पहाड़ में खेती लाभप्रद नहीं रह गई है इसलिए अब किसान परंपरागत रूप से चले आ रहे कृषि के काम-धंधे से छिटक रहे हैं. पहाड़ में कृषि से मिलने वाली आय परिवार के जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त नहीं साथ ही खेती से जुड़ा पशुपालन भी परंपरागत नस्लों के उपयोग के कारण कम आर्थिक लाभ से जुड़ा है.
(Jalagam Yojna 2022)
पहाड़ी इलाकों में परंपरागत रूप से फसल को बोने की जो परिपाटी रही उसके हिसाब से हर दो साल में तीन फसलों का एक फसल चक्र होता था जिसमें एक ऋतु में खेत को परती रखा जाता था. मान्यता थी कि ऐसा करने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनी रहती है. विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, अल्मोड़ा के कृषि वैज्ञानिक व निदेशक रहे डॉ जगदीश चंद्र भट्ट के अनुसार लगातार प्रयोगों से ऐसी पद्धति खोज पाने में सफलता मिली, जिससे दो वर्षों की 150 प्रतिशत फसल सघनता को नई तकनीक से बढ़ा कर 200 प्रतिशत से भी अधिक किया जा सकना संभव हुआ.
फसल सुरक्षा की कई पारम्परिक विधियां पहाड़ में प्रचलित रही. ये एकीकृत तरीके, खाद्यानों के उत्पादन के साथ उनके सुरक्षित भण्डारण, बीजों के संग्रह, फसल में लगने वाले रोग व कीट के साथ खरपतवार व जंगली जानवरों के साथ चूहों की रोकथाम के उपायों के रूप में विद्यमान रहे. अब गावों में बंदर, सुअर, भालू व साही द्वारा फसलों को उजाड़ देने की घटनायें बहुत बढ़ी हैं जिससे अनाज, फल सब्जी व मसाले के उत्पादन में दिखने वाला ह्रास चिंताजनक है हालांकि सिर्फ यही एक कारक नहीं है इसके साथ कई प्राकृतिक व मानव निर्मित आपदाएं महत्वपूर्ण घटक के रूप में उभरती हैं.
विकास के नाम पर जो तकनीक किसानों के लिए विकसित की गई वह पहाड़ में समर्थ रूप से लागू होने में सक्षम नहीं हो पायी या उसके सामने ऐसे स्वरुप में रखी ही नहीं गई किसे वह आसानी से अपना लेता. फिर जो भी नई तकनीक के नाम पर परोसा गया उनकी आदाऐं या इनपुट पूंजी प्रधान थे, श्रम प्रधान नहीं. पहले जीवन निर्वाह के लिए व फिर बेहतर आय व जीवन स्तर की प्राप्ति के लिए प्रवास व पलायन लगातार होता गया. पहाड़ में बेहतर चिकित्सा, बच्चों की शिक्षा व अन्य सुविधाऐं समीपवर्ती नगरों की तुलना में हमेशा ही कमजोर बनी रही. अल्प विकास व निर्धनता के इस कुचक्र को खंडित करने के नीतिगत उपाय इतने दुर्बल थे कि पहाड़ के अधिकांश गांव गैर आबाद होने लगे. पहले मनीआर्डर इकॉनमी रही जिससे गांव में परिवार के भरण पोषण के लिए आय की तरलता बनी रहती थी, फिर यह प्रवृति उभरी कि गांव से परिवार हटा तेजी से फैलते कसबों और शहरों में बसाव कर लिया जाये. धीरे धीरे जो श्रम शक्ति गावों की उत्पादन क्षमता को बनाए रखती थी उसका अभाव साफ दिखने लगा. पलायन आयोग की तमाम रपटों में ऐसी प्रवृत्तियों के संकेत हैं.
गावों में खेती पाती कर जीवन निर्वाह कर रहे खेतिहरों के लिए उत्तराखंड जलागम प्रबंध निदेशालय अब उनकी जरूरतों को ध्यान में रख आजीविका सृजन के नये रास्ते सुझाने की बात कर रहा है.उत्तराखंड के नौ पहाड़ी जिलों के खेतिहर इस योजना से लाभ प्राप्त कर पाएंगे. ध्यान रहे कि जलवायु परिवर्तन से पारिस्थितिकी व पर्यावरण पर पड़े विपरीत प्रभावों को ध्यान में रखते हुए अब सरकारी नीतियाँ जैविक कृषि को प्राथमिकता देने के लिए कई योजनाओं की घोषणा कर चुकी है और बजट में भी इसके क्रियान्वयन के लिए वित्त का आवंटन कर चुकी है.
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उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के लोक वनस्पति विज्ञान का ऐतिहासिक अवलोकन यह स्पष्ट करता है कि पहाड़ में किसान कृषि उत्पादों की वृद्धि के साथ साथ कृषि सुरक्षा के लिए भी अनेक प्रयोग करता रहा है. ऐसे अनेक प्रमाण लोक साहित्य में मिलते हैं. वातावरण परिस्थितियों के प्रभाव व इनसे उत्पन्न रोगों के होने का उल्लेख मिलता है. बीजोपचार व पेड़ पौध में व्याधि के उपचार व पादप धूमन के प्रयोग के सन्दर्भ मिलते हैं. डॉ जगदीश चंद्र भट्ट बताते हैं कि जिस प्रकार हमारे पहाड़ी समाज में अनेक क्रिया कलापों को साल के बारह महीनों की तिथि -मास में बाँट धार्मिक क्रियाओं से जोड़ दिया गया था उसी प्रकार फसल सुरक्षा की अनेक विधियों को भी धर्म व नीति से सम्बंधित कर दिया गया था जिससे आम खेतिहर और कामगार भी अपनी फसल की उपज और उसकी सुरक्षा के प्रति जानकार और जागरूक रहे. ये ऐसी विधियां थीं जो विकास की प्रक्रिया के विविध चरणों में फसल और बीजों को एकीकृत करके सुरक्षित करने की विधियों के रूप में आज भी प्रचलित रहीं है. हरेला सा त्यौहार मनाने के पीछे भी यही भावना रही.पहाड़ की इस लोक परंपरा के प्रति संवेदनशील कृषि वैज्ञानिकों व जागरूक लोगों ने ऐसी अनेक विधियों का अनुभव सिद्ध अवलोकन व तर्क संगत विश्लेषण करते हुए यह खोजबीन भी की कि यह मात्र अन्धविश्वास नहीं है. यह तो विकास क्रम में विकसित किसी वैज्ञानिक या व्यवहारिक विधि का स्वरुप ले चुका है.
असमंजस की स्थितियाँ तो तब दिखाई देतीं हैं जब पहाड़ में बोये जाने वाले अन्न मसाले व सब्जी में उन बीजों और रासायनिक पदार्थों का धड़ल्ले से प्रयोग किया गया जो व्यवसायिक फर्मों व बहु राष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा उत्पादित, प्रचारित व प्रसारित किये गये . कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित किसान मेलों व भेटघाट के अवसरों पर भी इन्हीं के स्टॉल प्रमुखता पाए होते हैं. पहाड़ी बीजों व उपयोगी जैविक पदार्थों की लगातार उपेक्षा ही हुई है और इनमें से कई तो अब विलुप्त ही हो गईं हैं.नये बीज, नई खाद, उर्वरक व कीटनाशकों व उन्हें छिड़कने के यँत्र उपकरणों का यह गठजोड़ देश के आयतों का बड़ा हिस्सा रहा है.इनके साथ ही तकनीकी हस्तान्तरण भी विकसित देशों से होता रहा है जिसने खेती, सब्जी, फल, दूध आदि सब को अपने से लपेटा है.
अब विश्व बैंक के द्वारा स्वीकृत परियोजना- उत्तराखंड क्लाइमेट रिस्पॉन्सिव रेनफेड फार्मिंग प्रोजेक्ट में राज्य सरकार ने यह निर्णय लिया है कि वह खेतिहर क्षेत्र में आधुनिक तकनीक और नवप्रवर्तन युक्त विधियों की प्रस्तावना करेगी जिससे किसान के खेत और उसके दरवाजे तक रोजगार की संभावना के अवसर जुटाए जा सकें.
यह याद दिला देना जरुरी है कि कमविकसित देशों के विविध इलाकों में जलागम विकास व रेन फेड एग्रीकल्चर सहित परंपरागत खेती के स्वरुप को बदलने के ढेरों प्रकाशन विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित किये जाते रहे हैं. व्यवहारिक रूप से यह पहाड़ के किसानों के लिए कितने उपयोगी रहे यह तो संदेहास्पद ही रहा है पर सरकार द्वारा इन्हें लागू करने की प्राथमिकता उस कोष की उपलब्धता से प्रभावी बन जाती है जो विश्व बैंक द्वारा संस्तुत किया जाता है. ऐसी परियोजनाएं सिर्फ खेती, बागवानी ही नहीं पहाड़ के पानी, स्वास्थ्य, सड़क-खड़ंजे-पड़जे सब के लिए नियोजित विकास के दौर से ही बनती रहीं हैं. अध्ययन बताते हैं कि किसी सीमा तक उन्होंने परंपरागत पद्धतियों को आमूल चूल विनिष्ट करने में भी बड़ी भूमिका ही निबाही है.
जीवन निर्वाह कृषि के साथ परंपरागत पेशों की अवनति से ग्राम्य अर्थव्यवस्था तेजी से चौपट हुई, जिसके पीछे हक-हुकूक पर पाबन्दी या वन सम्पदा के दोहन पर लगी रोक ब्रिटिश काल से ही शुरू हुईं और नियोजित विकास की प्रक्रिया में और अधिक घनीभूत होती रहीं. ठेकेदारी और बिचौलिए की भूमिका में आई सरकार ने वनवासियों के कई मूलभूत अधिकार से उन्हें वंचित कर दिया. ऐसे में जीवन निर्वाह हेतु अपने शिल्प, कुशलता, श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण से छिटक अन्य पेशों में गांव से बाहर जा कमाने की प्रक्रिया ने पलायन की समस्या को धीरे-धीरे बढ़ाना शुरू किया.
अपनी मजबूत काठी, काम की ईमानदारी और पढ़ने लिखने की चाह से प्राथमिक क्षेत्र से आगे द्वितीयक क्षेत्र में पहाड़ के युवा जाते रहे, सेना -पुलिस व अर्ध सैनिक बलों के साथ ही अन्य कई तकनीकी व सेवा क्षेत्रों में भी जिससे जनित मनी आर्डर इकॉनमी पहाड़ की आर्थिक गतिविधियों का एक मजबूत आधार रही. फिर यह प्रवृति भी उभरी कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित ग्रामों के परिवार अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा व बेहतरी के लिए शहरों में बसने लगे. यह सिलसिला कुछ ऐसी तीव्र गति से बढ़ा कि पहाड़ की खेती व परंपरागत व्यवसाय को बनाए बचाये रखने के लिए सबल श्रम की कमी हो गई. दूर दराज और सीमांत के गांव तेजी से खाली हुए जिससे वहां की व्यवसायिक संरचना ढहती गई. पहाड़ी में एक कहावत है,’खेतों में बांजा पड़ जाना’ जो अब चरितार्थ हो उठा.
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इसके साथ रही बची कसर जंगली जानवरों और सुअर-बंदर के उजाड़ ने पूरी कर दी . गाँवो के निकट के कस्बे और शहर भी आदमखोर बाघ और तेन्दुए के निरन्तर हमलों से भय ग्रस्त हो पड़े. जानवरों के लिए चारा और ईंधन के लिए सूखी लकड़ी बटोरने की प्रक्रिया भी इससे प्रभावित रही.सरकार ने हर घर चारा योजना की घास डाली.
अब विश्व बैंक की मंशा ये है कि ग्रामवासियों को खेती और पशुपालन से संबंधित ऐसे विविध विकल्प दिए जाएं जिससे जलवायु परिवर्तन से हुई प्रतिकूल दशाओं से पहाड़ एवं सीमांत के इलाके विपरीत रूप से प्रभावित न हो सकें. पहाड़ की खेती वर्षा पर आधारित रही है और वर्षों की इंतज़ारी के बाद भी अभी यहाँ गूल व सिंचाई के अन्य साधन इस तरह सुधर नहीं पाए हैं कि तलाऊं और उपरांउ की भूमि की प्यास बुझ सके. फिर अतिवृष्टि व भूस्खलन की बारम्बारता लगातार बढ़ी है. सड़कों का निर्माण तेजी से हुआ है और मानकों के विपरीत चल रहे ऐसे निर्माण को रोका नहीं जा सका है, जिससे यहां की दुर्बल भौगोलिक संरचना पर पड़ रहे आघात न्यून किये जा सकें.
तेजी से बढ़ रही गर्मी ने कई समस्याएं अलग से पैदा की हैं. कई गावों में पीने के पानी की कमी विकराल हुई है जबकि विश्व बैंक की स्वजल योजना से कई दशक बीत जाने के बाद भी यह उम्मीद थी कि गांवों के अपने जल स्त्रोतों का पानी उनके घर तक टोंटी में बहते मिलेगा. तब से अब तक घर घर पानी की ताजा योजनाओं ने पानी के असंतुलित वितरण की नई पटकथा जरूर रच दी है. गांवों में मिलने वाले परंपरागत जल स्रोत भी इसकी चपेट में आये हैं. हालांकि कई ऐसे व्यक्तिगत और सामुदायिक प्रयासों की सफलता कथाएं भी सामने हैं जिनकी आशा भरी सोच और बेहतर व कारगर तकनीक के अनुकूल समायोजन ने कई इलाकों में न केवल स्थानीय प्रजातियों के घने वन उगा दिए है बल्कि वहां की समीपवर्ती मिट्टी में नमी भी लौट आई है. कई स्थानों में नौले धारे फूट गये हैं, सूखे गाड़ गधेरे फिर पर्वतों से रिसते पानी से पत्थरों को चिकना करने लगे हैं.
जलागम प्रबंध की योजना अब यह है कि अब वह उत्तराखंड में कम पानी चाहने वाली उपजों को प्रोत्साहित करेंगे जिससे खेतिहर अभी तक चली आ रही पद्धति के विकल्प के रूप में होर्टिकल्चर उत्पाद, वैगीज, मुर्गी पालन व बकरी पालन को अपनाएं जिनमें कम पानी की जरुरत होती है और पहाड़ का प्राकृतिक वातावरण जिनके अनुकूल भी रहता है. खेतिहर ऐसा अनुभव न करें कि बदलती हुई जलवायु उनके जीविकानिर्वाह में बाधा बन जाएगी. इसके लिए विश्व बैंक ने एक हजार करोड़ रूपये संस्तुत किये हैं जिससे खेतिहर अपनी परंपरागत खेती व पशुपालन की पद्धति से हट नई पद्धति को अपनाएं.
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1988 में स्वदेशी संस्कृति के बाधित होने, पौधों और जंतुओं की अनेक प्रजातियों के विलुप्त व विनिष्ट होने के खतरों और अत्यंत संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र के असमायोजित होने पर वेलम घोषणा की गई थी जो पहली अंतरराष्ट्रीय लोक जीव विज्ञान सम्मेलन की उपज थी. इसमें साफ तौर पर यह बताया गया था कि स्थानीय लोग ही विश्व की निन्यानबे फीसदी अनुवांशिक संसाधनों के परिचायक हैं और प्रकृति के परिवेश में रह रहे आर्थिक, कृषि सम्बन्धी और स्वास्थ्य संबंधी स्थितियां इन्हीं संसाधनों पर निर्भर हैं. इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि विकास सहायता का समुचित भाग लोक जीव विज्ञान को सूचीबद्ध करने, उसके संरक्षण और प्रबंधन के प्रयासों के लिए निर्धारित किया जाये.
इसके साथ ही स्वदेशी व आंचलिक जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ पहचान में लाये जाएं और ऐसी कोई भी परियोजना जो प्राकृतिक संसाधनों और उसके पर्यावरण को प्रभावित करने वाली परियोजनाओं से जुड़ी है उनमें उनकी सलाह ली जाये. ये लोक जीव वैज्ञानिक अपने अनुसंधान के परिणामों से स्थानीय लोगों को अवगत कराएं और जहां तक संभव हो स्थानीय भाषा में भी अपने परिणाम बाटें-सहेजें. इसका लक्ष्य यह हो कि कि स्थानीय लोगों के बौद्धिक ज्ञान और जैविक संसाधनों के प्रयोग जिसे हाशिये पर रख दिया जाता है, को अमली जामा पहनाया जाए. साथ ही संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन और सतत उपयोग से जुड़ी आम खेतिहर की आदत और दिनचर्या को ध्यान में रखा जाए क्योंकि बिना किसी बाह्य सुविधा के वह नित्य ही इस प्रक्रिया से संलग्न रहता है.
ऐसी अपीलें तो आजादी से पहले भी पहाड़ में सीधे लोगों से की गईं कि, “क्या आप अपने कुर्मांचल प्रदेश से प्रेम करते हैं? क्या आपको मालूम है कि यहां के पानी के स्त्रोत सूखते जा रहे हैं. लकड़ी और घास की लगातार कमी होती जा रही है. जंगल ही हैं जो इसे मरुभूमि बनाने से रोकते हैं? तो फिर आएं इन्हें बचाएं”.यह वह दौर था जब ब्रिटिश नीति के विकल्प के रूप में स्थानीय निवासी जागरूकता का परिचय देते जंगल दिवस मनाते रहे. यह 1 अगस्त 1948 को अल्मोड़ा में मनाये जा रहे जंगल दिवस की अपील थी.
फिर नियोजित विकास का दौर आया जिसमें प्राथमिक क्षेत्र को बनाए बचाये रखने की विविध नीतियों का अवगुंठन था, हरित क्रांति की बड़े धक्के वाली रणनीति थी पर पहाड़ के लायक की बेहतर व कारगर तकनीक का अभाव था जिसकी गूंज अस्सी के दशक में अपने लोक उपयोगी सन्दर्भ, “स्माल इज ब्यूटीफुल” में शूमाखर ने की थी.पहाड़ में लागू होने वाली प्राविधि व पद्धति पर अनेक कृषि वैज्ञानिकों, संस्थाओं ने व्यवहारिक काम किया पर यह पहाड़ का दुर्भाग्य ही रहा कि पहले लखनऊ व फिर देहरादून में विराजमान जन प्रतिनिधियों के साथ सरकारी अमले ने निरन्तर ऐसी योजनाएं थोपी जो वित्त के खपने की कुशलता तो रखतीं थीं पर उस चेतना को प्रसारित करने में अकुशल ही रहीं जिसकी व्यापक श्रृंखलाएं पहाड़ के लोक मानस में विद्यमान थीं. आर्थिक नाकामी के साथ इसने सामाजिक व तकनीकी द्वेधता लगातार बढ़ाने का काम किया. जिन साधनों के बूते पड़ोसी हिमाचल अपने सबल नेतृत्व से प्रबल प्रयास कर राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूत बना गया उसके निरन्तर अभाव ने उत्तराखंड को न्यून उत्पादन,प्रवास, पलायन और बेकारी के कुचक्र में लपेट दिया. अब आजकल जलवायु परिवर्तन के चर्चे हैं तो साथ में जैविक तरीके से किये उत्पादन को प्राथमिकता दिए जाने की भी.
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पहाड़ के परिवेश में स्थानीय संसाधनों के उपयोग को ले कर मुख्यतः तीन प्रकार की विचारधाराएं प्रचलित रहीं हैं जिनके साथ अनेक उपधाराएं भी आ मिलतीं हैं. इनमें सबसे पहले है विकास की आचार-नीति जिसका क्रियान्वयन सरकार द्वारा निर्दिष्ट योजनाओं के द्वारा होता रहा है, भले ही पद्धति ऊपर से नियोजन की हो या नीचे से नियोजन की. आज भले ही विकेंन्द्रिकरण की नीतियों को अपनाया जा रहा हो पर अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से मिले कर्ज, अनुदान व सहायता में उन्हीं के दिशानिर्देशों को मानना अपरिहार्य ही होता है. अब दूसरे स्तर पर संरक्षण या कंजर्वेशन की आचार नीति है तो तीसरे स्तर पर संवर्धन या प्रिजर्वेशन की आचार नीति.
उत्तराखंड की संस्कृति संरक्षण व संवर्धन आचार नीति का सम्मिश्रण है. इसीलिए उसने प्रकृति के विविध स्वरुपों की पूजा की. हर संक्रांति से जुड़े त्यौहार मना अपने आपको पर्यावरण का एक घटक माना न कि पर्यावरण को अपने उपभोग की वस्तु माना. इसके विपरीत संसाधनों की लूट पर आधारित विकास की प्रक्रिया ने पहाड़ के परंपरागत क्रिया कलापों में ऐसा परिवर्तन किया कि लोक संस्कृति का वह पक्ष विलुप्त होते गया जिसके लिए कुमाऊं के कमिश्नर रैमजे ने लिखा था कि, “पहाड़ी किसान की तुलना भारत के सर्वश्रेष्ठ किसानों में की जाती है, क्योंकि ये सदियों से पर्यावरण के साथ समन्वय बनाए हुए हैं”.
एक आम पहाड़ी जैसे अपने कष्ट निवारण और खुशहाली के लिए स्थानीय देवताओं व ईष्ट देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं, उसी प्रकार कृषि को अपना ही अंग मानते हुए बीजों के अंकुरण और फसल की रक्षा हेतु भूमिया या क्षेत्र पाल की पूजा सारे उत्तराखंड में प्रचलित है.
उत्तराखंड में ग्यारह सौ से अधिक देवालय व पवित्र स्थल हैं. पहाड़ की चोटियों पर स्थापित मंदिर यहां की सांस्कृतिक विविधता में प्रकृति प्रेम, सम्मान एवं श्रद्धा के भावों की सूचक हैं. मंदिरों के इस पुरातन स्वरुप का पर्यावरण संरक्षण से सीधा सम्बन्ध है. ब्रिटिश शासन से पहले जंगलों के संरक्षण की भावनात्मक विधि मंदिरों के समीपवर्ती स्थानों में वृक्षारोपण किया जाना था इसीलिए आज भी प्रत्येक गांव के समीप घने व पुराने पेड़ों के झुण्ड से देवस्थल की पहचान हो जाती रही. इनके समीप शिकार करना, साँपों को मारना, मछली मारना वर्जित होता था.चोटियों पर देवस्थान बनाने के पीछे भी वन्य जीव जंतुओं के लिए सुरक्षित इलाके बनाए रखना और दुर्लभ वनस्पतियों को संरक्षित करने की भावना थी. ऊंचाई पर पैदा होने वाले बड़े पेड़-पौंधे, ऊपर से निचले इलाकों में अपने बीजों को बिखेरते तो थे ही बारिश होने पर नीचे के तलाऊं में भी अपनी जड़ें जमाते थे. इसी कारण निचले व गांव के आसपास धार-डान या “रिजेज” को प्राथमिकता मिलती थी.इससे अरण्य संस्कृति फली फूली, अपने परिवेश से मैत्री स्वरुप, विकसित परंपराएं, मान्यताएं, रीति रिवाज व अन्य पद्धतियां विकसित हुईं जो उत्तराखंडी ग्राम्य जीवन चक्र की सहज सरल प्रतिरूप में देखा गया.
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आर्थिक विकास की विविध योजनाओं में प्राकृतिक संसाधनों को व्यय योग्य आय के रूप में देखा गया जबकि इन्हें पूंजी के रूप में माना जाना चाहिए था क्योंकि ये नवीकरणीय नहीं हैं और अंततः ह्रासमान हैं. विकास की क्रियाओं के फलस्वरूप पहाड़ की भंगुर संरचना में अवक्षय व अपरदन के जो सिलसिले चले व प्रदूषण उनमें प्रकृति का प्रतिरोध पहले तो सीमित ही दिखा पर धीरे धीरे यह विनाशक रूप में सामने आ गया जिसे आज जलवायु परिवर्तन के खतरे समझा जा रहा है.
अर्थशास्त्री ई. एफ शूमाखर ने 1973 में अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना, “स्माल इज ब्यूटीफुल” -ए स्टडी ऑफ़ इकोनॉमिक्स एज इफ पीपुल मैटर्ड में स्पष्ट किया कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अभिनव सुधार के लिए किये जाने वाले सरकारी प्रयास और संचालित योजनाएं सतत विकास पर केंद्रित होनी चाहिए क्योंकि अपेक्षित मामूली सुधार जैसे कि तकनीक का स्थानांतरण यहां की गतिविधियों से प्रतिरोध ही करेगा क्योंकि यहाँ श्रम प्रधान क्रियाओं से जीवन यापन की पद्धति विकसित है. यहां की सामाजिक संरचना पर्यावरण की दशाओं के साथ आस्था और विश्वास की ऐसी अनेक परिपाटियों का पालन करती है जिसके पीछे प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और संवर्धन मूल उद्देश्य है. “प्रकृति पुरुषात्मकं जगतः”की दृष्टि है. यह ऐसा दर्शन है जहां “पर्याप्तता” का सामंजस्य एक तरफ मानवीय अवश्यकताओं और उसकी सीमाओं से सम्बंधित है तो दूसरी तरफ क्षेत्र विशेष में आसानी से लागू हो सकने वाली प्रोद्योगिकी के उचित व सम्यक उपयोग से भी जुड़ा है. पहाड़ की ग्रामीण संरचना भी इसी बेहतर और कारगर तकनीक की बाट जोह रही है, हमेशा की तरह सहायता से जुड़े अपनी शर्तों वाले प्रारूप तो यहां विगलन ही दिखाते रहे.
(Jalagam Yojna 2022)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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