बीतती बारिश के दिनों में हम सामने पड़े खाली प्लॉट में कुत्तों को गदर मचाते देख रहे थे. प्लॉट में दुनिया भर की अवाट-बवाट चीजें पड़ी हैं. कुछ घास-पात उगा है और सुबह-शाम किनारे-किनारे गाड़ियां खड़ी रहती हैं. कोई कुत्ता कई दिन से एक ही जगह ताबड़तोड़ खुदाई किए जा रहा था. लगता है, किसी चूहे का पीछा करते हुए यह बार-बार इस झंझट में पड़ जाता है. बेवकूफ कहीं का. ऐसे खोदने से चूहा हाथ आने वाला है! एक दिन दिखा कि वहां मार मिट्टी का ढेर लग गया है. कौन कुत्ता है जो ऐसी बेवकूफी कर रहा है? कहीं कोडा तो नहीं?
कोडा एक कुतिया है, जिसका नर नाम मेरे बेटे का रखा हुआ है. कोडा की इन्सानों से कभी रसाई नहीं बनी और जो अब पूरी तरह जंगली या गैर-पालतू कुत्ता बन चुका है. इसके ठीक विपरीत कोडा का स्वभाव कुछ ज्यादा ही पालतू किस्म का है और आपसे रोटी का एक टुकड़ा हासिल करने के लिए वह किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार हो सकता/सकती है. किसी शिकारी कुत्ते की तरह चूहे की खोज में जमीन खोदने जैसे उद्यम की बात कोडा के संबंध में तो सोची भी नहीं जा सकती.
इसके करीब एक-डेढ़ महीने बाद सुबह-सुबह हम लोग बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे. सूरज निकलना शुरू ही हुआ था कि सामने वाले प्लॉट में एक कुत्ता ऐसे प्रकट हुआ जैसे अचानक जमीन फाड़कर निकल आया हो. हमने गौर किया, यह कोडा की मां थी. इंदू ने कहा, ‘लगता है इसे ठंड कुछ ज्यादा ही लगती है. पता नहीं कैसे इस कड़ी समतल जमीन में अपने लिए इसने बाकायदा एक मांद ही खोद डाली.’
इस सीधी-सादी, अपने काम से काम रखने वाली कुतिया के लिए पिछले साल जिंदगी कुछ ज्यादा ही बेरहम हो गई थी. पीछे की तरफ एक प्लॉट में नींव के लिए खुदाई की जा चुकी थी लेकिन प्लॉट मालिक और जिस बिल्डर को वह प्लॉट बेचा गया था, उनके बीच बात कहीं खटक गई और बिल्डर नींव वैसी ही खुदी की खुदी छोड़कर चलता बना. उसी नींव में कुतिया ने चार बच्चे दे रखे थे. एक दिन सप्लाई के पानी का पाइप फट गया और नींव पूरी पानी से भर गई. कुतिया ने अपने बच्चों को बचाने की बड़ी कोशिश की, लेकिन सिर्फ एक को बचा पाई.
उस प्लॉट के पास ही मेरे दोस्त खालिद का मकान है. उसकी मम्मी ने कुतिया को अपने तीनों मरे हुए बच्चों को गड्ढा खोदकर दफनाते हुए देखा. बचे हुए एक बच्चे को उसने एक बेसमेंट में रखकर पालने की कोशिश की. बिल्कुल चांदी जैसे रंग का झब्बू-झब्बू पिल्ला बहुत दिन तक बच्चों का दुलाला बना रहा. कुतिया उसके लिए इतनी चिंतित रहती थी कि भूख-प्यास लगने पर जरा भी देर के लिए उससे दूर हटी तो तुरंत दौड़कर उसके पास आ जाती थी.
एक बार उस बच्चे के लिए एक पड़ोसी से हम लोगों का झगड़ा हो गया. वे पालने के लिए बच्चे को अपने घर में उठा ले गए थे तो कुतिया ने रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लिया था. वही बच्चा उन सज्जन के घर से छुड़ाए जाने के तीसरे-चौथे दिन ही बाहर से मोहल्ले में आई एक टैक्सी के नीचे आ गया. उस समय हम लोगों ने कोडा का अपनी मां के साथ दुख का साझा देखा था. वह दिन है और आज का दिन है. बाहर से चाहे कोई भी गाड़ी कॉलोनी में आए, छोटे-बड़े सारे कुत्ते भूंकते हुए उसे इतना दौड़ाते हैं, जैसे अपना बस चलते उसे फाड़ ही खाएंगे.
यह एहसास हमें काफी दिन बाद हुआ कि कुतिया ने यह मांद इस बार होने वाले अपने बच्चों की पक्की सुरक्षा के लिए बनाई है. कुतिया का पेट निकलने लगा तो हम इंतजार करने लगे कि वह कब बच्चे देती है. एक दिन उसका पेट पतला दिखने लगा लेकिन बच्चों का कहीं पता नहीं था. हम लोग रोज सुबह जाकर उसकी मांद में झांकते कि शायद कहीं उसके बच्चे दिख जाएं. लेकिन मांद इतनी गहरी और अंधेरी थी कि कहीं कुछ भी दिखाई नहीं देता था.
करीब पंद्रह दिन बाद मुझे एक सुबह मांद में कुछ हिलता हुआ सा दिखा. मैंने सीटी बजाई, कुतुर-कूत करने की कोशिश की, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं. फिर करीब दस दिन तक मांद में कुछ हिलता हुआ भी नहीं दिखा. अलबत्ता हर सुबह कुतिया उसी मांद से निकलती जरूर नजर आती थी.
एक दिन कुतिया सामने वाले बकाइन के पेड़ के नीचे आ गई और लगातार ऊपर देखने लगी, जैसे खाना मांग रही हो. हम लोग दूध में रोटी चूरकर उसे देने गए तो उसने चुपचाप उसे खा लिया और अपनी मांद के मुंह के पास जाकर बैठ गई. वह जितनी दुबली और अजलस्त हो रही थी, उससे यह तो साफ था कि उसने बच्चे दिए हैं लेकिन बच्चे हैं कहां?
इसकी अगली ही सुबह मैंने एक, दो, तीन, चार…कुल सात बच्चे कुतिया के थनों से चिपके हुए देखे. चिल्लाकर मैंने इंदू और बेटू को बुलाया- देखो इतने सारे बच्चे. तीन बिल्कुल काले और चार लोहिया रंग के- बिल्कुल अपनी मां जैसे. आजकल हर सुबह वे अपनी मां को दूर-दूर तक दौड़ाते हैं और अपनी बड़ी बहन कोडा को भी अपनी मां समझकर इतना तंग करते हैं कि बीच-बीच में वह बड़े हिंसक ढंग से गुर्राती है. लेकिन कोडा और उसकी तथा इन सभी बच्चों की मां इतनी ठंडी, कुहासे भरी रातों में बिला नागा बिल्कुल खुले में मांद के पास सोते हैं, जबकि बच्चे सुरक्षित मांद में मजे कर रहे होते हैं.
बीच-बीच में जब पश्चिम विक्षोभ के असर में बूंदाबांदी हो जाती है तो हम चिंतित रहते हैं कि कोडा और उसकी मां का आज क्या हाल हो रहा होगा. इसका पता लगाने की कभी कोशिश हमने नहीं की, लेकिन अंदाजा यही है कि वे बारिश से बचने के लिए बगल में खड़ी उन्हीं कारों के नीचे चले जाते होंगे, जो अक्सर उनके बच्चों की हत्यारी बन जाया करती हैं.
कुत्तों से मेरा साथ गांव में बहुत रहा और बीच-बीच में भी कोई न कोई लगाव रखने वाला कुत्ता मिल ही जाता रहा लेकिन अपनी 43 साल की उम्र में मैंने कहीं भी किसी कुतिया को बच्चे देने के लिए समतल जमीन खोदकर मांद बनाते नहीं देखा. कुत्तों में सामूहिकता का गुण भी किसी को दौड़ाने, खदेड़ने और मोहल्लेदारी निभाने में भले ही खूब नजर आता हो, लेकिन बच्चों की रखवाली करने में पारिवारिक सामूहिकता भी मैं पहली बार ही देख रहा हूं. क्या शहरी संकटों के असर में कुत्तों के भीतर हो रहे बुनियादी बदलावों का यह कोई नया पहलू है?
चन्द्र भूषण
चन्द्र भूषण नवभारत टाइम्स में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार हैं. विज्ञान एवं खेलों पर शानदार लिखते हैं. समसामायिक मुद्दों पर उनकी चिंता उनके लेखों में झलकती है. चन्द्र भूषण की कविताओ के दो संग्रह प्रकाशित हैं.
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