जमाना वीर लोगों को सम्मान देता है. उनके शौर्य, साहस और पराक्रम की गाथाओं को हर पीढ़ी अगली पीढ़ी को सौगात के रूप में भेंट कर जाती हैं. यही कथाएं लोक गायक सुरीले स्वरों के आरोह अवरोह में बांध कम्प और निनाद भरी ध्वनियों के साथ लोक गाथा के रूप में प्रस्तुत करते हैं.
(JAGAR The heritage of Uttarakhand)
‘रक्त मसाणी मसाण काट छे,
खून चाटी ली छै धड़न की चींरों,
मुंडन की माला, बणुण लगाई ,
सब रे मसाण एक घड़ी दल्या.’
अंचल की बोली के साथ गाँव के माहौल में रची बसी इन कथाओं में लोक की संस्कृति, लोक का विश्वास व लोक के उत्सव की गहरी छाप होती है. सुनते सुनते इन्हें बखान करने का तरीका सीख लिया जाता है. परिवेश के हिसाब से थोड़ा कुछ बदलता भी है पर उस परंपरा और शैली से बंधा, रूढ़ियों से घिरा जिसके पीछे सिर्फ मनोरंजन नहीं आस्था और विश्वास के अनगिनत घेरे विद्यमान रहते हैं.
“यो कालीचन नाग, बाटा लागी गयो.
गाला भरी भरी, फुंकार मार छ.
हुंकार कर छ, डंकार मार छ.
बैतीय जूड़न, बाटण बैगोछ.
धरती ही लुच्चे, आकाश कमुच्छे.
कटार नचुन्चे, भूतिया चमकूँचे.”
पहाड़ में तीन प्रकार के जागर की रीत रही. पहला कहा गया ‘हुड़किया’जागर, दूसरा ‘डमरिया’ और तीसरा ‘मुरयो’ या मृदंग जागर. प्रचलित ‘डमरिया’ जागर में जगरिये या घंडयाला थाली, हुड़का, डमरू के साथ व ढोल जागर में ढोल -नगाड़े के साथ जागर लगाते हैं. डंगरिये या पश्वा में कम्प होता है. वह अग्नि का स्पर्श भी करता है व अंगारों में नाचता भी है.
(JAGAR The heritage of Uttarakhand)
हर अंचल में जागर के रूप में राम और कृष्ण अवतार व महाभारत की गाथाएं हैं तो गौरा -महेश्वर, कृष्ण रुक्मिणी और उषा अनिरुद्ध की कथा भी. पांडव गाथाएं भी गायीं जातीं हैं तो शिव अवतार का वर्णन भी.पांडव नृत्यों में खुले मैदान में ढोल नगाड़े बजते हैं. ढेर सारे लोग इसमें गोल घेरे में नाचते हैं. वाद्य यंत्रों के साथ पांडवों की गाथा गई जाती है.
“घूमदा घूमदा तब गैन पांचाल देश,
सूणा -सूणा पंडों पांचाल देश मां.”
रासो नृत्य भी ढोल नगाड़ों के साथ होता है. मंडाण लगता है. गोल घेरे में नाच होता है.
पौराणिक या धार्मिक गाथा वह हैं जिनमें भगवान राम, श्री कृष्ण के साथ ही स्थानीय देव व पांडवों के वृतांत शामिल हैं.देव लोक गाथा सुर, लय, गति, ताल की परंपरागत थात पर निरंकार, देवी, भैरों, नागराजा की पूजा में ढोल दमाऊ हुड़का डमरू थाली की ताल पर ईष्ट का आह्वान करातीं हैं. देवताओं को जाग्रत करने के गीत मंत्र के साथ डंगरिये या पश्वा, कम्प के साथ नाचते हैं . इस आयोजन के पीछे प्रायः किसी की समस्या, परिवार का दोष, ऊपरी बाधा होती है जिसका समाधान देवता द्वारा किया जाता है. मनोकामना पूर्ण होने पर इच्छित भेंट चढ़ती है.
अंचल विशेष में गंगनाथ, सैम, ग्वल्ल या बाला गोरिया, नौलिंग, हरू, ऐड़ी, भोलानाथ व चौमू देव, छुरमल का शौर्य गान है तो नंदा देवी और गड़ देवी का बखान भी. नौलिंग, झाकर सैम, गुरु गोरख नाथ, भैरों, नार सिंह, निरंकार, नागरजा के पराक्रम व सिद्धि से देवत्व प्राप्त करने की काथ भी सुनी जाती रहीं हैं.
“गुरु महात्मा तेरा, बार बस का बीजा छन,
अठारा बस का सीजा, बेत भरी लकड़ी,
बार बस बालणी, अठार की तापणी.”
लोक काथ में भुम्याल, भनरिया, बालोचन, बिंण भाट, बाजुरी चैत, हंसू हिंदवाण, हंस कुंवारी, मोतिया सौंन, सरु गंगा ललि के साथ प्यूली, परियों की गाथा बड़े चाव से सुनी कही जातीं हैं. दूसरी तरफ भड़ों या पैकों की वीर गाथाओं में भर्तहरि, भीमा कठैत, भारती चंद, बाईस भाई बफौल, अजुआ बफौल, अजित बौर, सम्याव हीत, स्यूरा -प्यूरा पैक, सिदुआ -बिदुआ, सकराम कार्की, धामद्यो -विरमद्यो, पुरुख पंत, रतूमहर -भगूमहर, भीमा कठैत, गोपीचन, गोरिधना, अजीत बौर, जिया राणी, बिरमू सौन के साथ नागवंशी गाथाएं भी हैं तो कत्यूर गाथा, घड़ देवी गाथा भी.
रक्त मसाणी, मसाण काट छे,
खून चाटी ली छे, धड़न की चींरो,
मुंडन की माला, बणुण लगाई,
सब से मसाण, एक घड़ी दल्या.
पौराणिक, धार्मिक के साथ भड़ों या पैकों की कथाओं, गाथाओं को प्रस्तुत करने, इन्हें गाने और इनके प्रभाव को जगाने वाले वाद्य यंत्रों के प्रयोग की विशेष शैली और परंपरा रही है.
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धार्मिक गाथाएं गाँव या अंचल के देवालयों में मिलजुल कर पूरे विधि विधान से आयोजित की जातीं हैं. प्रायः हर लोक देवता की धूनी भी गाँव या ग्राम समूह में होती है. लोक देवता का आह्वान करता है जगरिया. जगरिया गाँव का ढोली होता जो जागर कथा का दास है.मंदिर में इसका एक निश्चित स्थान है. जगरिया गाता है अपने पारम्परिक वाद्य यंत्रों के साथ. जिनमें ढोल दमाऊ, कांसे की थाली, हुड़का मुख्य है.
गीत के बोल गाथा के नायक की प्रशस्ति करते उसका आह्वान करते हैं. ये स्वर, ये बोल व निनाद बाजे की लय व ताल पर उस व्यक्ति के आंग में कम्प भर देता है जिसे डंगरिया कहा जाता है. कम्प के साथ ही नृत्य मुद्राएं धीरे धीरे उभरने लगतीं हैं. हर देवता या वीर के कम्प और नृत्य की मुद्रा अलग अलग होतीं हैं. गोल्ल देव जहां केवल एक पाँव उठा एक पैर से जागता है तो सैम व हरू बैठे बैठे ही अपने आसन में जाग्रत होते हैं. गणमेश्वर तीव्र चीत्कार करता धड़ से ऊपरी भाग में कम्प करता है.
जगरिये द्वारा किये देव आह्वान के बोलों से डंगरिये के शरीर में इष्ट देवता जागता है. भोलानाथ, गंगनाथ, चौमू,छुरमल,कलबिष्ट की गाथा का बखान करते हुड़का व कांसे की थाली बजती है. हर देवता के डंगरिये व जगरिये अलग अलग होते हैं. इन्हें खानपान, आहार -विहार की अनेक मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है.
जागर में एक समय पर एक इच्छित देव, वीर पुरुष जाग्रत होता है तो बैसी में जगरिया सभी देवताओं को जागृत करता है. धूनी में सभी देवता साथ साथ नचाये जाते हैं. हुड़के की जगह ढोल बजते हैं. जगरिये के बदले परंपरागत ढोली या दास देवताओं को जगाता है. एक निश्चित क्रम में हर देवता का आव्हान किया जाता है. उनके वाहक डंगरिये के शरीर में कम्प होता है, औतार आता है. औषाण देना, द्याप्ता की विरुदावली का बखान और लगातार जब तक गाथा का बखान पूरा ना हो और औतार ना आए तब तक जगरिया अपने गायन वादन से डंगरिये को वीर की गाथा का निश्चित सुर, लय, ताल के साथ गायन हुड़का थाली ढोल दमाऊ का वादन करते जगाता है.
गोठ-परिवार के किसी रोग-शोक, विपदा-आशंका को जिस द्याप्ता का प्रकोप समझा जाए तो उसकी पूजा का संकल्प ले उचेण रखते हैं. सब इंतज़ाम कर फिर उसका जागर लगाया जाता है. जागर स्थल को गोबर मिट्टी से लीप-पोत, गोंत गंगाजल छिड़क रात्रि होते धूनी जलाई जाती है. तब पूरे विधि विधान से ईष्ट का आव्हान होता है. जागर के समापन होते लोग बाग पूछ करते हैं. अक्षत वार देवता जवाब में समाधान करता, उपचार बताता और आशीर्वाद देता है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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