अगर आपको याद होगा तो 2013 की आपदा के 4 साल गुजरने के बाद, ‘केदारनाथ यात्रा’ के पिछले साल के सीजन में एक बात बेहद खास रही कि इसकी शुरुआत और समापन, दोनों मौकों पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ का दौरा किया.
कपाट बंद होने से ठीक एक दिन पहले 20 अक्टूबर 2017 को अपने केदारनाथ दौरे के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ”मैं कपाट खुलने के समय पर यहां इसलिए आया था क्योंकि इसके पीछे मेरे मन में एक इरादा था कि मैं देश को एक संदेश देना चाहता था कि हम उस हादसे की छाया से अब बाहर निकल पाएं. हम घर से निकलने से पहले सोचते हैं कि पता नहीं वहां व्यवस्थाएं बनी हैं कि नहीं बनी हैं. जा पाएंगे कि नहीं जा पाएंगे. इसलिए यहां यात्रियों की संख्या कम हो गई थी.”
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में यह भी कहा कि उन्होंने एक ही सीजन में दो बार केदारनाथ की यात्रा इसलिए की ताकि वह देश भर में यह संदेश दे सकें कि केदारनाथ की यात्रा पूरी तरह सुचारु हो गई है. उन्होंने आगे कहा, ”लेकिन मुझे खुशी है कि इस बार करीब साढ़े चार लाख से भी अधिक यात्री, इतने कम समय में, बाबा के चरणों में आए. फिर से एकबार यहां, यात्रा में पुनर्प्राण संचित हो गया है. इसलिए अगले साल यह आंकड़ा 10 लाख से कम नहीं होगा, आप लिख कर रख लीजिए.”
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी भव्य यात्रा के दौरान, जिन 10 लाख यात्रियों को अगले साल, इस शांत हिमालयी इलाके में आने का निमंत्रण दिया है, उनके लिए सुविधाओं के इंतजाम का भी उन्होंने खयाल रखा है. प्रधानमंत्री ने इस मौके पर 700 करोड़ रुपये की 5 निर्माण परियोजनाओं का भी शिलान्यास किया ताकि केदारनाथ को ‘दिव्य’ के साथ ही ‘भव्य’ भी बनाया जा सके.
बिखरे मलबे पर ‘भव्य’ सपना
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने जिस ‘भव्य केदारनाथ’ की पेशकश अपनी यात्रा में की इसकी शुरुआत दरअसल 2013 की आपदा के तुरंत बाद ही, कई विशेषज्ञ ऐजेंसियों की सलाहों को नज़रअंदाज़ करते हुए कांग्रेस सरकार कर चुकी थी. जिसके तहत अब तक कई सौ करोड़ रुपये खर्च हो चुका है.
केदारनाथ के इलाक़े में दशकों से शोध कार्य कर रहे ‘वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जीयोलॉजी’ ने दिसंबर 2013 में, इस आपदा पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. क्योंकि संस्थान के पास पिछले कई सालों से जुटाए गए विभिन्न वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद थे तो इस रिपोर्ट में आपदा की वजहों की वैज्ञानिक पड़ताल भी थी. साथ ही कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए गए थे. इन सुझावों में पहला सुझाव था-
”क्योंकि केदारनाथ कस्बा चौराबारी ग्लेशियर द्वारा बनाए गए ढीले और छिछले मलबे से बने मैदान में बसा है और हाल ही में जून माह की त्रासदीपूर्ण घटना ने इस पूरे इलाके को बुरी तरह झकझोर दिया है. ऐसे में इसे दोबारा से स्थिर और सामान्य होने में कुछ एक साल लगेंगे. इसलिए, इस कस्बे में बाढ़ के ज़रिए पहुंचे ग्लेसियो-फ्ल्यूवियल मलबे को छेड़ा नहीं जाना चाहिए. इस इलाके में ना ही इतनी जगह है और ना ही ऐसी कोई तकनीक है जिससे कि इतने अधिक मलबे को यहां से कहीं हटाया जा सके और निस्तारित किया जा सके. इसलिए, निकट भविष्य में इसे छेड़ने की कोई भी कोशिश नहीं की जानी चाहिए.”
पूरी रिपोर्ट में इस संवेदनशील भूगोल के बारे में इसी तरह के करीब 13 सुझाव दिए गए थे. केदारनाथ में स्थित इंस्टिट्यूट के मॉनिटरिंग कैंप में इस रिपोर्टर की मुलाक़ात इस रिपोर्ट बनाने वाले वैज्ञानिक दल के प्रमुख डॉ. डीपी डोभाल से हुई. डॉ. डोभाल बताते हैं, “हमने अपनी रिपोर्ट में हिमालयन जीयोलॉजी के अनुसार कई सुझाव दिए थे, जिन्हें ध्यान में रखना बेहद महत्वपूर्ण था.”
डॉ. डोभाल आगे कहते हैं, “इसमें कोई शक नहीं है कि एनआईएम की टीम ने इतनी ऊंचाई पर बड़ी बहादुरी से काम किया है. लेकिन जो काम हुआ है उसमें दूरदर्शिता और प्लानिंग की कमी है. जिस तरह से कंक्रीट और अन्य भारी निर्माण सामग्री का इस्तेमाल, निर्माण कार्य में किया गया है वह ग्लेशियर के मलबे से बने इस भू-भाग में इस्तेमाल नहीं की जानी चाहिए थी.”
हिमालय के ऊँचाई वाले जिस भूगोल में केदारनाथ का मंदिर बना हुआ है, भूगर्भवेत्ताओं और ग्लेशियरों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के लिए यह हिमनद (ग्लेशियर) के मलबे का अस्थिर ढेर है जहां किसी भी किस्म के भारी निर्माण कार्य को वे अवैज्ञानिक मानते हैं.
हिमालयी ग्लेशियर्स पर लम्बे समय से काम कर रहे ‘फिजिकल रिसर्च लैब, अहमदाबाद’ से जुड़े वरिष्ठ जियोलॉजिस्ट डॉ. नवीन जुयाल की भी यही राय है. वे कहते हैं, “केदारनाथ में आई बाढ़ अपने साथ इतना मलबा लाई थी कि उसने इस कस्बे को कई फीट तक ढक दिया. इस मलबे को स्थिर होने तक यहां कोई भी निर्माण करना विज्ञान संगत बात नहीं थी. अब जब वहां नई इमारतें बनाई जा रही हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इन इमारतों की नींव को उस नए मलबे की गहराई से भी बहुत नीचे तक डालना होगा. मुझे नहीं मालूम कि अभी हुए निर्माणकार्य में इस बात का ख़याल रखा गया है कि नहीं.”
डॉ. जुयाल उच्च हिमालयी इलाकों में वैज्ञानिक ढंग से निर्माणकार्यों के बारे में बताते हुए आगे कहते हैं, “इस ऊंचाई वाले भू-भाग में, ग्लेशियर के मलबे के ऊपर भारी इमारतें नहीं बनाई जा सकतीं. अगर आप इतनी ऊंचाई पर बसे पारंपरिक समाजों के स्थापत्य को देखेंगे तो हमेशा नज़र आएगा कि लकड़ी आदि, हल्की निर्माण सामग्री का इस्तेमाल किया जाता रहा है.”
डॉ. जुयाल आगे कहते हैं, ”केदारनाथ में जब प्रकृति ने हमें तमाचा मारते हुए संभलने का एक मौक़ा दिया था तो हमें अपने स्थानीय पारंपरिक ज्ञान से सबक लेना चाहिए था. लकड़ी और पत्थरों की ढालूदार छतों वाली हल्की इमारतें वहां बनाई जानी चाहिए थी. लेकिन शायद हम ये मौका चूक गए हैं.”
क्या हम मौका चूक गए?
2013 की आपदा एक भीषण आपदा थी जिसने हज़ारों लोगों की जान ले ली, हज़ारों घायल हुए और पूरे हिमालयी समाज को बहुआयामी नुकसान हुआ. लेकिन साथ ही केदारनाथ कस्बे के लिहाज से इस आपदा ने हमें एक मौका भी दिया था कि उच्च हिमालय की शांत वादियों में बेतरतीबी और अनियंत्रित ढंग से बसे केदारनाथ कस्बे को एक नियोजित तरीके से और उच्च हिमालयी भूगोल के अनुसार संवारा जाता. तो क्या आपदा के चार साल गुजर जाने के बाद हम यह कह पाने में सक्षम हैं कि हमने इस मौके का इस्तेमाल किया?
केदारनाथ कस्बे की दाहिनी ओर की पहाड़ी पर कुछ ऊंचाई पर बने भैरव मंदिर से पूरा केदारनाथ कस्बा दिखाई देता है. आपदा के निशान चारों ओर पसरे हुए हैं. आपदा के बाद फिर से, सुनहरी ढालूदार छत और करीने से तराशे गए पत्थरों से बना केदारनाथ मंदिर, कंक्रीट से बनी घिचपिच, तंग, बहुमंजिला इमारतों से घिर गया है. पुनर्निमाण के नाम पर सौंदर्य को एकदम नज़रअंदाज कर सीमेंट और कंक्रीट की सपाट छतों वाली बहुमंजिला इमारतें बना दी गई हैं जो कि इस उच्च हिमालय के भूगोल से एकदम साम्य बनाती नहीं दिखती.
दिल्ली के 68 वर्षीय डीके शर्मा दूसरी बार केदारनाथ मंदिर में दर्शन के लिए आए हुए हैं. वे बताते हैं, ”मैं आपदा से पहले भी 2011 में यहां आया था. हालात बहुत बुरे थे. केदारनाथ मंदिर यहां बनी इमारतों के पीछे बिल्कुल ढका रहता था. रास्ते भी बेहद तंग थे. हालांकि आपदा के बाद अब रास्तों को चौड़ा कर दिया गया है लेकिन जो इमारतें दुबारा बनाई गई हैं वो बिल्कुल पहले की तरह ही बना दी गई हैं.”
48 वर्षीय जसपाल पंवार केदारपुरी में प्रसाद और आरती थाल की दुकान चलाते हैं. आपदा ने पूरे कस्बे की तरह उनकी दुकान को भी तबाह कर दिया था. अब उन्होंने मंदिर के नजदीक ही फिर से अपनी दुकान खोल ली है. आपदा का दिन अब भी उनकी स्मृतियों में ताजा है, ”वह भयानक दिन था. मुझे लगा प्रलय आ गया है. सब कुछ तबाह हो रहा था. हम ऊपर भैरव मंदिर की ओर भागे. मेरे कई पड़ोसी दुकानदार और अन्य कई लोग जो हमारे पीछे भाग रहे थे बाढ़ की चपेट में आ गए. मुझे यकीन नहीं होता मैं कैसे बच गया.”
जसपाल पंवार आगे कहते हैं, ”आपदा के बाद यहां सारा निर्माणकार्य एनआईएम (नेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटेनियरिंग) ने करवाया है. एनआईएम ही दोबारा से हमारी दुकानें भी बनावा रहा है और जब ये तैयार हो जाएंगी तो इन्हें हमें सौंप दिया जाएगा.”
एनआईएम को निर्माण का काम
एनआईएम बुनियादी तौर पर निर्माण कार्यों से जुड़ी एजेंसी नहीं है. लेकिन 2013 की आपदा के बाद, निर्माण के क्षेत्र में कोई विशेषज्ञता या अनुभव नहीं होने के बावजूद केदारनाथ कस्बे में पुनर्निर्माण का कार्य उसे इसलिए सौंप दिया गया, क्योंकि वह पर्वतारोहण में महारत रखती थी. आपदा ने इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में जिस तरह के हालात पैदा कर दिए थे ऐसे में निर्माणकार्य में दक्षता रखने वाली सभी एजेंसियों ने तत्काल निर्माणकार्य करने से मना कर दिया था.
एनआईएम के प्रिंसिपल कर्नल अजय कोठियाल कहते हैं, “उस वक्त दूसरी सारी एक्सपर्ट एजेंसियों ने हाथ खड़े कर दिए थे. सबका कहना था कि पांच साल से पहले पुनर्निर्माण का यह काम नहीं हो सकता. यात्रा पांच सालों के लिए बंद करनी होगी. लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने हमें अगले साल यात्रा शुरू होने से पहले इस काम को करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने हमें फ्री हैंड दिया. हमने (एनआईएम ने) इस चुनौती को स्वीकारा और हमारे सहयोगियों ने दिन-रात मेहनत से काम किया और यात्रा अगले साल यात्रा शुरू हो पाई.”
कर्नल कोठियाल केदारनाथ में अपनी टीम द्वारा किये गए कार्यों की सराहना करते हुए कहते हैं, ”हमारे सहयोगियों ने एक ऐसा चुनौती भरा काम साहस के साथ किया जिसके लिए विशेषज्ञ निर्माण एजेंसियां मना कर चुकी थीं.”
केदारनाथ में निर्माणकार्य के सौंदर्य और विशेषज्ञों की सलाह की अनदेखी के प्रश्न पर कोठियाल कहते हैं, ”दूर से देखने पर सब कुछ आसान लगता है लेकिन यहां काम करना बहुत चुनौतीपूर्ण था. केदारनाथ में आपदा के अगले साल ही यात्रा शुरू होने से पहले सुविधाएं मुहैया कराना ज़रूरी था. हम कोई सुविधाएं नहीं भी दे पाते तो भी लोग आते. क्योंकि यह लोगों की आस्था का प्रश्न था.”
2013 की भयानक आपदा के बाद इसकी पड़ताल के लिए जो विशेषज्ञ समितियां बनाई गई थी, उन्होंने आपदा की जिन वजहों का ज़िक्र किया था उनमें से एक वजह हिमालय की शांत वादियों में लोगों की बढ़ी आवाजाही भी थी. इन रिपोर्ट्स में कहा गया था कि 16 और 17 जून 2013 को उत्तराखंड में हुई दुर्लभ प्राकृतिक घटना के भयावह आपदा बनने की वजह इतनी भारी संख्या में शांत हिमालयी क्षेत्रों में भारी संख्या में लोगों की मौजूदगी थी. (कोई भी अतिरेकपूर्ण प्राकृतिक घटना आपदा तब कहलाती है जब उसकी चपेट में आकर कोई मानवीय नुकसान होता है.)
विशेषज्ञ समितियों की सलाह को नज़रअंदाज कर प्रधानमंत्री मोदी ने केदारनाथ के अपने संबोधन में अगले साल 10 लाख लोगों के केदारनाथ मंदिर में आने का दावा किया है. लेकिन साथ ही उन्होंने विरोधाभाषी बयान देते हुए, वहां होने वाले निर्माणकार्यों के दौरान पर्यावरण का ध्यान रखे जाने की भी बात कही है. उन्होंने कहा, ”जब यहां इतना सारा पैसा लगेगा, इतना सारा इंफ्रास्ट्रक्चर बनेगा तो उसमें पर्यावरण के सारे नियमों का खयाल रखा जाएगा. यहां की रुचि, प्रकृति, प्रवृति के अनुसार ही इसका पुनर्निमाण किया जाएगा. उसमें आधुनिकता होगी मगर उसकी आत्मा वही होगी जो सदियों से केदारनाथ की धरती ने अपने भीतर संजोए रखी है.”
यह समझ से परे है कि कैसे 10 लाख लोगों को इतने संवेदनशील भौगोलिक इलाके में ले जाकर पर्यावरण का ख़्याल रखा जा सकता है. केदारनाथ में अब तक हुए नए निर्माण कार्य में पर्यावरण और भूगर्भशास्त्र की विशेषज्ञ एजेंसियों के सुझावों को पूरी तरह अनदेखा किया गया है. जो कुछ अब तक हुआ है उसका परिणाम, फिर से वही अनियोजित और अदूदर्शी तरीके से कंक्रीट की इमारतों की घिचपिच है. अब देखना यह है कि प्रधानमंत्री द्वारा 700 करोड़ रुपये की इन ‘नई योजनाओं’ में क्या ‘नए विज़न’ का भी इस्तेमाल किया गया है, जिसमें कि 2013 की आपदा के सबक को भी शामिल किया गया हो?
एक विशेषज्ञ के तौर पर पर्यावरणीय और भूगर्भीय चिंताओं के अलावा डॉ. नवीन जुयाल हिमालय के शीर्ष पर बसे कैलाश पर्वत का उदाहरण देते हुए चिंता ज़ाहिर करते हैं, ”चीन जैसे देश ने भी, जहां एक नास्तिक और तानाशाह सरकार है, जिसने सांस्कृतिक क्रांति के दौरान धर्मों से जुड़े कई प्रतीकों को तोड़ा, ऐसी सरकार ने भी कैलाश पर्वत की चढ़ाई करने पर इस कारण प्रतिबंध लगाया हुआ है क्योंकि वह हिमालय के आस-पास जन्मे सारे ही धर्मों के लिए पवित्र पर्वत है. लेकिन हम अपने संवेदनशील पवित्र स्थानों को लेकर कितने लापरवाह हैं.”
(न्यूज़ लॉंड्री हिंदी, से साभार)
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