शुभकामनाएं दे दूँ.” “साढ़े सात बजरा है अभी! इत्ती सुबै तो साहब किसी से नहीं मिलते. और बोले थे कि दरबार के लोगों के साथ नौ से दस बजे तक और पिरजा के साथ दस से ग्यारह बजे तक होली खेलेंगे.” इतना बोल कर गार्ड अंदर चला गया. रावत जी लौट कर चिंटू के पास आए.
“साहब अभी बिज़ी हैं. मुझे पीछे के गेट से अंदर बुलवाया है. तू निकल जा! मैं तो किसी के भी साथ आ जाऊँगा.” रावत जी ने चिंटू को पुचकारते हुए कहा. अपने फ़ोन में व्यस्त चिंटू ने बिना ऊपर देखे कहा, “ठीक है”. रावत जी गदगद हो गए. उन्हें यकीन नहीं था कि चिंटू इतनी आसानी से मान जाएगा. फिर वे चिंटू के जाने का इंतज़ार करते हुए कार के बगल में खड़े हो गए. जब चिंटू को मोबाइल में लगे दो मिनट हो गए तो उन्होंने चिंटू को फिर टोका,”जाओ न!” ” अरे आप अंदर जाओ न. मैं चैट कर रहा हूँ, पूरी होते ही निकल जाऊँगा.” चिंटू ने फिर बिना ऊपर देखे कहा. अपने ज़ईफ आशिक़ के सामने फिर नई चुनौती खड़ी थी. (A Satire Priy Abhishek)
वे चिंटू की ओर मुड़ कर देखते हुए कलेक्टर बंगले के बगल से उस पीछे वाले गेट की तरफ़ बढ़े जो कहीं था ही नहीं. और पीछे वाला गेट तो दूर, पीछे जाने का रास्ता भी कहीं नहीं था. आगे झाड़-झँकाड़ थे, उनका पैर गड्ढे में गया और वे फचाक से कींचड़ में जा गिरे. उठने के लिये मुड़े तो देखा बगल में दो भैंसे शीतल हो रही थीं. किसी तरह खड़े हुए ,”केवल पैंट-शर्ट ही गंदे हुए हैं, चेहरा बच गया, नहीं तो सोचती पता नहीं किस सौतन से कींचड़ पुतवा आया.” आगे बढ़ने के लिए कदम बढ़ाया तो उनकी चप्पलों को धरती मैया ने पकड़ लिया. बहुत कोशिश की पर धरती मैया राजी नहीं हुईं. अतः उन्हें चप्पलों को वहीं छोड़ना पड़ा.
बाहर निकल कर उन्होंने चिंटू को देखा, वो अभी भी फ़ोन में व्यस्त था. उन्होंने राहत की साँस ली. कलेक्टर बंगले के पीछे एक खुला मैदान था. वहाँ से निकल कर वे मुख्य मार्ग पर आए और रति कुमारी के घर की दिशा में बढ़े, यह वही दिशा थी जिधर से वे आए थे.
वे, रति के ख्यालों के साथ आगे बढ़ रहे थे तभी उनके बगल में फचाक की आवाज़ के साथ कुछ ज़मीन से टकराया, जो उन्हें लगभग छूता हुआ निकला था. उन्होंने गौर से देखा तो वो एक गुब्बारा था. उसके बाद उन पर तड़ातड़ गुब्बारे बरसने लगे. कोई सिर पर लगा, तो कोई उनकी गर्दन पर. कुछ बच्चे पिचकारियां लेकर उन पर हमला करने के लिये निकल आए. कुछ के हाथ में मिट्टी और गोबर के ढेले थे. चलते-चलते उन्हें ध्यान नहीं रहा था कि वो गोदूपुरवा के होस्टाइल एरिया में प्रवेश कर गए हैं. वे नंगे पैर भागने लगे. दुश्मन चारों तरफ़ से गोलाबारी कर रहा था. उनके वस्त्र आगे की तरफ़ से धरती मैया ने रंग दिए थे, पीछे की तरफ से गोदूपुरवा वालों ने रंग दिए. दो सौ मीटर में बीस सैकिंड का समय निकालते हुए वे रति कुमारी की गली में दाख़िल हुए. और घर से ठीक पहले कुछ देख कर रुक गए.
रति कुमारी के घर के बाहर खड़ी एमपी- ज़ीरो सेवन नम्बर की उस कार को वे भली-भांति पहचानते थे. दो साल से इस कार ने उनके अंदर एक स्थायी दहशत बना दी थी. “ये गाड़ी यहाँ क्या कर रही है?” रावत जी अब सधे कदमों से आगे बढ़े. सीधे घर के अंदर घुस जाएं, अब इतना साहस उनमें नहीं था. बाहर से उचक कर झाँकने की कोशिश की, पर कुछ दिखा नहीं. दीवाल पर लगीं लोहे की सलाखों को पकड़ कर वे ऊपर चढ़े. अंदर झाँक कर देखा. रति कुमारी कलेक्टर साहब के गाल पर रंग लगा रही थी.
“सर प्रणाम!” घबराहट में रावत जी के मुँह से निकला और वो पीछे हटे. पैर फिसला और नीचे गिरे. पर पूरा गिर नहीं पाए. उनका पजामा लोहे की सलाखों में फँस गया और वे उल्टे होकर लटक गए. “कौन है?” अंदर से वही सुरीली आवाज़ आई जिसे सुनने के लिए वे फ़ोन लेकर घण्टो पखाने में बैठे रहते थे. आवाज़ आज खौफ़ उत्पन्न कर रही थी. कोई चारा न देख रावत जी ने पजामे का नाड़ा खोला और अपनी केंचुली से बाहर आ गए.
“जिसे कामिनी समझा, वो कृत्या निकली. कृत्या कहीं की!” वे तेज कदमों से चलते जा रहे थे. बदहवास, किसी लुटे हुए व्यापारी से वे चलते-चलते फिर गोदूपुरा पहुँच गए. एक आदमी को पकड़ा और बोले, “देख मेरा मुँह बंदर जैसा है क्या?” फिर बंदर की तरह उछलते हुए चिल्लाने लगे, “मैं ही हूँ. साला इस युग का वानर मुख नारद मैं ही हूँ. मुझे मारो सालों! मेरा मुँह गोबर में दे दो.” मोहल्ले के लोग “पागल आया! पागल आया!” कहते इधर-उधर भागने लगे. तभी कुछ लोग उन्हें पहचान गए कि ये तो अपने रावत साहब हैं. उन्हें घर तक छोड़ा.
“लगता है बड़ी यादगार होली रही,” श्रीमतीजी ने उन्हें देख कर बोला और हँसते-हँसते सोफे पर गिर गईं. (A Satire Priy Abhishek)
प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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