देहरादून में घर के पीछे दीवार पर जो लकड़ी के घोसले मैंने टाँगे थे उनमें गौरेयों ने रहना स्वीकार कर लिया है. लकड़ी के ये घोसले मैं देहरादून की जेल से लाया था, जो वहाँ पर कैदियों द्वारा तैयार किये जाते हैं. दीवार पर टाँगने के बाद कई दिनों तक गौरेया अपने साथियों के साथ निरीक्षण करती रही कि ये घोंसले सुरक्षित भी है या नहीं? जाने उन्हें क्यों लगता है कि हर इन्सान उनके साथ फरेब ही करता है परन्तु दूसरे पहलू से देखा जाये तो समझदारी जरूरी है. एक गौरेया आती, दूसरी जाती, फिर तीसरी आती और अन्त में उन्होंने सभी ओर से सुरक्षित मानते हुये ये घोंसले ‘पास’ कर गृहप्रवेश कर ही दिया. फर्श पर मिट्टी के बर्तन में मेरी पत्नी पानी भी रख देती है. परन्तु मैं देखता हूँ कि उस बर्तन का पानी उन्हें कम ही नसीब होता है क्योंकि चालाक सिण्टुले अक्सर पानी पी ही नहीं जाते बल्कि उसमें नहाते भी हैं. थोड़ा-बहुत जो पानी बचता है ततैये पी जाते हैं. (House Sporrow Passer domesticus Uttarakhand)
प्रायः झुण्ड में रहने वाली गौरेया एक समय में तीन अण्डे देती है. भूरे, हल्के भूरे व सफेद रंग की गौरेया के नर व मादा में रंग के आधार पर अलग पहचान होती है. नर गौरेया के ऊपरी, निचले तथा गालों पर के पंख भूरे रंग के होते हैं. गला, चोंच और आँखों पर काला रंग होता है. जबकि मादा गौरेया के सिर व गालों पर भूरा रंग नहीं होता है और न ही आँखों आदि पर काला रंग होता है. सुबह-शाम नजर पड़ते रहने के कारण गौरेयों का व्यवहार मैं अब कुछ-कुछ समझ रहा हूँ. घोसले में जब मादा गौरेया अपने अण्डों को सेती है या अपने बच्चों को दाना दे रही होती है उस वक्त नर गौरेया बाहर या आस-पास बैठकर चौकीदारी करता है. उसे घोंसले के अन्दर घुसते हुये मैंने कभी नहीं देखा. शायद नर गौरेया को घोसले में घुसने की मनाही हो.
माना जाता है कि गौरेया का जीवनकाल चार से सात साल का होता है. साढ़े चौदह से सोलह सेमी लम्बाई और साढ़े ग्यारह से बयालीस ग्राम तक के बजन वाली गौरेया भोजन की तलाश में मीलों तक का सफर कर लेती है. इनका प्रिय भोजन फसल के बीज और फसल पर पलने वाले कीड़े हैं. इसके अलावा ये अनाज के दाने भी चुगती है. भौगोलिक व पर्यावरणीय आधार पर गौरेयों के रंग कहीं मटमैले तो कहीं सिलेटी होते हैं. अपनी छोटी पूँछ व ठूँठ जैसी किन्तु मजबूत पकड़ वाली चोंच के लिए भी जाने जानी वाली गौरेया एक बेहद खूबसूरत पक्षी है. और सम्भवतः मनुष्यों के करीब रहने वाले जंगली पशु-पक्षियों में यह अकेला है कि जो मनुष्य के इर्द-गिर्द ही अपना आवास बनाती है. ये आमतौर पर पुलों, छतों और पेड़ के खोखलों में अपना घोंसला बनाती है. परन्तु एक बार मेरा जब लोनावाला (पूना) जाना हुआ तो वहाँ बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच भी गौरेया के घोंसले मैंने देखे.
पक्षी वैज्ञानिकों का मानना है कि यूरोप और एशिया में गौरेया लगभग हर जगह पर पायी जाती है परन्तु अमेरिका के कुछ भागों व अफ्रीका, आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड में भी मनुष्यों की बस्ती के आसपास इनके घोंसले देखे जा सकते हैं. पूरे विश्व में गौरेया की तिरतालीस प्रजातियाँ है, जबकि शहरी इलाके में ही गौरेया की छः प्रजातियाँ पायी जाती है. मानवीय आवास के निकट बसने वाली घरेलू गौरेया अर्थात House Sporrow का जूलोजिकल नाम पासर डोमेस्टिकस- Passer domesticus है. हमारे देश में गौरेया को चिड़ी, चेर, चिमनी, चकली आदि नाम से भी जाना जाता है. अंग्रेजी में इसे Sparrow कहते हैं और गढ़वाल में यह घिण्डुड़ी/घेण्डुड़ी या भंगैड़ी नाम से जानी जाती है. बचपन में सुने गये गीत की एक पंक्ति आज भी याद है; ‘फुर घिण्डुड़ी ऐजा, पधानु का छाजा…’
आज जब बचपन को याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि गौरेया तब हमारे जीवन में रची-बसी हुयी थी. सुबह नींद भी अक्सर इन गौरेयों की चीं-चीं से ही खुलती और नींद पूरी न होने पर तब इन पर गुस्सा भी आता था. सुबह ओखली पर धान कूटने वाली औरतों को गौरेया घेरे रहती कि जैसे ही दाने ओखली से बाहर छलकेंगे या कूटने वाली औरतें हटी नहीं कि ये सब दावत उड़ाने लग जाते. कुछ दयालु औरतें जानबूझ कर भी अनाज के कुछ दाने ओखली के चारों ओर बिखेर देती थी कि गौरेयों, घुघूतियों आदि चिड़ियों का पेट भी भर जाये.
गर्मियों के मौसम में गांव में बाहर डैंकण या भीमल के छायादार पेड़ों के नीचे बैठते ही गौरेयों का चहचाहट शुरू हो जाती. बचपन में उत्सुकता होती थी कि इस तरह जोर-जोर से चीं-चीं करके न जाने वे आपस में क्या बातें करती होगी? दूसरे पल सोचते कि ये चीं-चीं कर ही क्या एक-दूसरे से संवाद बनाती होंगी? उनको लेकर अनेक बातें मन में आती. तब हमंे गौरेयों की चहचाहट शोर लगता था. जबकि सच माने तो वह शोर नहीं वास्तव में संगीत था, प्रकृति प्रदत्त वरदान था. अब हम उस संगीत से वंचित है, उसके बिना अधूरे हैं. आज थोड़ी-बहुत आर्थिक सम्पन्नता भले ही आ गयी है परन्तु वह सब कुछ रीत गया है. हम प्रकृति से दूर हो गये हैं, बिल्कुल मशीन बन गये हैं. गौरेयों की उपस्थिति तब हमारे लिये कोई मायने नहीं रखती थी और आज हम उसी के लिए तरस रहे हैं.
अपने आंचलिक गीतों और मधुर स्वर से कुमाऊं गढ़वाल की डानी-कांठियों को गुंजा देने वाले सशक्त हस्ताक्षर गोपाल बाबू गोस्वामी ने अपने एक गीत में खूबसूरती से बयां किया है;
‘‘दैऽऽऽऽ रुपसाऽऽऽऽऽऽ मै खै देली, मैं टोकेली
हलिया हल बाये, छ्म छ्म बोये धाना
ओ पैली खानी चूहा पंछी फिर खाये किसाना…’’
सुप्रसिद्ध कवि बीना बेंजवाल (‘कमेड़ा आखर’ की ‘पौंछि सकन त्’) कविता की खूबसूरत पंक्तियाँ मन को झकझोर देती है;
‘साट्टि इखरौण पर
सुरू ह्वईं कुटणैक चोट
सुप्पन फटगण
अर दुरौण का बाद
छड़दि बगत
छुप-छुप करदा-करदी
लगैं जंदि उख्र्यळा का ओर-पोर
चैंळू कि एक छलार
कपाळ चढ़यां तुम्हरा आंखा देखी
मेटणेकि भौत कोसिस करण पर बि
बूसा मां लुक्यां रै जंदन
द्वी-चार सफेद छड़यां चैंळ
सुख-दुख का दगड़या
चखुलौं कु हक मारी
तुम्हरि हैंसदि नजरों मा
बौळया बणी
खत्यां बूसा सणि खरोळी-खरोळी
वूं द्वी-चार सफेद छड़यां चैंळ
खोजणै जब बि करि
मिन कोसिस…’
चिन्ता का विषय है कि खेतों में निरन्तर कीटनाशकों के छिड़काव, परम्परागत घरों की अपेक्षा पक्के मकानों और आधुनिक स्थापत्य कला के बहुमंजिली इमारतों के बन जाने और पंसारी की दुकानों के स्थान पर धीरे-धीरे सुपरमार्केट व मॉल संस्कृति विकसित होने से इनकी संख्या दिनों-दिन कम होती जा रही है. और सबसे भयावह स्थिति यह है कि मोबाइल टावरों से निकलने वाली तरंगों के कारण गौरेया आज विलुप्ति के कगार पर हैं. माना जाता है कि मोबाइल टावरों से निकलने वाली तरंगों से गौरेया ही नहीं सभी चिड़ियों की दिशा खोजने वाली प्रणाली प्रभावित होती है और इनकी प्रजनन क्षमता पर भी विपरीत असर पड़ रहा है, जो कि खतरे का सूचक है. गौरेया की विलुप्ति के प्रति सचेत होने व जागरूकता लाने के लिये ही आज पूरा विश्व 20 मार्च को ‘गौरेया दिवस’ के रूप में मनाता है. पहला विश्व गौरेया दिवस इसी दिन 2010 को मनाया गया था. इससे अधिक सुखद क्या हो सकता है कि दिल्ली सरकार ने गौरेया को ‘राज्य पक्षी’ घोषित कर दिया है. परन्तु धरातल पर इनके संरक्षण के लिए कोई ठोस कार्य करने की आवश्यकता है.
बचपन के दिनों की बात है. गाँव के कच्चे घरों में गौरेये घोसले बनाते थे. कभी उनके घोसलों से कबाड़ नीचे गिरता, कभी उनके अण्डे और कभी उनके बच्चे भी. तब उनके अण्डों या बच्चों को उनके घोसलों पर यथास्थान रखना बहुत कठिन हो जाता. घर के बुजुर्ग डाँटते थे कि ‘घोसला बनने ही न दो. उनके अण्डों या बच्चों के चक्कर में साँप आ जाते हैं…’ उनकी चिन्ता जायज थी, सचमुच में कभी साँप आ भी जाते थे. घर के बड़ों की बात मानते हुये जोश में आकर कई बार हमने घोसले उजाड़े हैं, गौरेयों को बेघर किया है, उनके अण्डों, बच्चों से उन्हें वंचित किया है. आज सोचता हूँ कि तब प्रसव वेदना में तड़पती हुई गौरेया घोंसले की तलाश में भटकते हुये या फिर अपने अण्डे-बच्चों के गायब होने की पीड़ा से व्याकुल गौरेया ने हमें शाप जरूर दिया होगा.
आज दूर-दूर तक गौरेयों को न देख पाने या उनकी चिंचिहाट के अभाव में पसरे सूनेपन के रूप में शाप ही तो भोग रहे हैं हम. इतने वर्षों बाद आज देहरादून में पक्के घर की दीवार पर घोंसले टाँगना बचपन में किये गये पापों का प्रायश्चित ही है शायद.
घुघुती की हमारे लोकजीवन में गहरी छाप है
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
2 Comments
[email protected]
अपने गुरुदेव बड़े भाई को काफल ट्री पर पढ़ने पर गौरव महसूस कर रहा हूँ।
सतीश
गौरैय्या की लम्बाई 16 इंच , याने एक फुट से भी ज्यादा ?????