कभी-कभी, जब, में पेट की भाषाओं के दबाव तले दम तोड़ती भाषाओं के बारे में चिन्तन करता हूँ तो मुझे घुटन सी होने लगती है. मुझे लगता है कि जिस प्रकार हम अपनी बोलियों की उपेक्षा कर रहे हैं, हमारी बोलियाँ भी अगले बीसपचीस साल में विश्व की अब तक दम तोड़ चुकी उन सैकड़ों भाषाओं और दुदबोलियों में शामिल हो जाएंगी, जिनका आज कोई नाम लेवा भी शेष नहीं है.
(Humari Boli Humari Pahchan)
संसार में जो समाज अपनी मातृभाषाओं या दुदबोलियों के प्रति जागरूक नहीं हैं, उनकी बोलियों को मक्खन लगी रोटी की भाषाएँ निगलती जा रही हैं. आधी दुनियाँ की सैकड़ों बोलियों को स्पेनी निगल चुकी है, अफ्रीकी भाषाएँ स्वहिली भाषा के प्रकोप से मर रही है, रूसी पूर्वी यूरोप की भाषाओं को निगलने के लिए तैयार बैठी है और अंग्रेजी की महामारी आत्मगौरव से सम्पन्न फ्रेंच, जर्मन, जापानी, चीनी जैसी कुछ भाषाओं को छोड़ कर दुनियाँ की सारी बोलियों को उजाड़ देने पर तुली हुई है.
लोग कहते हैं इस इसमें क्या बुरा है? यदि सारी दुनिया की एक ही भाषा हो तो विभिन्न देशों, जातियों और समाजों के बीच संवाद में कितनी सुविधा होगी. लेकिन वे भाषा को केवल आपसी बातचीत का माध्यम भर मानने की भूल करते है. वे भूल जाते हैं कि किसी भी बोली को बनने में हजारों वर्ष लगते हैं.
सोचिये हमारे पुरखों ने प्रकृति के विविध रूपों और प्रभावों को स्पष्ट पहचान देने के लिए कितना कुछ किया है. अपने आसपास की वनस्पतियों को उनके रंग, रूप, प्रकार, और प्रभाव और उपयोग को परखते हुए अपनी बोली के शब्द समूह से उपयुक्त शब्द चुन कर उनके नाम रखे, कहीं उनके रूप को आधार बनाया तो कहीं उनके प्रभाव को और उनके इतने प्रकारों को नाम देते चले गये कि उन वनवासी आदिम पूर्वजों की सूक्ष्म दृष्टि पर आश्चर्य होता है. यही उन्होंने अपने आसपास के जीवों को पहचान देने में किया. कहीं उनकी आवाज को, कहीं उनके रूप को और कहीं उनके व्यवहार को आधार बनाया.
उन्होंने परिवार बनाया, समाज का गठन किया. अपने समाज से जुड़ाव विकसित किया. हर एक नाते को नाम दिया, पहचान दी. उन्होंने परंपराओं को जन्म दिया, विश्वासों को जगाया, भ्रान्तियाँ भी पालीं, उनका उपचार भी ढूँढा. विभिन्न वनस्पतियों और खनिजों के रोगनिवारक तत्वों को पहचाना, उनसे चिकित्सा विज्ञान का सूत्रपात किया. उसने मनोरोगों के उपचार के लिए शाबर मंत्रो की रचना की. देवयोनियों की कल्पना की, उनके प्रभाव के बहाने समाज का नियमन किया. उन्होंने गीत गाये, अपने पूर्वजों के गौरव को ही नहीं उनकी बुराइयों को भी अपने गीतों, गाथाओं, कथाओं, में संजोया, बालगीत बनाये ,पहेलियाँ सृजित कीं, खेलों की रचना की, अल्पनाएँ विकसित कीं उनमें अपने विश्वासों और पूर्वजों की यादों को संजोया.
(Humari Boli Humari Pahchan)
यह सब कुछ एक दिन में नहीं हुआ. इसमें पलपल कर हजारों वर्ष लग गये. और उ्नके प्रयासों से हमें एक पहचान मिली. यह पहचान भी उन्होंने एक शब्द ’ई’ (यथा कुमाऊनी, गढ़्वाली, बुन्देली, मराठी, गुजराती, मलयाली पंजाबी) की पोटली में बाँध कर अगली पीढियों को सौंपते जाने के लिए हमें दी.
हमारा साहित्य, हमारा ज्ञानविज्ञान, हमारे उपकरण, हमारे संसाधन एक दिन में नहीं पनपे हैं. उनको वर्तमान रूप में आने में हजारों वर्ष लगे हैं. इसीलिए डार्विन के जीवों की उत्पत्ति कू सिद्धान्त और हमारे अवतार वाद में समानता की झलक मिलती है. बिग बैंग और ओ3म में एक सा अनुनाद सुनाई देता है. ब्रह्मांड की कालगणना और ब्रह्मा, विष्ण, महेश की क्रमिक जीवनावधि गणना में समानता दिखती है.
यह जो मनुष्य की गर्दन पर बैठा हुआ है, जिसे हम दिमाग या मस्तिष्क कहते हैं, एक दिन में नहीं बना है. अनन्त काल में बनता चला गया है. इसमें भी जिसने जड़ की कंजड़ मे जाने की चेष्टा की वह अपने युग से सैकड़ों साल पहले केवल बाँस की नालियों के सहारे वह सिद्ध कर गया, जिसका लोहा आज की रेडियो दूरवीन भी मान रही हैं. और यह सब हमारी भाषाओं और बोलियों में संचित है
मित्र, बोली या भाषा केवल संवाद का माध्यम नही होती वह एक विशाल विश्वकोश होती है. वह किसी क्षेत्र की निवासियों की पहचान होती है. यदि बोली का अवसान हुआ तो समझ लीजिये दुनिया के छः अरब लोगों में हमारी पहचान क्या होगी.
हमारे बच्चे अंग्रेजी में भी महारत हासिल करें, अपने प्रदेश और देश की राजभाषा में भी प्रवीण हों. समृद्धि उनके कदम चूमे. पर माँ तो माँ है! माँ के दूध से मिली बोली, दुदबोली. उसकी उपेक्षा न करें. यह कोई कठिन काम भी नहीं है. जरा सा अपनी बोली के प्रति हीनताबोध से बचें. घर में और अपने सगे संबन्धियों से अपनी बोली में बोलना आरंभ कर दें. बस. हमारी बोली, हमारे पूर्वजों की युगों के अन्तराल में बडे़ परिश्रम से संचित विरासत युगों तक न केवल बनी रहेगी अपितु विकास के साथ समृद्ध भी होती जायेगी. जरा सोचिये तो…
(Humari Boli Humari Pahchan)
तारा चन्द्र त्रिपाठी का यह लेख नैनीताल समाचार से साभार लिया गया है.
27 जनवरी 1940 को जिला नैनीताल के ग्राम मझेड़ा में जन्मे तारा चन्द्र त्रिपाठी पेशे से अध्यापक रहे. उत्तराखंड के इतिहास और सामाजिक विशेषताओं के मर्मज्ञ त्रिपाठी जी की अनेक रचनाएं प्रकाशित हैं जिनमें प्रमुख हैं – उत्तराखंड का ऐतिहासिक भूगोल, मध्य हिमालय: भाषा लोक और स्थान-नाम, कोहरे के आर पार, टोक्यो की छत से, महाद्वीपों के आर पार, और आधी रात के सोर. फ़िलहाल हल्द्वानी में रहते हैं और उनकी इस आयु में भी उनकी रचनात्मक ऊर्जा और सक्रियता युवाओं की ईर्ष्या का विषय बन सकती है.
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