मल्ला दारमा के भोटान्तिकों का व्यापार पथ जो अजपथ और अश्व पथ से विकसित हुआ वह दारमा दर्रे (18510फ़ीट) से हो कर जाता था. वहीं व्यांस और चौंदास पट्टियों के भोटान्तिक लंगप्याँलेख (18150 फ़ीट) और लिपुलेख (16780 फ़ीट) दर्रों से हो कर हूणदेश यानि तिब्बत से व्यापार करने जाते थे. कई बार नेपाल स्थित तिंकर घाटी के रास्ते भी जाया जाता.
(Indo-Tibetan Trade Route)
भारत तिब्बत व्यापार में लिपुलेख वाला पथ अपेक्षाकृत सरल था. परंपरागत रूप से कैलास मानसरोवर की पवित्र यात्रा को इसी मार्ग पर पर चलते संपन्न किया जाता था क्योंकि इसमें तीखी चढाई और ढाल अन्य रास्तों की अपेक्षा कम थे. साथ ही लंगप्यांलेख से ज्ञानिमा मंडी को व लिपुलेख से तकलाकोट को उतार- चढ़ाव भरे पथ विकसित हुए. यदि यह दर्रे न होते तो आवागमन संभव न होता. उबड़ खाबड़ रस्ते तीखा ढाल रखते और इनके शिखरों की ओर बढ़ते हुए हवा में ऑक्सीजन की कमी से बहुत परेशानी होती. सांस खींचना मुश्किल होता, दम घुटता, कपाल में पीड़ा और उल्टी होने लगती.
इन सारी परेशानियों के रहते भी भोटान्तिकों का यह दृढ़ विश्वास व आस्था उन्हें मजबूत बनाये रखती कि यह हिम प्रदेश नीलकंठ महादेव की तपोभूमि है इसलिए यहाँ के शिखरों में विष का प्रभाव रहेगा ही और रक्षा करने वाला भी वही महादेव है. इन पथों को पार करने के भय व आपदा से जुड़ी काथ-किस्से बड़े बूढ़ों की जबान पर रहते जिनमें मुख्य यह कि इन दर्रों में ऐसे भयावह पक्षी रहते आए जो शिखर पार करने में बेहोश पड़े राहगीरों की आँखें निकाल कर खा जाते है. इससे भयभीत हो अतिरिक्त सावधानी व हर पल जोखिम सहने का साहस पनपता. हर मुश्किल झेल व्यापार करने के लिए मनः स्थिति बनी रहती.
दर्रे पार कर तिब्बत की सरहद में पहुंचने के बाद भी संकट कम न होते. उस रुक्ष प्रदेश में भोजन पकाने के लिए ईंधन न मिलता. जैसे-तैसे डामा के कांटे सुलगा कच्चा पक्का खाना बन पाता. वो तो इस प्रदेश की आबोहवा ऐसी कि सब कुछ खाया पिया पच जाता. एक तो आहार का चुनाव तो साथ ही भोटान्तिकों का शनैः-शनैः उपजा जड़ीबूटी ज्ञान काम आता. दूसरा संकट वहाँ के दुर्दांत खम्पा दस्यु व लुटेरों का होता जो अचानक प्रकट हो सब माल-असबाब लूट लेते.
खम्पाओं का सामना करने के लिए अस्त्र-शस्त्र की नहीं बल्कि बुद्धि चातुर्य की जरुरत होती. भोटान्तिक व्यापारियों ने हूण देश के निवासियों को अपनी मीठी जुबान और सरल व्यवहार से मित्र बनाया. इसी की बदौलत सदियों तक भारत तिब्बत व्यापार चलते रहा और अपने उत्कर्ष पर पहुंचा.
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महाहिमालय का यह पूरा इलाका गगनचुम्बी पर्वत श्रृंखलाओं को छूता दुर्गम रास्तों व तीखे ढालों की चढ़ाई और उतार के साथ अचानक ही बदलने वाले मौसम से और जोखिम भरा रहता. हिमनदों के तले रौखड़ों को पार करना होता. अधिकांश जगह वनस्पति विहीन होती. शंकु आकार की कंटीली झाड़ियां पार करनी पड़तीं. घाटी वाले इलाकों में नदियों में प्रबल वेग होता. कठोर चट्टानों से रिस्ते पानी के उद्दाम वेग से झरने बहते जिनसे होते ही आगे बढ़ने के पथ भी बने होते. पहले से बने अज पथ अक्सर गायब भी दिखते. सूझ-बूझ कर जहां पैर पड़ते वही नया रस्ता बनता. भांति-भांति की घासों फूलों से भरे बुग्यालों में वनस्पतियों की सुवास से मादक प्रभाव भी उपजता तो इनका विष भी लगता.
प्रकृति के ऐसे साहचर्य के साथ अनुकूलन बनाये रखने को बहुत सोच समझ व तैयारी के साथ व्यापारिक आवागमन व माल की ढुलाई होती. यह साल में सामान्यतः दो बार होती. पहली जून में और दूसरी सितम्बर में. पहली व्यापारिक गतिविधि की शुरुवात अप्रैल माह के आते थल मेले के आयोजन से शुरू हो जाती. मेला निबटता तो तिब्बत को ले जाने वाले जिस माल-वस्तुओं की लदाई-ढुलाई शुरू हो जाती. छोटी-छोटी पोटलियों में सामान बंधता. चलने से पहले ही पशुओं को दो तीन हफ्ते बुग्यालों में छोड़ दिया जाता जिससे वह जड़ी-बूटी वाली घास व वनस्पति खा मजबूत हो जाएं. भेड़, बकरियां, खच्चर, घोड़े व जीबु माल ढोने के लिए साथी होते. रखवाली को भोटिया कुत्ते जो दिन में चुपचाप चलते पर रात को हल्की आहट पे गला दबोचने को तैयार.
साल में व्यापार की यात्रा शुरू होने से पहले पश्चिमी तिब्बत का जिलाधिकारी या ‘चपराँग जोड़योन’ भोट प्रदेश में अपने दूत या एजेंट भेजता जिन्हें ‘सरजिये’ कहा जाता. इन सर्जियों का व्यापारी खूब आदर सत्कार करते. सर्जियों की रिपोर्ट के आधार पर ही व्यापारिक मार्ग, घाट-दर्रों का खुलना व आवत-जावत संभव हो पाती. सरजिये इन इलाकों का भ्रमण करते और हर इलाके के मुखियाओं पधानों से मिल वहां के हालात की रपट तैयार करते. इस सूचना संग्रह में वहां के रोग-व्याधि, छूत की बीमारी की जानकारी लेते और राजविग्रह न होने से सम्बंधित प्रतिज्ञा पत्र भरवाते. मुचलका या गमग्या लेते. सरजिये जब पूरी तरह स्थितियां सामान्य पाते और कोई भी संदेह का कारण न रहता तभी व्यापारियों को तिब्बत के यात्रा पथों में आने-जाने की स्वीकृति मिलती.
तब हर सूचना, बात-खबर इस कठिन प्रदेश के पथों पर पैदल चल पहुंचे खबरी द्वारा ही मिल पाती थी. घाटों का खुलना और मंडियों में क्रय-विक्रय अक्सर उचित सन्देश के समय पर न मिल पाने से बाधित भी हो जाता था. हर व्यापारी मंडियों में जल्दी पहुँचने की कोशिश में रहता. ऐसे में अपनी बारी जल्दी लगाने के लिए व्यापारियों को अक्सर तिब्बत की मंडी के अधिकारियों को अनुग्रहित भी करना पड़ता था.
सामान्यतः हरेले का त्यौहार मना, जुलाई के दूसरे हफ्ते से व्यापारी अपने माल असबाब के साथ तिब्बत की मंडियों की ओर निकल पड़ते. जुलाई के आखिरी हफ्ते तक उन्हें मंडियों में पहुँच जाना होता. अपनी सुरक्षा के हर उपाय किए जाते. सामान्यतः पचास- साठ आदमियों के झुण्ड में हथियारबंद हो कर यात्रा की जाती. भोट प्रदेश से तिब्बत की मंडियां बहुत दूर होतीं. बिक्री का सामान अपने जानवरों पर लाद सैकड़ों भेड़, बकरी, चंवर गाय, घोड़ों और खच्चरों का समूह या ढाकर के साथ व्यापारियों का जत्था प्रस्थान करता. जानवरों के गले में धातु की बनी घंटिया टुनटुन करतीं कभी धीमी रुनझुन के साथ जब चढाई होती और तीव्र निनाद में जब उतार होता. साथ ही रंग बिरंगी मालाएं भी उनको पहनाई जातीं. ये जानवर बड़े प्यार सार संभाल से पले बढ़े होते. इन्हीं के भरोसे हूण प्रदेश से ले कर मध्य एशिया तक माल असबाब के साथ पंहुचा जाता और वापस हो अपने देश के मैदानों की मंडियों, नगर व कभी कभार दक्षिण की सीमाओं और बंदरगाह तटों तक जाया जाता.
तिब्बत की भांति कुमाऊं में भी व्यापार की मंडियां थीं जिनमें साल में व्यापारिक मेला धूमधाम से लगता जहां सिर्फ माल की बिक्री ही न होती बल्कि सीमावर्ती इलाकों की सांस्कृतिक पहचान भी जुटती. चीन के आक्रमण से पहले के ये मेले भांति-भांति के परंपरागत माल की बिक्री सुलभ कराते. जौलजीबी, बागेश्वर और थल के मेलों में भोटान्तिकों का एकाधिकार होता.
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जौलजीबी के मेले में तिब्बत से भेड़ों का बिना कता ऊन, ऊनी-वस्त्र, सुहागा, तिब्बती मूंगा व अन्य रत्न के साथ अन्य कई स्थानीय उत्पाद आयात होते. वहीं नेपाल से अनाज, खाद्य सामग्री व मोटा अनाज, शोरा, पहाड़ी घी और घोड़े आते. अस्कोट से चटाइयां, काष्ठ उपकरण, काठ के बर्तन इत्यादि बिकने के लिए पहुँचते. सांस्कृतिक नगरी बागेश्वर के मेले में दूर-दूर के दुकानदार भोटान्तिक व्यापारियों से तिब्बत की दुर्लभ व विशिष्ट स्थानीय वस्तुएं व माल असबाब खरीदने को लालायित रहते. तगड़ा मोल भाव होता. माल भी ऐसा की और कहीं न मिल पाए. मुख्यतः ख़ालिस सोने और चांदी का भी व्यापार होता जिनसे स्थानीय स्वर्णकार गहने बनाते.
बागेश्वर के मेले के बाद भोटान्तिक व्यापारी तराई भाबर और मैदान की मंडियों की ओर पड़ाव डालते. यहाँ से वह थल के मेले और तिब्बत की व्यापारिक मंडियों के लिए सामान परखते, जुटाते-खरीदते. हर साल थल में विषुवत संक्रांति या मेष संक्रांति को मेले की असल रौनक होती. उससे पहले ही फड़-दुकान सजा लिए जाते जो मेले के समापन के कुछ दिन बाद तक बचे माल को समेटने अगली यात्रा के लिए बांध बूंध लिए जाते. छोटी-छोटी मजबूत थैलियों में सामान एकबटाते जो भारवाही पशुओं पर लदता. थल मेले में भोटान्तिक व्यापारियों को तिब्बत की बची हुई सामग्रियों को बेचने का अंतिम व तिब्बत के लिए खरीदी सामग्री की खरीद-फरोख्त का पहला अवसर मिलता.
भोटान्तिक व्यापारियों की महत्वपूर्ण व विशिष्ट वस्तु सुहागा होती जिसे तिब्बत की खदानों से जुटाया जाता. तिब्बत के ‘ढोक ज्यालुंग’ स्थान से पूर्व की ओर ‘माजयन’ तथा दक्षिण की ओर ‘सेलीफुंग’ में सुहागे की अनेक खदानें थीं जिनसे कच्चा सुहागा जुटाया जाता व अपने गाँव में लौटने पर गर्म पानी व अन्य तरकीबों से इसका शोधन किया जाता.
दूसरी महत्वपूर्ण व महंगी वस्तु स्वर्ण चूर्ण होती. ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में स्वर्ण चूर्ण का भारत में आयात तथा यहाँ से विदेशों को निर्यात चमड़े के थैलों में भर कर किया जाता. तिब्बत से यह सुवर्ण चूर्ण ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी के पहले से ही देश में आयात होता था पर उसके खुदान व शोधन की विधि लम्बे समय तक रहस्यमय रही. सन 1867 में सरकार ने मिलम निवासी नैन सिंह को तिब्बत में सोने की खदानों का पता लगाने भेजा. तिब्बत में मुख्य सोने की खान ‘ढोक ज्यालुंग’ में थी. यह समुद्रतल से सत्रह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित थी. व्यापारी के वेश में नैन सिंह वहां पहुंचे. उन्होंने पाया कि ‘सरण’ या तिब्बती खनिक पशम युक्त खालों का ‘छुवा’ या लबादा पहन कर गहरे गड्डों में स्वर्ण घुन को खोद रहे थे. गहरे गड्ढों से निकल इस स्वर्ण धूलि के ढेर को लगाते जा रहे थे जहां उनके ख़तरनाक कुत्ते यानि तिब्बतियन मिस्ट रखवाली को तैनात रहते.
ढोक ज्यालुंग से उत्तर और ईशान कोण की ओर बारह से पंद्रह मील की दूरी पर इस खदान के अलावा ‘ठोक सरलुंग’, ‘ठोक मुन्नाक’, ‘ठोक न्यानमो’, ‘ठोक रकङ’, ‘ठोक रङ्गयोक’, और ‘ठोक झुलुङ्ग ‘जैसी छः अन्य सोने की खानें थीं. इन खदानों से स्वर्ण चूर्ण का नमूना ले कर नैन सिंह वापस भारत लौटे. नमूनों के लिए उन्होंने जो सोना ख़रीदा उसका विवरण उन्होंने अपनी डायरी में लिखा – आज 27 अगस्त 1867 के फंजार यानी सुबह सबेरे, मैं पुदोक ज्योला जो ठोक ज्यालुंग का हाकिम है, से मिला और नमूने के वास्ते मैंने उससे खानिका यानी खान से निकला हुआ तीन सरस्यों सोना मोल ले लिया. यह सरस्यों तोल मैं एक अठन्नी और आठ रत्ती भर की होती है.पहली बार नैन सिंह ने ही तिब्बती स्वर्ण चूर्ण के रहस्य का पता लगाया जो ‘किरमोलिया सोने’ के नाम से जाना गया. इसे शोधित कर भारत द्वारा फिर विदेशों को निर्यात किया जाता था.
व्यापार की अन्य दुर्लभ वस्तुओं और जिंसों में रंग बिरंगे मूल्यवान रत्न शामिल थे. दुर्गम मार्गों में इन महंगे पर कम भार की मदों को ढोना अधिक सरल था. तिब्बती मूंगे की बहुत अधिक मांग बनी रहती थी.
भोटान्तिक व्यापारी तिब्बत से भारत को लेंचा नमक लाते जिसके वहां विपुल भंडार होते. मुख्यतः तिब्बत की पट्टी तिंचे की छाक-छाका, डंजम छाका, पुरांग छाका जैसी खदानों में नमक का बहुल उत्पादन होता था. बीसवीं सदी की शुरुवात तक हिमालयी इलाकों के साथ उत्तर प्रदेश, पंजाब और सम्पूर्ण कामरूप प्रदेश तक भोटान्तिक व्यापारियों के द्वारा तिब्बत का लेंचा नमक उपलब्ध कराया जाता था. इसी प्रकार हिमालय, तिब्बत तथा मध्य एशिया के ऊनी वस्त्र का आयात-निर्यात इनके द्वारा किया जाता था.
हूंण देश में बुने ऊनी स्वेटर बनियान टोपी लम्बे मोज़े मफलर के साथ ऊनी पंखी, पशम, लोई व थुलमे व चुटके की खूब मांग थी. इनके साथ ही बनात और मलमल के कपड़े की भारी आवत होती. तिब्बत में कपड़े की बहुल मांग को देखते भारत सरकार ने कण्ट्रोल के समय कपड़े का कोटा तय कर दिया जिसे तिब्बती कोटा कहा जाता था.
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तंत्र-मंत्र लिखने के लिए भोजपत्र, लाख के अलावा कंघे, हुक्के की नलियां, टोकरी बनाने के लिए रिंगाल, वनों से प्राप्त होने वाली च्यों या गुच्छी भी खास होतीं. भारत से तिब्बत को गुड़, चीनी,मिश्री, गट्टा, चाय पत्ती,अनाज मैदा,गोला, किशमिश, साबुन, माचीस, लोहे, पीतल व कांसे के बर्तन, मिट्टी का तेल, जूते, तम्बाकू और बीड़ी सिगरेट भेजा जाता.
कुमाऊं गढ़वाल और नेपाल में भाँग बहुतायत से पैदा होती. इसके रेशों से अनेक प्रकार के गरम कपड़े और पहनने वाले चोगे या भंगेला के साथ रेशा रस्सी की बिक्री भी होती. इसकी मांग सदैव बनी रहती क्योंकि भाँग का रेशा मजबूत, मुलायम, हल्का, टिकाऊ के साथ गरम भी होता. जैन मुनि व साधु इसके रेशे के चोगे को इन्हीं गुणों के कारण बहुत पसंद करते. भाँग के रेशों से बने थैले भी पसंद किए जाते. जानवरों की खालों का भी आयात-निर्यात होता. मुख्य रूप से सफ़ेद बाघ की खाल या ‘ई’ तथा ‘हाजे’ जो लोमड़ी के आकार वाले शेर की खाल कही जाती, बहुत ऊँची कीमत में बेची जाती. चंवर गाय की पूँछ पूजा कार्यों व भूत-प्रेत बाधा निवारण में काम आती तो इसकी खाल भी खूब बिकती.
ऐसे ही कई रोगों की औषधि व शक्तिवर्धक रसायन के रूप में कस्तूरी की खूब मांग होती. कस्तूरी का मुख्य व्यापारिक केंद्र तकलाकोट की मंडी, जौलजीबी, थल, बागेश्वर, अमृतसर, रामपुर, कलकत्ता, बुसेर, कांगड़ा और कश्मीर थे. तिब्बती व भोटिया कुत्तों की भी खूब चौल थी तो जम्बू, गंद्रेणी, बालछड़, सालम मिश्री व सालमपंजा भी खूब बिकता. नेपाल से लाया शिलाजीत भी शोधित कर बेचा जाता.
तिब्बत से भोटान्तिकों द्वारा किए जा रहे व्यापार की मूल्य निर्धारण पद्धति भी निराली थी. इसमें वस्तु विनिमय या जिंसों की अदल बदल होती. अतः इसका मूल्य नकद रुपयों में आंकना कठिन होता. तिब्बत की किसी वस्तु के बदले जो अनाज या वस्तु का बाजार भाव से जो मूल्य होता वही मूल्य तिब्बत की वस्तुओं का माना जाता.
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(जारी)
पिछली कड़ी : भोटान्तिक अर्थव्यवस्था और हूण देश से व्यापार
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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