पिछले महीने की 12 तारीख को राजस्थान के नागौर ज़िले में कूड़े के ढेर में एक नवजात बच्ची के मिलने का समाचार छपा था. जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रही इस बच्ची की हालत से द्रवित होकर विनोद कापड़ी और उनकी पत्नी साक्षी ने तय किया कि वे इस बच्ची को गोद ले लेंगे. उस दिन के बाद से कल तक जो हुआ वह न केवल हमारे सिस्टम के फेल हो चुकने का पुख्ता सबूत है, वह ये भी रेखांकित करता है कि लाख दावों के बावजूद सरकारें और उनकी बनाई तमाम व्यवस्थाएं संवेदनहीनता के चरम पर पहुँच चुकी हैं जहां एक बच्ची एक अज्ञात सरकारी फ़ाइल से अधिक कुछ नहीं होती. (Insensitive State versus Human Heart)
समूचे घटनाक्रम से पीड़ित और दुखी विनोद और उनकी पत्नी साक्षी ने यह खुला ख़त लिखा है. दोनों की हिम्मत को हमारा सलाम. (Insensitive State versus Human Heart)
माननीय प्रधानमंत्री जी और देश के सभी सम्माननीय मुख्यमंत्री जी,
ये खुला खत हम आपको बहुत ही भारी मन से व्यथित होकर लिख रहे हैं. इसे किसी पत्रकार की नहीं बल्कि एक माता-पिता की चिट्ठी समझकर पढ़िएगा. और आपको इसलिए लिख रहे हैं कि आप देश के प्रधानमंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री हैं और इस देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी आपकी भी है.
क्या आप जानते हैं कि आज से 25 दिन पहले इस भारत देश में एक बच्ची ने जन्म लिया था जिसे नाम दिया गया अज्ञात शिशु (अननोन बेबी) और ठीक 25 दिन बाद उस अज्ञात ने दम तोड़ दिया.
वो अज्ञात क्यों थी?
उसने 25 दिन में ही दम क्यों तोड़ दिया? वो और क्यों नहीं जी पाई? क्या उसे हमारे सिस्टम, हमारे कानून ने मारा? या उसकी मौत तय थी? आज उस फूल- सी बच्ची के अंतिम संस्कार से जब हम जयपुर से दिल्ली की तरफ लौट रहे हैं और आठ लेन के नए भारत की सड़क पर हमारी गाड़ी दौड़ रही है तो ये सारे सवाल मन में आ रहे हैं. हम सोच रहे हैं कि सुपर पावर बनने की दिशा में बढ़ता देश एक छोटी-सी बच्ची को क्यों नहीं बचा पाया? आपको शायद इस घटना की पूरी जानकारी नहीं होगी इसलिए संक्षेप में इसे हम यहां लिख रहे हैं.
14 जून को हमने ट्विटर पर एक वीडियो देखा जिसमें एक नवजात बच्ची कूड़े के ढेर में पड़ी थी और बुरी तरह कराह रही थी. यह वीडियो किसी भी इंसान को द्रवित कर सकता था, हमें भी किया. हमने तुरंत ट्विटर पर लिखा कि क्या कोई ये बता सकता है कि यह वीडियो और बच्ची कहां की है? हम इसे गोद लेना चाहते हैं. ट्विटर पर सक्रिय लोगों की भल मनसाहत का नतीजा था कि 14 जून, 2019 को दो घंटे के अंदर ही पता चल गया कि बच्ची 12 जून को राजस्थान के नागौर ज़िले में कूड़े के ढेर पर पड़ी मिली थी. कुछ गांव वालों ने उसे अस्पताल पहुंचाया और फिलहाल नागौर के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है. हमने तुरंत अस्पताल के शिशु विभाग के प्रमुख डॉ आरके सुतार से बात की, उन्हें बताया कि हम इस बच्ची को गोद लेना चाहते है.
डॉक्टर से हमारा यह भी कहना था कि हम इसकी देख-रेख और इसका उचित इलाज करना चाहते हैं. उस वक्त फोन करने का एकमात्र मकसद ये था कि यह सिस्टम, हमारे सरकारी कानून और उससे बंधे डॉक्टर कहीं इस गलतफहमी में न रहें कि इस बच्ची का कोई नहीं है और आगे भी कोई नहीं होगा. बच्ची की जो और जैसी भी हालत थी, हम उसे गोद लेने के अपने फैसले पर कायम रहे और अगले ही दिन 15 जून, 2019 को नोएडा से नागौर के लिए रवाना हुए. हमारा मक़सद एक बार फिर सिस्टम और डॉक्टरों को ये बताना था कि बच्ची लावारिस नहीं है और उसे लावारिस न समझा जाए. चाहे कानूनी तौर पर वो अभी हमारी बेटी न बनी हो.
15 जून की रात हम पहली बार बच्ची से मिले, उसका स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक था. उसे सिर्फ पीलिया की शिकायत थी जो आम तौर पर सभी नवजात बच्चों को होती है. तब तक बच्ची के बारे में सोशल मीडिया के ज़रिए देश और विदेश में बहुत चर्चा होने लगी थी और ट्विटर पर सक्रिय कुछ लोगों ने बच्ची को ‘पीहू’ कहकर पुकारना शुरू कर दिया था. अगले दिन 16 जून को हम एक बार फिर बच्ची से मिलने पहुंचे. शिशु विभाग के अध्यक्ष डॉ आरके सुतार भी हमारे साथ थे. उन्होंने हमें आश्वासन दिया कि बच्ची की देखभाल अच्छे से हो रही है. हमारे पास उनकी बात पर भरोसा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. इतना ही नहीं, हमने देश के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन से भी डॉ सुतार से बात करवाई. मक़सद फिर वही संदेश था कि बच्ची अनाथ नहीं है.
16 जून को ही हम नागौर के कलेक्टर दिनेश चंद्र यादव से मिले और बच्ची को गोद लेने की इच्छा जताई. कलेक्टर ने हमें बताया कि कानून के मुताबिक किसी भी बच्चे को तुरंत गोद देने का प्रावधान नहीं है और हमें ‘कारा’ (सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी) में अप्लाई करना होगा. हमने पूछा कि जब तक बच्ची को परिवार नहीं मिल जाता क्या तब तक हम उसकी देख-रेख कर सकते हैं? तो उनका जवाब था कि कानून में इसका भी कोई प्रावधान नही है. बच्ची को सरकार के संरक्षण में ही रहना होगा. हमने उसी वक्त सोचा कि ये सरकार कौन है? इस सरकार का कौन-सा वो चेहरा है या इस सरकार का कौन-सा वो व्यक्ति है? और उस व्यक्ति का क्या नाम है जो इस बच्ची की देखभाल करेगा और सुबह-शाम खबर लेगा. इसका जवाब न हमारे पास था न कलेक्टर के पास. यही वो सवाल है जिसका जवाब ढूंढ़ने के लिए ये खत हम आपको लिख रहे हैं. क्योंकि आज जब बच्ची नहीं रही तो पता चल रहा है कि ‘सरकार के संरक्षण में बच्ची है.’ इसका मतलब एक नहीं कई सारे विभाग हैं. बाल विभाग, सामाजिक कल्याण विभाग, पुलिस, अस्पताल और ‘कारा’. इतने सारे विभाग मिलकर सरकार बनती है और इतने सारे विभागों के बावजूद एक भी इंसानी चेहरा नहीं, जो बच्ची का ख़्याल रख सके. इस पर हम बाद में आएंगे.
तो नागौर में बच्ची से मिलने के एक दिन बाद 18 जून को हम ‘कारा’ में रजिस्टर हो गए. हमें बताया गया कि नियम बड़े सख़्त हैं. प्रक्रिया बड़ी लंबी है. बच्ची आपको मिलेगी भी या नहीं, ये भी कहना बहुत मुश्किल है. लेकिन इन सब बातों की परवाह किए बिना हम दिन रात नागौर में पीहू की ख़बर लेते रहे. डॉ आरके सुतार इस बात के गवाह हैं कि उनके पास दिन में रोज़ तीन फ़ोन आते थे कि नहीं. मक़सद एक बार यही बताना था कि बच्ची अनाथ नहीं है. हालांकि हम जानते थे कि क़ानूनी तौर पर हमारा बच्ची पर कोई अधिकार नहीं है और डॉक्टर जिस दिन चाहे हमें मना कर सकते थे.
इसी दौरान 23 जून के आसपास हमें पता चला कि बच्ची को जब भी दूध पिलाओ, उसका पेट फूल जाता है और वो पूरा दूध उल्टी की शक्ल में बाहर निकाल देती है. हमने डॉक्टर सुतार से पूछा कि ख़तरे की कोई बात तो नहीं? उन्होंने कहा, ‘बिलकुल नहीं.’ हम भरोसा करने के अलावा और क्या कर सकते थे!
फिर तक़रीबन 28 जून को हमें पता चला कि उल्टी तो हो ही रही है , बच्ची का हीमोग्लोबिन का स्तर भी नीचे आ गया है और अब खून चढ़ाना पड़ेगा. डॉक्टर सुतार से फिर पूछा कि कोई ख़तरा तो नहीं? उनका जवाब था कि खून चढ़ाने से हीमोग्लोबिन का स्तर ठीक हो जाएगा. हमने फिर भरोसा किया. इसके बाद 30 जून को हमें फिर पता चला कि आज भी खून चढ़ाया जाएगा. हमें समझ में नहीं आया कि 18 दिन की बच्ची के साथ ये क्यों हो रहा है? अपने एक-दो जानने वाले डॉक्टरों से बात की तो उन्होंने संदेह जताया कि बच्ची की बीमारी या तो ठीक से पकड़ में नहीं आई है या इलाज सही दिशा में नहीं चल रहा. यही बात हमने डॉक्टर सुतार को बताई. और इसके ठीक एक दिन बाद दो जुलाई को डॉ सुतार का फ़ोन आया कि बच्ची को हम जोधपुर के उम्मेद हॉस्पिटल में रेफर कर रहे हैं. हमने पूछा कि ऐसा अचानक क्या हुआ तो उन्होंने बस इतना बताया कि इन्फ़ेक्शन है. हमने फिर भरोसा किया. हमारे पास यही विकल्प भी था.
तीन जुलाई तक आते-आते हमने जोधपुर उम्मेद हॉस्पिटल के डॉक्टर अनुराग सिंह से बात की तो उन्होंने जानकारी दी कि बच्ची की हालत वैसी नहीं है, जैसी उन्हें बताई गई थी. बच्ची की आंतों में बहुत इन्फ़ेक्शन है और उसके मुंह से दूध नहीं, बल्कि उसका अपना ‘स्टूल’ बाहर निकल रहा है. उन्होंने यह भी बताया कि जोधपुर में बच्ची का इलाज संभव नहीं है. इसे तुरंत जयपुर के जेके लोन हॉस्पिटल भेजा जाना चाहिए. लेकिन हमारे पास बच्ची को जयपुर तक भेजने के लिए जैसी एम्बुलेंस होनी चाहिए, वैसी एम्बुलेंस नहीं है. हमने तुरंत अपने संपर्कों के ज़रिए राजस्थान के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुचाई. ट्वीट किया और मदद की अपील की.
अगले दिन चार जुलाई को राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने हमें ट्वीट करके सूचित किया कि बच्ची को जेके लोन हॉस्पिटल में शिफ़्ट कर दिया गया है और उसे यहां के डॉ अशोक गुप्ता की निगरानी में बेहतरीन इलाज दिया जाएगा. क़ानूनी तौर पर हम उस बच्ची के कोई नहीं थे लेकिन जब सार्वजनिक तौर पर हमें एक राज्य के उपमुख्यमंत्री की तरफ से सूचना दी गई तो हमें लगा कि अब सिस्टम काम करेगा. एक दिन बाद छह जुलाई को हम जयपुर पहुंचे. बच्ची से अस्पताल में मिले. एक बार फिर सबको यह बताने के लिये कि ये बच्ची लावारिस नहीं है. हालांकि तब तक सिस्टम को ये बात पता चल चुकी थी लेकिन बच्ची के नाम के आगे फिर लिख दिया गया था – ‘अननोल बेबी’. कम से कम ‘कारा’ की तरफ से दिया नाम गंगा ही लिख देते. हमने पूछा तो जवाब मिला कि हमारे रिकॉर्ड्स में ये ‘अननोन’ ही है. हम भी कुछ नहीं कर सकते थे. सोचा कि इस वक्त बेहतर इलाज हो जाए, इतना काफ़ी है.
जयपुर में जेके लोन हॉस्पिटल के अधीक्षक डॉक्टर अशोक गुप्ता ने बताया कि कि आंतों में इन्फ़ेक्शन इस क़दर बढ़ गया है कि सारी आंतें उलझ गई हैं. इन्फेक्शन रोकने के लिए दी जा रहीं एंटीबायोटिक्स काम नहीं कर रहे हैं. अब उपाय बस एक ही है कि जल्द से जल्द सर्जरी की जाए. रविवार (सात जुलाई ) सुबह 9.30 बजे का वक्त तय हुआ. डॉक्टरों की पूरी टीम सर्जरी के लिए 8.30 बजे ही पहुंच गई थी. सर्जरी से पहले के सारे ज़रूरी टेस्ट किए जाने लगे. एनीस्थीसिया की तैयारी शुरू हुई लेकिन तक़रीबन सुबह नौ बजे एक बुरी ख़बर आई कि बच्ची के प्लेटलेट काउंट गिरकर 8000 तक पहुंच गए हैं और कम से कम आज तो सर्जरी नहीं हो सकती. वो सर्जरी जिसका सात जुलाई को होना बेहद ज़रूरी था. डॉक्टरों की टीम दुखी थी लेकिन साथ ही उन्हें विश्वास भी था कि ये बच्ची लड़ाका है… अभी और लड़ेगी और खुद को तैयार कर लेगी ऑपरेशन के लिए… पीहू की बीमारी बेहद गंभीर थी. ऑपरेशन ही एकमात्र सहारा था. वो लगातार वेंटिलेटर के सपोर्ट पर थी. आधे फ़ीट जितने शरीर को चारों तरफ से तारों ने जकड़ा हुआ था. सोचिए, इतनी छोटी-सी बच्ची को क्या क्या देखना पड़ रहा था!
और फिर आठ जुलाई को सुबह 11.30 बजे हमें ख़बर मिली कि बच्ची नहीं रही. हमें किसी ने बताया हो, ऐसा बिलकुल नहीं था. हम ही बार-बार फ़ोन करके पूछ रहे थे. हमारे पूछने पर डॉ विष्णु ने बताया कि शायद वो बच्ची कल शाम ही एक्सपायर कर गई है. हम सन्न थे. कल शाम तक तो हम जयपुर में ही थे. फिर हमें क्यों नहीं पता चला? हमने पूछा – आप सच कह रहे हैं! उनका जवाब था कि रुकिए फिर से कन्फर्म करता हूं. हमने आनन-फ़ानन में अस्पताल के अधीक्षक डॉ अशोक गुप्ता को फ़ोन लगाया कि क्या उस बच्ची की मृत्यु हो गई है? तो डॉ गुप्ता का जवाब था कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है और वे पता करके बताएंगे. तक़रीबन 25 मिनट बाद दोपहर 12 बजे हमें बताया गया कि हां .. बच्ची नहीं रही. सुबह चार बजे उसने आख़िरी सांस ली थी. आठ जुलाई को सुबह चार बजे वो बच्ची यह दुनिया छोड़कर चली गई.
ख़बर मिलते ही हम जयपुर के लिए रवाना हो गए. रास्ते भर यही कोशिश करते रहे कि उसे जन्म के बाद तो सम्मान नहीं मिला. कम से कम मृत्यु के बाद तो सम्मान मिले. उसे जन्म के बाद तो माता-पिता नहीं मिले. कम से कम मृत्यु के बाद तो उसके ऊपर मां-बाप का साया हो. तमाम नियम क़ानून से हटकर. शाम छह बजे हम जयपुर पहुंचकर सीधे शवग्रह गए. वहां यह देखकर व्यथित हो गए कि 25 दिन की एक फूल-सी बच्ची 10-12 और क्षत-विक्षत शवों के बीच रखी गई थी. लग रहा था कि वो गहरी नींद में है और परियों के सपने देख रही है.
हमने 16 जून के बाद एक बार फिर अपनी बच्ची को गोद में उठाया, उसके बाल सहलाए, उसके गाल सहलाए. उसे बहुत सारा प्यार किया तो गोद में रखे-रखे पहली बार एहसास हुआ कि सबसे छोटा ताबूत सबसे भारी होता है… दुनिया का सबसे भारी बोझ, माता-पिता की गोद में बच्ची का शव और वो भी 25 दिन की बच्ची. उसे फिर से अंदर ले जाया गया और पोस्टमार्टम हाउस का दरवाजा बंद हो गया. हमने डॉक्टरों से पूछा कि क्या ये बच्ची रात भर इन्हीं शवों के बीच रहेगी? तो जवाब था कि हां, जब तक सारी औपचारिकताएं पूरी नहीं हो जातीं, तब तक. औपचारिकता ये कि पहले जिस जगह यानी नागौर से ये बच्ची लावारिस मिली, पहले वहां की पुलिस जयपुर आएगी. पंचनामा बनाएगी. मेडिकल बोर्ड बैठेगा. बच्ची के पोस्टमार्टम का फैसला करेगा. तब जाकर पोस्टमार्टम होगा और फिर अंतिम संस्कार.
अगले दिन नौ जुलाई को हमारी बस एक ही मंशा थी कि जिस बच्ची को जन्म के बाद मां-बाप नहीं मिले, उसे कम से कम मृत्यु के बाद तो माता-पिता मिल जाएं. हम दो दिन से जयपुर में थे. सरकार, पुलिस, बाल विभाग का दिल पसीजा और पोस्टमार्टम के बाद सरकार के नुमांइदों की मौजूदगी में हमने माता-पिता के तौर अपनी बच्ची को विदा किया. काश, जीवन रहते उसे मां-बाप मिल जाते तो वो हमारे बीच होती.
तो ये थी इस बच्ची की 25 दिन की इस दुनिया में यात्रा. लेकिन इस छोटी सी बच्ची ने इस देश के गोद लेने के क़ानून और हमारे सिस्टम पर कुछ बेहद बड़े सवाल किए हैं :
– ये सरकार कौन है और उसका इंसानी चेहरा कौन है जो ऐसे बच्चों का ख़्याल रख सके? अगर कोई सरकार है और उसके पास इंसानी चेहरे हैं तो 25 दिन तक इनमें से एक भी चेहरा हमारी बच्ची के पास एक बार भी क़्यों नहीं आया?
– इन पूरे 25 दिनों के दौरान सरकार यानी पुलिस, प्रशासन, बाल शिशु गृह, ‘कारा’, अस्पताल कहां थे? हम नोएडा से दिन में तीन तीन बार नागौर फ़ोन करके बच्ची की ख़बर ले सकते थे तो उस बच्ची की देखभाल के लिए जिम्मेदार संस्थाएं क्या कर रही थीं?
– बच्ची को नागौर से जोधपुर और जोधपुर से जयपुर भेजने का फ़ैसला इतनी देर से क्यों लिया गया? जो ख़तरे की बात जोधपुर के डॉ अनुराग को तीन जुलाई को कुछ ही घंटों में पता चल गई थी वो बात नागौर को 20 दिन तक क्यों नहीं पता चली? और समझ में नहीं आ रहा था तो पहले ही रेफर क्यों नहीं कर दिया गया?
– नागौर के डॉ सुतार और वहां के डॉक्टरों के काम पर कौन नज़र रख रहा था और अगर रख रहा था तो 13 जून से दो जुलाई तक नागौर में बच्ची की बिगड़ती हालत पर सब चुप क्यों रहे? और ऐसा तब हुआ जब देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने फ़ोन करके बच्ची का ख़्याल रखने की हिदायत दे दी थी. जब स्वास्थ्य मंत्री की हिदायत के बावजूद बच्ची का खयाल ठीक से नहीं रखा गया तो सोचिए देश के बाक़ी अनाथ बच्चों का क्या हाल होता होगा?
– एक लावारिस बच्ची को जब पहले ही दिन उसकी देखभाल करने के लिए माता-पिता मिलने जा रहे थे तो उन्हें क्यों क़ानून की बेड़ियों में जकड़ा गया? पहले दिन ही ऐसे माता-पिता को ये अधिकार (भले ही वो अस्थायी हों) क्यों नहीं दे दिया गया कि वो बच्ची के भले के लिए फ़ैसले करें और जो भी अच्छा बुरा होगा, उसके ज़िम्मेदार वो होंगे? जैसा कि आम मां-बाप अपने बच्चों के लिए करते हैं.
– ये गोद लेने के क़ानून का ही असर है कि बच्ची का ढाई हफ़्ते तक नागौर के छोटे से अस्पताल में इलाज चलता रहा, उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई. गोद लेने के इस क़ानून में पहले दिन से ही कोई इंसान क्यों नहीं जुड़ जाता जो बच्चे के बारे में फ़ैसले ले सके? एक नवजात बच्चे को भी सरकार सिर्फ एक फ़ाइल क्यों मान लेती है कि जैसे फ़ाइल आगे बढ़ती रहती है, वैसे ही बच्चे भी बढ़ जाएंगे? वो भी इतने छोटे और गंभीर बीमार बच्चे!
– ‘कारा’ के सीईओ ने तो बाक़ायदा ट्वीट करके लिखा था कि बच्ची का नाम गंगा रख दिया गया है तो वो क्यों मृत्यु तक ‘अननोन बेबी’ का टैग लिए क्यों घूमती रही?
– इतना ही नहीं, अगर बच्ची के संरक्षण की ज़िम्मेदारी सरकार की थी और खुद राज्य के उपमुख्यमंत्री इसमें दिलचस्पी ले रहे थे तो जेके लोन अस्पताल के अधीक्षक तक को बच्ची की मौत की खबर हमसे क्यों मिली? कहां थी वो सरकार ओर कहां है वो सरकार जिसे इस बच्ची को संरक्षण देना था?
और एक सवाल तो सबके लिए… पूरे देश के लिए… जिस बच्ची को दो पत्रकार गोद लेना चाहते हों, जिस बच्ची पर पूरी दुनिया की नज़र थी, जिस बच्ची के लिए देश के स्वास्थ्य मंत्री ने फ़ोन किया हो, जिस बच्ची पर राज्य के उपमुख्यमंत्री की नजर भी हो, अगर ऐसी बच्ची को हम ऐसा संभव होने के बाद भी नहीं बचा पाए तो क्या हमें समझ लेना चाहिए कि इस देश का सिस्टम बुरी तरह सड़ और गल गया है?
आदरणीय प्रधानमंत्री जी और तमाम मुख्यमंत्री जी,
हमारे हिसाब से हमारी बच्ची की स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुयी है. उसे हमारे घिसे-पिटे संवेदनहीन क़ानून और सड़ चुके सिस्टम ने मारा है. हमारी मांग है कि हमारी बच्ची की मृत्यु की न्यायिक जांच होनी चाहिए. आप सब नीति निर्धारक हैं. देश और लोगों के लिए अच्छा ही सोचेंगे. हमारा बस एक ही सुझाव है. और वो ये कि अगर किसी बच्चे को पहले दिन ही तुरंत अस्थायी अभिभावक या संरक्षक मिल रहे हैं तो बिना देर किए क़ानूनी लिखा-पढ़ी करके बच्चे/बच्ची को तुरंत ऐसे अभिभावकों को सौंप देना चाहिए. भले ही ये व्यवस्था अस्थायी क्यों ना हो. हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारी पीहू के बारे में फ़ैसले करने का अधिकार पहले दिन से हमारे पास होता तो हम उसे बचा लेते.
दूसरी गुहार, कृपया जिस बच्चे को कुछ भी समझ नहीं है उसे अज्ञात या ‘अननोन बेबी’ लिखना बंद कीजिए. कोई बच्चा कैसे ‘अननोन’ हो सकता है. ‘अननोन’ तो उसके मां-बाप हैं. बच्चा तो सामने है. 25 दिनों की मासूम पीहू आप लोगों के लिए बहुत सारे सवाल छोड़ गई है. आपका काम है उन सवालों के जवाब ढूंढ़ना और हल निकालना वर्ना देश की तमाम पीहू यूं ही असमय मृत्यु की शिकार होती रहेंगी.
आपकी पहल और क़ानून में सुधार के इंतज़ार में,
साक्षी जोशी, विनोद कापड़ी
[विनोद कापड़ी ने काफल ट्री के लिए अपनी आत्मकथा के कुछ अंश लिखे थे. उन्हें इस लिंक पर देखा जा सकता है: ]
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