उत्तराखंड में पंचाचूली चोटियों का नाम सभी जानने वाले हुए. कच्ची सड़क बन जाने से अधिकतर तो अब इसके पास भी जाने लगे हैं. पंचाचूली ग्लेशियर तक जाने के लिए दारमा घाटी में बसे दांतू गांव से पैदल रास्ता है. पहले दर से यहां को पैदल रास्ता था अब इस घाटी के नाजुक पहाड़ों को काटकर दांतू गांव से आगे तक आधी-अधूरी कच्ची सड़क बन गई है. बार्डर के नाम पर बन रही ये सड़क कब ठीक-ठाक हो पाएगी यह कहना मुश्किल ही है.
(Jagdish Dhakriyal Darma Valley Dharchula)
दारमा, चौंदास समेत व्यास घाटी के लिए दो-एक दशक पहले तक मुख्य सड़क धारचूला से तवाघाट तक जाया करती थी. तवाघाट में मिलने वाली धौलीगंगा और कालीगंगा नदियों के किनारे-किनारे चल कर दारमा और व्यांस घाटियों की पैदल यात्रा शुरू होती थी. अब दारमा के सुदूर ढाकर गाँव तक यह सड़क बन चुकी है. चौंदास, व्यास समेत दारमा घाटी भी अपने आप में अदृभुत है. हर गांव-घाटी की तरह यहां की भी अनगिनत कहानियां हैं. नागलिंग गांव के बड़े भाई करन सिंह नाग्नयाल के पास तो यहां के किस्से-कहानियों का अथाह भंडार भरा पड़ा है. दारमा घाटी में तितियाल गांव के विजय सिंह तितियाल के लिखे किस्सों के बारे में उन्होंने एक बार कहानी सुनाई तो मन एक बार से फिर दारमा की रहस्यमयी घाटियों में चला गया.
किदांग तकलाकोट तिब्बत का निवासी ‘ह्या छूङ सै’ एक बार घूमते हुवे दारमा घाटी के तिदांग में जब पहुंचता है तो वहां की खूबसूरती देख वो तिदांग में अपना बसेरा बनाने का मन बना लेता है. तब तिदांग की मैदानी भूमि दलदली थी. इस पर ‘ह्या छूङ सै’ ने अपनी मंत्र-तंत्र शक्ति द्वारा इस दलदली भूमि का कारण जानने की कोशिश की तो उसे पता चलता है कि वहां एक बड़े से पत्थर के अंदर एक नाग रहता है और उसकी गर्म भरी तासीर से सारे तिदांग की मैदानी भूमि दलदल बन गई है. दारमा में इस तरह की दलदली भूमि को ‘ज्या’ कहा जाता है. इस नाग को खत्म करने के लिए ‘ह्या छूङ सै’ ने गरूड़ का रूप ले लिया और नाग को मार दिया. मरे हुए नाग को अपनी चोंच से पकड़ कर ‘ह्या छूङ सै’ सीपू गांव होते हुवे दौगा खर्सा से गांव-गांव घूमा कर सेला, कुटी, ब्यांस व ज्योलिकांग होते हुए तिब्बत पहुंचा और नाग को वहां दफना देता है. उसके बाद ‘ह्या छूङ सै’ वापस तिदांग पहुंचा तो तिदांग की मैदानी भूमि अब हरा-भरा मैदान बन गई थी. लेकिन जिस-जिस जगह पर मरे हुए नाग रूपी खोबू का मांस व खून गिरा वहां पर दलदली भूमि बन गई.
‘ह्या छूङ सै’ ने तिदांग में अपना बसेरा बना लिया. बताते हैं कि उसी युग में बौन गांव में एक महाबलशाली पुरुष ‘ह्बा लाटो’ रहता था. ह्बा लाटो के बारे में कहा जाने वाला हुआ कि उसने एक समय मल्ला दारमा के समस्त देवी देवताओं को मनुष्य द्वारा पूजा पाठ देना बन्द करवा दिया तो सारे देवता परेशान हो गए. इस पर दांतू गांव के ह्या गबला ने अपने निवास स्थान में एक सभा कर दारमा के सभी देवी देवताओं को निमन्त्रण दिया. आनन-फानन सभी देवतागण ह्या गबला के गांव पहुंच जाते हैं. इधर, तिदांग से ‘ह्या छूङ सै’ भी अपना तिब्बती पहनावा पहन घोड़े में सवार होकर बिन बुलाए ही सभा में आ जाता है.
‘ह्या छूङ सै’ कुछ दूरी में बैठ कर सुस्ताने लगता है. वो घोड़े के त्यागा (काठी) से च्यामा (आग प्रज्जवलित करने का साधन) रगड़ कर आग पैदा करता है और अपने टोपू (हुक्का) में तम्बाकू डालकर आग से जला कर पीने लग जाता है. हुक्का पीने के बाद प्यास लगने पर वो अपने हाथ की मुट्ठी बांध कर धरती में मारता है तो वहां से पानी निकलना शुरू हो जाता है. वो पानी पी कर अपनी प्यास बुझाता है. सभी देवी-देवतागण इस नजारे को देख कर अचम्भे में पड़ जाते हैं कि जरूर ‘ह्या छूङ सै’ में बहुत बड़ी देवी शक्ति है. सभी देवी देवतागण ‘ह्या छूङ सै’ को सभा में जगह खाली करके बैठने को कहते हैं. लेकिन ‘ह्या छूङ सै’ कहता है मैं अपनी जगह पर ठीक हूं आप लोग अपनी सभा शुरू कीजिये. सभा में ह्बा लाटो के खिलाफ प्रस्ताव रखा जाता है कि बौन के ह्बा लाटो ने हम सभी देवी-देवताओं को पूजा-पाठ देना बन्द कर दिया है इस समस्या को हल करने के लिए सभी देवी-देवताओं से पूछ जाता है कि किसी के पास समस्या हल करने का उपाय है तो बताएं. किसी के पास कोई उपाय न था तो सभी देवी-देवतागण अपना सिर नीचे कर लेते हैं. आखिर में ‘ह्या छूङ सै’ को पूछा जाता है तो वो भी अपना सिर हिला देता है. अचानक ही होला दम्फू ने हाथ खड़ा करके हामी भर दी तो दम्फूसै पूछा गया कि तुमने हां किसलिये किया. दम्फूसै बताता है कि ‘ह्या छूङ सै’ मेरा मामा है मैं उन्हें मना लूंगा. देवी-देवतागण अपने-अपने रस्ते हो लेते हैं. उस जमाने में तिब्बत से तिब्बती लोग अपने भेड़-बकरियों के साथ नमक-सुहागा लाकर दारमा और व्यास घाटी में व्यापार के लिये आते थे और आपस में मित्रता रखा करते थे. बौन गांव के ह्बा लाटो की भी तिब्बती व्यापारियों से मित्रता थी.
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भांजा दम्फूसै के कहने पर ‘ह्या छुङ सै’ अपने मंत्र के बल पर तिब्बत के भूत का आह्वान कर उसे हिदायत देता है कि वो अपने कुछ साथियों को लेकर सैकड़ों भेड़-बकरियों के साथ तिदांग गो से आगे रोतो रामा के मैदान में प्रकट हो. उसके ऐसा करते ही वो सही समय व मौसम देख कर आसमान में बर्फ बरसा देता है जिससे लिंकम दांग व गोंती के बीच का दर्रा बन्द हो जाता है. अपने भान्जे होला दम्फूसै को यह कह कर बौन ह्बा लाटो के पास भेजता है कि उसके तिब्बती मित्रगण अपने सैंकड़ों भेड़-बकरियों के साथ रामा व गोतो के मैदान में डेरा लगाकर बैठे हैं और तुम्हें जल्दी मिलने के लिये बुला रहे हैं. होला दम्फू जब ह्बा लाटो को ये संदेश देता है तो ह्बा लाटो जल्दी-जल्दी में अपने मित्रों से मिलने के लिए निकल पड़ता है. जब वो लिंकम दौग पहुंचता है तो उसे गौतो व लिंकम दौग का पहाड़ी रास्ता बर्फ से ढका मिलता है. आगे जाने के लिए बर्फ में डूबने या फिसलने का खतरा था. इस पर ह्बा लाटो अपने जेब से सरसों के दाने निकाल कर आगे को फेंकता है. फेंकते ही सरसों का दाना पत्थर बन जाता है. सरसों से बने उन्हीं पत्थरों में छलांग मारता हुआ वो आगे बढ़ते जाता है. आधा रास्ता तय करने पर सरसों के दाने खत्म होने पर वो पीछे देखता है तो पीछे के पत्थर गायब मिलते हैं. अचानक ऊपर पहाड़ से बर्फ का तूफान आता है और ह्बा लाटो उसमें उड़ते हुए नीचे नदी के किनारे दफन हो जाता है. ह्बा लाटो के खत्म होने के बाद दारमा घाटी के सभी देवी देवताओं को मनुष्य द्वारा पाठ पूजा मिलना शुरू हो गया. जिस जगह पर ह्बा लाटो का शरीर दब गया था वहां पर एक बहुत बड़ा टीला बन गया. बताते हैं कि वो टीला आज भी वहां पर है. बहरहाल! नाग्नयालजी के पास दारमा, व्यास समेत अनगिनत जगहों के किस्से कहानियों का भंडार पड़ा है, जिसे वो लिपीबद्व करने में जुटे पड़े हैं.
इस बीच दारमा घाटी के ढाकर गांव के जगदीश ढकरियाल से मिलना हुआ. उन्हें अभी बागेश्वर में कोतवाली की जिम्मेदारी दी गई है. वर्ष 2014 में तब वो बागेश्वर में सब इंस्पेक्टर के पद पर थे तब वो रीमा में चौकी इंचार्ज रहे. बाद में उनका नैनीताल जिले में ट्रांसफर हो गया था. इस बीच जब वो बागेश्वर आए तो पता चला कि एक बार जिला अस्पताल में भर्ती प्रसूता को रक्त की जरूरत पड़ने पर कामधाम छोड़ वो तुरंत ही रक्तदान कर आए.
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पंचाचूली को अपने आगोश में लेती दारमा घाटी की मनमोहक अदा जैसी सुंदरता की तरह वो भी बहुत खुशदिल हैं. उनसे बातों का सिलसिला चला तो अपनी पुरानी यादों में वो खोते चले गए. ‘पांच क्लाश तक का अलहड़ बचपना नागलिंग गांव के करन सिंह नाग्नियालजी समेत तमाम साथियों के साथ गांव में ही बीता. तब पिताजी ढाकर गांव के मुख्या हुआ करते थे. ग्रामसभा गौ के तोक ढाकर गांव में उनका सबसे बड़ा परिवार हुआ. बाद में छह से आठवीं क्लाश तक की पढ़ाई गदरपुर में जनजाति स्कूल में हुवी और इसके बाद बारहवीं तक की पढ़ाई 1985 में रामपुर हॉस्टल में की. पढ़ाई से दिल उब चुका था और मन वैराग्य की ओर भागने लगा था तो कलकत्ता भाग गया. वहां हिंदुस्तान थिएटर में कुछ दिन काम किया और फिर अजंता सर्कस में रिंग बॉय बन गया. इस बीच घरवालों ने खोजबीन की और गोरखपुर में नौकरी कर रहे बड़े भाई साहब मुझे कलकत्ते से पकड़कर ले आए. उन्ही के पास ही रहकर मैंने आगे की प्राईवेट पढ़ाई करते हुए बीए कर लिया और 1991 में मुझे सुल्तानपुर की क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक शाखा में नौकरी मिल गई. 1991 में ही जब पुलिस की सब इंस्पेक्टर की भर्ती निकली तो मैंने भी उसमें भाग लिया लेकिन तब मुलायम सिंह की सरकार थी और बिना वजह उस भर्ती पर उन्होंने रोक लगा दी. छह साल बाद जब रोक हटी और मैं सब इंस्पेक्टर की पोस्ट में निकल गया तो बैंक की नौकरी छोड़ दी. 1997 में मुझे पिलीभीत जिले में एसओ की पोस्टिंग मिली. उस बीच तात्कालीन मंत्री रामशरण वर्मा ने मेरी ईमानदारी पर सवाल उठाते हुए बे-वजह मेरे साथ हाथापाई कर दी. इस पर उन पर मुकदमा किया जो बाद में 2003 में उनके माफीनामें के बाद खत्म हो गया. बरेली, बंदायू में चौकी इंचार्ज रहने के बाद 2006 व 2007 में उत्तराखंड में कई थानों के साथ ही उत्तरकाशी और गंगोत्री में इंचार्ज की जिम्मेदारी भी बखूबी संभाली. 2009 में जब कालाढूंगी में थाना जला दिया गया तो मुझे वहां का चार्ज मिला. धरनारत जनता से बातें कर उन्हें समझाया तो उन्होंने धरना खत्म कर दिया.’
बहरहाल! जगदीश ढकरियालजी कई पुलिस वालों की तरह ही बड़े ही खुश और मस्त मिजाज शख्स हैं. जिनका मानना है कि नेता हों या रसूखदार लोग इनका काम तो हर कोई कर देने वाला हुआ, लेकिन गरीबों की कोई नही सुनता. और मुझे गरीबों का हमदर्द बनने में ही खुशी मिलती है.
दुआ है कि ढकरियालजी का ये हरफनमौला व्यक्तित्व ताउम्र बना रहे…
(Jagdish Dhakriyal Darma Valley Dharchula)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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