अल्मोड़ा में इन दिनों अल्मोड़ा फेस्टिवल चल रहा है. यह सभी जानते हैं कि हमारी सरकारें लम्बे समय से इस चिंता में घुली जा रही हैं कि पहाड़ी आदमी अपनी संस्कृति भूल गया है. इस चिंता के शमन के लिए समय-समय पर अलग-अलग जगहों पर संस्कृति महोत्सव कराये जाने की परम्परा चल निकली है. तो साहेबान, अल्मोड़ा में फेस्टिवल चल रहा है. आप इस महायोजन की वेबसाइट (https://www.almorafestival.com/) खोल कर देखेंगे तो पाएंगे कि अल्मोड़ा नगर में संस्कृति की बाढ़ आई हुई है, वह संस्कृति के अतिरेक से बजबजा रहा है – हॉट एयर बैलून स्थापित हो चुका है, पता नहीं कहाँ-कहाँ से लाकर बेहद महंगी रोशनियों और स्पीकरों की व्यवस्था की गयी है, कहीं साइकिल रैली निकल रही है, कहीं बर्ड वॉचिंग हो रही है, कोई हैरिटेज वॉक पर निकला हुआ है, कोई पेड़ों पर रस्सी बांधकर पुल बनाना सीख रहा है, कहीं अल्पना प्रतियोगिता हो रही है तो कहीं दुनिया के सबसे बड़े संगीतकार-कवि-नर्तक अल्मोड़े के कलापारखियों के समक्ष अपनी प्रतिभा दिखाने को आतुर हैं.
इस वेबसाइट से पता चलता है कि इन्डियन रिवाइवल ग्रुप नामक एक संस्था आज अल्मोड़ा-वासियों को रामलीला दिखाने वाली है. अल्मोड़ा की रामलीला, विशेषतः हुक्का क्लब की रामलीला का इतना गौरवशाली इतिहास रहा है कि उसे बरसों से दुनिया की सबसे शानदार चुनिन्दा रामलीलाओं में शुमार किया जाता रहा है. बजाय हुक्का क्लब जैसी संस्था को सलीके का स्टेज मुहैय्या कराने के दिल्ली की एक आधुनिक पेशेवर संस्था को आपको बताने के वास्ते न्यौता गया है कि ऐसे की जाती है रामलीला.
कविता का शऊर सिखाने को मुनव्वर राना और अशोक चक्रधर सरीखे दिग्गज कवि आ रहे हैं.
अपनी भड़ास निकालनी हो तो इस लिस्ट को बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है लेकिन उस से कोई फायदा नहीं होगा. इस तरह के सरकारी आयोजन ऐसे ही होते हैं. अकूत पैसा खर्च होता है. ‘बाहर’ के और ‘लोकल’ आर्टिस्ट के बीच की आर्थिक खाई कुछ और चौड़ी होती है – एक कलाकार को एक घंटे के कार्यक्रम के लिए लाखों में भुगतान होता है जबकि महीनों से रिहर्सल कर रहे एक स्थानीय नाट्य ग्रुप से कहा जाता है कि अपना स्पोंसर खुद ढूंढ सको तो ढूंढ लो भैया, हमारे पास तो तुम्हारी टीम को चाय-समोसा खिलाने के भी पैसे नहीं हैं. एक कलाकार जहाज-टैक्सी से अल्मोड़ा पहुंचता है, महंगे होटल में उसका सूइट बुक है तो दशकों से हुड़का पीट रहे कलाकार गांधी चौक पर प्रशासन का पुतला फूंक रहे होते हैं कि उन्हें भी कुछ काम दिया जाए
मुझे याद पड़ता है एक बार नैनीताल में हुए ऐसे ही एक महोत्सव में भारत माता के गौरव, पहलवानश्रेष्ठ और भुच्चशिरोमणि खली को आमंत्रित किया गया था. वह भी सांस्कृतिक महायोजन था और खली के प्रदर्शनों से जनता सुसंस्कृत होती जाती थी – कहीं वे एक घूँट में पेप्सी की बोतल खाली कर दिखाते थे तो कहीं टीवी पत्रकार स्केल से उनकी हथेली का नाप ले रहे होते थे.
यह त्वरित टिप्पणी आख़िरी नहीं है. मुझे अगले कुछ दिनों में यह जानना है कि इस अल्मोड़ा फेस्टिवल में पैसे का क्या खेल है और किस लेवल का है. तब तक आप इस फेस्टिवल का वह वीडियो देखिये जिसमें एक गायिका पहाड़ियों को एंट्री और घंटी का सांस्कृतिक सम्बन्ध बतला रही हैं.
-अशोक पाण्डे
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…