पिछली एक सदी में यह पहली बार होगा जब ऐतिहासिक जौलजीबी के मेले का आयोजन नहीं किया जायेगा. 1962 के भारत तिब्बत युद्ध से पहले जौलजीबी का मेला भारत के सबसे बड़े व्यापारिक मेलों में शुमार था. काली और गोरी के संगम पर होने वाला यह मेला सीमांत क्षेत्र का एकमात्र अन्तराष्ट्रीय मेला रहा. हर साल इस मेले में तीन देशों- तिब्बत, नेपाल और भारत की संस्कृति का मिलन हुआ करता.
(Jauljibi ka Mela 2020)
इस संगम में स्नान का पौराणिक महत्त्व स्कन्दपुराण में भी दर्ज है. प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार इस मेले की शुरुआत एक धार्मिक आयोजन के रुप में 1758 में अस्कोट के राजा उत्सव पाल ने की थी. (इंडियन राजपूत वेबसाईट में उनका नाम उछब पाल दिया गया है) साल 1871 में अस्कोट के राजा पुष्कर पाल ने काली-गोरी के संगम पर ज्वालेश्वर महादेव की नींव रखी. माना जाता है कि यहीं से इस मेले ने व्यापारिक मेले का स्वरूप लिया. मेले के वर्तमान स्वरूप के श्रेय राजा गजेन्द्र पाल को जाता है. 1914 से यह मेला प्रत्येक वर्ष आयोजित किया जाता रहा है.
स्थानीय दैनिक अख़बारों के अनुसार- 1939 से 1947 तक अस्कोट रियासत के युवराज टिकेन्द्र पाल रहे. युवराज के नाबालिक होने के कारण रियासत का कामकाज अग्रेजों के हाथ में होने के चलते इस समयावधि में मेले का आयोजन ब्रिटिश सरकार द्वारा ही कराया गया. साल 1974 तक मेले की बागडोर रियासत के हाथों ही रही. 1975 से मेले का आयोजन उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने हाथों ले लिया. तभी से हर साल 14 नवम्बर के दिन से मेले का आयोजन शुरु किया जाना तय हुआ. वर्तमान में उत्तराखंड सरकार द्वारा मेले का आयोजन किया जाता है.
(Jauljibi ka Mela 2020)
पिछले 10-15 सालों से इस मेले में मेरठ, लुधियाना, कानपुर, कोलकाता के व्यापारियों तथा हल्द्वानी, बरेली, रामनगर और टनकपुर मण्डियों के आढ़तियों की आमद लगातार बढ़ी है. अब परम्परागत वस्तुओँ के स्थान पर आधुनिक वस्तुओं का क्रय-विक्रय ज्यादा होने लगा है. मेले में जिला बाल विकास, खादी ग्रामोद्योग, उद्यान विभाग, सूचना विभाग, जनजाति विकास विभाग कृषि-बागवानी आदि विभागों द्वारा स्टॉल तथा प्रदर्शनी भी लगाई जाती है. इसके अतिरिक्त झूले-सर्कस आदि के साथ-साथ स्थानीय विद्यालयों के छात्र-छात्राओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है.
(Jauljibi ka Mela 2020)
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