दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद गढ़वाल में एक और दीपावली मनाई जाती है जिसे इगास बग्वाल कहा जाता है. इस दिन पूर्व की दो बग्वालों की तरह पकवान बनाए जाते हैं, गोवंश को पींडा (पौस्टिक आहार) दिया जाता है, बर्त खींची जाती है तथा विशेष रूप से भैलो खेला जाता है. (Igas Festival of Uttarakhand)
कब मनाई जाती है इगास बग्वाल
गढ़वाल में चार बग्वाल होती है, पहली बग्वाल कर्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को. दूसरी अमावस्या को पूरे देश की तरह गढ़वाल में भी अपनी आंचलिक विशिष्टताओं के साथ मनाई जाती है. तीसरी बग्वाल बड़ी बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद आने वाली, कर्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है. गढ़वाली में एकादशी को इगास कहते हैं. इसलिए इसे इगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है. चौथी बग्वाल आती है दूसरी बग्वाल या बड़ी बग्वाल के ठीक एक महीने बाद मार्गशीष माह की अमावस्या तिथि को. इसे रिख बग्वाल कहते हैं. यह गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में मनाई जाती है. (Igas Festival of Uttarakhand)
क्यों मनाई जाती है इगास बग्वाल
इसके बारे में कई लोकविश्वास, मान्यताएं, किंवदंतिया प्रचलित है. एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी. इसलिए यहां पर ग्यारह दिन बाद यह दीवाली मनाई जाती है. रिख बग्वाल मनाए जाने के पीछे भी एक विश्वास यह भी प्रचलित है कि उन इलाकों में राम के अयोध्या लौटने की सूचना एक महीने बाद मिली थी.
दूसरी मान्यता के अनुसार दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी. युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी.
रिख बग्वाल के बारे में भी यही कहा जाता है कि सेना एक महीने बाद पहुंची और तब बग्वाल मनाई गई और इसके बाद यह परम्परा ही चल पड़ी. ऐसा भी कहा जाता है कि बड़ी दीवाली के अवसर पर किसी क्षेत्र का कोई व्यक्ति भैला बनाने के लिए लकड़ी लेने जंगल गया लेकिन उस दिन वापस नहीं आया इसलिए ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई. ग्यारह दिन बाद जब वो व्यक्ति वापस लौटा तो तब दीपावली मनाई और भैला खेला.
हिंदू परम्पराओं और विश्वासों की बात करें तो इगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा गया है. इसे ग्यारस का त्यौहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं. पौराणिक कथा है कि शंखासुर नाम का एक राक्षस था. उसका तीनो लोकों में आतंक था. देवतागण उसके भय से विष्णु के पास गए और राक्षस से मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना की. विष्णु ने शंखासुर से युद्ध किया. युद्ध बड़े लम्बे समय तक चला. अंत में भगवान विष्णु ने शंखासुर को मार डाला. इस लम्बे युद्ध के बाद भगवान विष्णु काफी थक गए थे. क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु निंद्रा से जागे. देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की. इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया.
गढ़वाल में इगास बग्वाल
बड़ी बग्वाल की तरह इस दिन भी दिए जलाते हैं, पकवान बनाए जाते हैं. यह ऐसा समय होता है जब पहाड़ धन-धान्य और घी-दूध से परिपूर्ण होता है. बाड़े-सग्वाड़ों में तरह-तरह की सब्जियां होती हैं. इस दिन को घर के कोठारों को नए अनाजों से भरने का शुभ दिन भी माना जाता है. इस अवसर पर नई ठेकी और पर्या के शुभारम्भ की प्रथा भी है. इकास बग्वाल के दिन रक्षा-बन्धन के धागों को हाथ से तोड़कर गाय की पूंछ पर बांधने का भी चलन था. इस अवसर पर गोवंश को पींडा (पौष्टिक आहार) खिलाते, बैलों के सींगों पर तेल लगाने, गले में माला पहनाने उनकी पूजा करते हैं. इस बारे में किंवदन्ती प्रचलित है कि ब्रह्मा ने जब संसार की रचना की तो मनुष्य ने पूछा कि मैं धरती पर कैसे रहूंगा? तो ब्रह्मा ने शेर को बुलाया और हल जोतने को कहा. शेर ने मना कर दिया. इसी प्रकार कई जानवरों पूछा तो सबने मना किया. अंत में बैल तैयार हुआ. तब ब्रह्मा ने बैल को वरदान दिया कि लोग तुझे दावत देंगे, तेरी तेल मालिश होगी और तुझे पूजेंगे.
पींडे के साथ एक पत्ते में हलुवा, पूरी, पकोड़ी भी गोशाला ले जाते हैं. इसे ग्वाल ढिंडी कहा जाता है. जब गाय-बैल पींडा खा लेते हैं तब उनको चराने वाले अथवा गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार स्वरूप उस ग्वालढिंडी को दिया जाता है.
बर्त परम्परा
बग्वाल के अवसर पर गढ़वाल में बर्त खींचने की परम्परा भी है. इगास बग्वाल के अवसर पर भी बर्त खींचा जाता है. बर्त का अर्थ है मोटी रस्सी. यह बर्त बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाया जाता है. लोकपरम्पराओं को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए उन्हें वैदिक-पौराणिक आख्यानों से जोड़ने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है. बर्त खींचने को भी समुद्र मंथन की क्रिया और बर्त को बासुकि नाग से जोड़ा जाता है.
भैलो खेलने का रिवाज
इगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है. यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है. यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है. इसे दली या छिल्ला कहा जाता है. जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं. इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है. फिर इसे जला कर घुमाते हैं. इसे ही भैला खेलना कहा जाता है.
परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं. जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के पंचायती चौक में एकत्र करते हैं.
सुरमाड़ी, मालू की बेलां अथवा बाबला, स्येलू से बनी रस्सियों से दली और छिलो को बांध कर भैला बनाया जाता है. जनसमूह सार्वजनिक स्थान या पास के समतल खेतों में एकत्रित होकर ढोल-दमाऊं के साथ नाचते और भैला खेलते हैं. भैलो खेलते हुए अनेक मुद्राएं बनाई जाती हैं, नृत्य किया जाता है और तरह-तरह के करतब दिखाये जाते हैं. इसे भैलो नृत्य कहा जाता है. भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परम्परा भी है. यह सिर्फ हास्य विनोद के लिए किया जाता है. जैसे अगल-बगल या सामने के गांव वालों को रावण की सेना और खुद को राम की सेना मानते हुए चुटकियां ली जाती हैं, कई मनोरंजक तुक बंदियां की जाती हैं. जैसे- फलां गौं वाला रावण की सेना, हम छना राम की सेना. निकटवर्ती गांवों के लोगों को गीतों के माध्यम से छेड़ा जाता है. नए-नए त्वरित गीत तैयार होते हैं.
सुख करी भैलो, धर्म को द्वारी, भैलो
धर्म की खोली, भैलो जै-जस करी
सूना का संगाड़ भैलो, रूपा को द्वार दे भैलो
खरक दे गौड़ी-भैंस्यों को, भैलो, खोड़ दे बाखर्यों को, भैलो
हर्रों-तर्यों करी, भैलो.
भैलो रे भैलो, खेला रे भैलो
बग्वाल की राति खेला भैलो
बग्वाल की राति लछमी को बास
जगमग भैलो की हर जगा सुवास
स्वाला पकोड़ों की हुई च रस्याल
सबकु ऐन इनी रंगमती बग्वाल
नाच रे नाचा खेला रे भैलो
अगनी की पूजा, मन करा उजालो
भैलो रे भैलो.
इस अवसर पर कई प्रकार की लोककलाओं की प्रस्तुतियां भी होती हैं. क्षेत्रों और गांवों के अनुसार इसमें विविधता होती है. सामान्य रूप से लोकनृत्य, मंडाण, चांचड़ी-थड़्या लगाते, गीत गाते, दीप जलाते और आतिशबाजी करते हैं. कई क्षे़त्रों में उत्सव स्थल पर कद्दू, काखड़ी मुंगरी को एकत्र करने की परम्परा भी है. फिर एक व्यक्ति पर भीम अवतरित होता है. वो इसे ग्रहण करता है. कुछ क्षेत्रों में बग्ड्वाल-पाण्डव नृत्य की लघु प्रस्तुतियां भी आयोजित होती हैं.
नंद किशोर हटवाल की फेसबुक वाल से साभार.
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नंद किशोर हटवाल उत्तराखंड के सुपरिचित कवि, लेखक, कलाकार व इतिहासकार हैं. उन्हें उत्तराखंड की लोक कलाओं के विशेषज्ञ के तौर पर भी जाना जाता है.
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2 Comments
Akshaya Sharma
जानकारी के लिए धन्यवाद।
Anshul Kumar Dobhal
हटवाल जी 🙏🏻
आप जैसे प्रबुद्ध लेखक के लेख में इस तरह की सूचना का प्रसारण सही नहीं है।
लेख में असत्य को पहली सूचना बना दिया, और सत्य को दूसरी, कुछ लोग पूरा लेख नहीं पढ़ते, वो पहले वाली थ्योरी को सत्य मान लेंगे। काफल ट्री को प्रबुद्ध लोग पढ़ते हैं। वास्तव श्रीराम के अयोध्या लौटने वाली बात 11 दिन बाद पता चलने वाली बात हास्यास्पद और अतार्किक है।
इस पोस्ट का मैंने पहले भी जमकर विरोध किया है,
फेसबुक, व्हाट्सऐप और अखबार के संपादक को पत्र लिखकर भी।
दरअसल, जो भी भ्रामक सूचना होती है, उसे यदि हम प्रसारित करते हैं, तो लोग उसे सच मान लेते हैं।
तार्किक दृष्टि से सोचिए,
श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर क्या पहाड़ियों को 500 साल पहले मिली ?
क्योंकि इगास तो 500 साल से ही मनाई जा रही है, और भगवान राम का काल तो हजारों साल पहले का है ?
जिस युग में पुष्पक विमान जैसी चीज थी, आकाशवाणी होती थी, दिव्यदृष्टि, योगदृष्टि, तपबल आदि से सब पता लग जाता था, उस युग में हम अनजान थे ?
आपको पता ही है कि हम में से अधिसंख्य लोग 1000 साल के वक्फे में ही उत्तराखंड में बसे, तो दीवाली का हमको ज्ञान नहीं था ?
ढोल सागर की विद्या जानने वाले पहाड़ी, जो मिनटों में ढोल के माध्यम से ध्वनि की चाल से सूचनाओं का प्रसारण कर देते थे, उनको प्रभु श्रीराम का पता नहीं लगा ?
देवभूमि के लोग, जहाँ देवता निवास करते थे, जहाँ आज भी देवता ‘बाक’ बोलते हैं, भूत-भविष्य सब बता देते हैं, उनको ये बात पता नहीं चली ?
और उत्तरकाशी, जौनपुर, जौनसार, प्रतापनगर, इनको ये बात एक महीने बाद पता चली ?(रिख बग्वाल)
हनुमान जी यहीं से रातोंरात संजीवनी ले गए थे, विमान से भी तेज विद्या के उस युग में हमें अनजान बताना, ये बचकाना है।
ये सूचना, खुद किसी अज्ञानी व्यक्ति ने बनाई है, जैसे, किसी व्यक्ति को खुद इतिहास न पता हो, और उससे कोई कुछ पूछे, तो वो अपनी अज्ञानता छुपाने के लिए कोई कहानी गढ़ के सुना लेता है, ठीक वैसे ही ये कहानी किसी ने गढ़ी है।
इसलिए, ऐसी सूचनाएँ प्रसारित करने की बजाय जिसने सुनाई, या भेजी है, उसका खंडन करना चाहिए, अन्यथा लोक में यही स्थापित सत्य बन जाता है।
इगास का एक मात्र कारण माधोसिंह भंडारी है, और बूढ़ी बग्वाल या रिख बग्वाल का रिखोला लोदी।