होली है जो बैरभाव को जगाती है और न जात-पात को देखती है और न छोटे-बड़े का भेद समझती है. ऐसा त्यौहार भारतीय संस्कृति के अतिरिक्त कहीं नहीं दिखाई देता है. जिसमें सचमुच समाज आपसी मनमुटाव को भुला कर हारमोनियमों और ढोलकियों की थाप पर नाच-गाकर अपने को इन्द्रधनुषीय रंगों में रंगते हैं.
उत्तर प्रदेश में मथुरा-बरसाने की होली के बाद उत्तराखण्ड की होली का विशेष महत्व व स्थान है. इस पर्वतीय क्षेत्र में होली के सामान्यतः दो रूप हैं. बैठकी एवं खड़ी होली.
इकट्ठा होकर घूम-फिर के या खड़े होकर गाए जाने वाले गीतों को खड़ी होली कहा जाता है. इनमें शास्त्रीय रागों की झलक अधिक रहती है. बैठकी होली में ब्रजभाषा का संगीत शास्त्रीय ढंग से एक-एक स्तर को खींचते हुए धीमे विलंबित लय में गाए जाते हैं. उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा की होली के बाद गढ़वाल की होली जानी पहचानी जाती है. यहां बैठके, होली पूस की सक्रांत से शुरू हो जाती है. खड़ी होली शिवरात्री पर्व से शुरू होकर छरड़ी तक चलती है. इतने लम्बे समय तक होली उत्तराखण्ड के अलावा कहीं नहीं खेली जाती है.
फागुन के आते ही सार (खेत) खेत में फूलों ने अपने अड्डे जमा लिए हैं. जगह-जगह फूल ही फूल खिले होते हैं. (आरू हो या चैला, लंया हो या पंया, चमूलाड़ी फूलों की विभिन्न किस्में). इसमें सबसे ऊपर बुरांस अपने दहकते लाल रंग में दिखाई दे रहा है. फागुन अपने आने का गजब का उत्साह व नशा फैला रहा है. आजकल गढ़वाल में उसी के बीच कहीं से बैठकों में होली की दीपचन्द्री बहार सुनाई दे रही है.
मेरी अंखियन डारत गुलाल श्याम
रसिया न मारे रे,
रंग महल में नौबत बाजे
बाजे गोरी की पायलिया.
राजघरानों से गढ़वाल में होली का जन्म हो चुका था. गढ़वाल राजघरानों की पुरानी राजधानी श्रीनगर एवं टिहरी में होली के हुल्यारों की बात ही कुछ और थी. यहां के होली सम्राट नारायण दत्त थपलियाल तो आए दिन टिहरी नरेश प्रद्युम्न शाह (18वीं शताब्दी) एवं गुमानी के युग की होली गाते रहते थे.
श्रीनगर, टिहरी व पौड़ी इन तीनों में पौड़ी में बहुत बाद में होली के हुल्यारों का अड्डा बना. कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय राजा श्रीनगर छोडकर टिहरी चल गया था. अब पौड़ी और श्रीनगर में दूरी ही कितनी थी? कुल जमा आठ मील, इसलिए थोडा बहुत होली के दखिनों (हुल्यारों) अड्डे यहां बने रहे.
अंग्रेजों के यहां आने के बाद सन् 1814 ई॰ में कुमाऊं के साथ ही गढ़वाल पर अंग्रेजों का अधिकार हो चुका था. इस पहाड़ी क्षेत्र पर अंग्रेजों के कब्जे जमाने से एक काम यह हुआ है कि कुमाऊं गढ़वाल के होली बाज एक दूसरों से एक कम मिलते रहे इससे बैठक बाजों की संख्या में वृद्वि नहीं हुई वरन इसके गुणों में भी वृद्वि हुई कुमाऊनी समाज ने भी गढवालियों की होली को खूब सराहा.
गढ़वाल में शहर पौड़ी की होली का अपना ही अलग रंग है जिसमें हिन्दु, मुसलमान, इसाई व अन्य समुदाय के लोग भी अपने को होली के रंग में रंगते हैं. एक अनुमान के अनुसार सबसे पहले होली पौड़ी गांव से शुरू हुई, यहां नन्दा सिंह रावत, रणजीत सिंह, त्रिलोक सिंह, मदन सिंह आदि लोगों ने होली खेलने की परम्परा शुरू की.
पौड़ी की होली का प्रसिद्व स्थल चैधरात में बरसों से होली जलाई जा रही है. अब तो यहां होली का प्रतीक स्तम्भ बन गया है. यहां होली के समय खड़ी होली गाई जाती है. इस इलाके में मुसलमानों की बस्ती अधिक है, लेकिन यहां के मुस्लिम भाई बिना किसी झिझक के हिन्दुओं के साथ होली गाते और खेलते हैं. फागुन महीने में पौड़ी में जिधर कान तला लो उधर ही होली की बैठकों की धूम मची रहती है.
बरजोरी रंग डाले गिरधारी रे,
मोरि, रंग से भिगो दीनि सारी रे.
एक जमाने की बात है जब पौड़ी में होली के पुराने हुल्मार मदन मोहन लाल शाह के यहां होली की बैठकें इस कदर जमी रहती कि उठने का नाम ही नहीं लेती थी चिरंजीलाल वर्मा भांग घोटते रहते और पान सिंह बिष्ट तो होली के उन हुल्यारों में थे जो अपने सुरीले कंठ से होली गीत गाकर सभी की नींद हर लेते थे. मोहन (मदन लाल शाह), मदन सिंह, तारी लाल शाह, दयासागर धस्माना, अजीत सिंह, नारायण दत्त जी, भूपेन्द्र सिंह, मंगल सिंह एवं मन्ना बाबू पर तो सारे फागुन के महीने होली का नशा चढ़ा रहता. होली के आगमन से पूर्व ही इनके द्वारा बैठकें शुरू कर दी जाती थीं. वैसे कभी-कभी खुले आंगन में भी होली की बैठकें लगती थी, इनमें कुछ लोग तो मेहमानों की आदर-खातिर में लगे रहते. मन्ना व तारा की हंसी मजाक में सुबह से शाम हो जाती थी. दूसरी ओर अजीत सिंह, मदनसिंह एवं सागर जी अपनी हारमोनियमों व तबलों के रस में डूबे रहते. इन सबके बीच बडे़ याकूब हुसैनी, जब्बार भाई, इकराम अली, ज्ञान विक्टर, मौहम्मद सद्दीक, यामीन कुरैशी और मुद्दी भाई अपने साथियों के साथ खड़ी होली के लिए इंतजार करते. पौड़ी में खड़ी होली तो बडे याकूब के नेतृत्व में हिन्दु, मुस्लिम, सिख सड़कों पर गाते नजर आते. स्वर्गीय नारायण दत्त थपलियाल और दया सागर धस्माना ने तो बडे याकूब की शार्गिदी में ही खड़ी होली का प्ररवान चढ़ाया था. मुस्लिम आबादी के बीच चैधरात जहाँ सबसे पुरानी खड़ी होली जलायी जाती है, उसकी राख का टीका बडे याकूब अपने हिन्दु हुलैरों को लगाकर खड़ी होली का आगाज करते थे.
गढ़वाल में पहले रूद्रप्रयाग की बदैणों यातर होली की बैठकों में यहां आती रहती थी. आज उस जमाने के जो व्यक्ति जिंदा हैं वे बदैणों की होली को आज भी याद करते हैं. लेकिन जब से वातावरण में अश्लीलता व अभद्रता आनी शुरू हुई तब से बदैणां (तवायफ) ने होलियों में आना बन्द कर दिया.
एक समय ऐसा भी था, जब गढ़वाल की होली कुमाऊं से भी आगे बढ़ गई थी क्योंकि यहां के इस त्यौहार में जो शिष्टता व शालीनता थी, वह सर्वत्र प्रसिद्वि पा रही थी. किन्तु इस युग के अवसान के बाद एक वक्त ऐसा भी आया जब शहर पौड़ी की होलियों का रंग उड़ने लगा. पहले जैसा उत्साह लोगों में नजर नहीं आता. कुछ अन्तराल के बाद सन् 1995 से कुछ कोशिशों के बाद अजीत सिंह नेगी, दया सागर धस्माना, राय साहब, वीरेन्द्र कश्यप, गौरी शंकर थपलियाल के साथ नई पीढ़ी के नौजवानों ने होली की बैठकों में आना शुरु किया तो एक बार फिर पौड़ी की वादियों में होली के रंगों के साथ पुरखों की सांझी संस्कृति के स्वर भी गूँजने लगे. इन नये युवाओं में रियाज कुरैसी, अताउल्ला खान, फरीद अहमद, बडे़ याकूब के नाती जहीर आलम, खुन्नू भाई, आशुतोष नेगी आदि युवाओं के प्रयासों से पौड़ी का सांस्कृतिक गौरव लौटता हुआ दिखाई देता है. फिर तो सागर जी की पहली होली गढ़वाली भाषा में जगह-जगह सुनाई देने लगी.
फागुण मैना ओंद या होंरी,
उनि खेति कु च बगत भारी
होरी कनके खेल्यूँ मि द्यूरा …
गढ़वाली होली गीत समय की आवश्यकतानुसार लिखे और गाए गए अन्यथा अधिकतर गीत मथुरा, वृन्दाबन होरी के ही गीत यहां गाए जाते रहे हैं. जहां होली में जोश व उत्साह की बात आती है उसमे पौड़़ी शहर की होली की आपनी अलग पहचान ही इस सन्दर्भ में कुछ व्यक्तियों में खास तगमें लगे हुए है इनमें श्री कृष्ण चन्देल, वीरेन्द्र कश्यप, भगवान वर्मा, कृष्णा रावत, बिष्ट का नाट्य अभिनय सदैव याद किया जाता हैं. इनके बिना तो होली का रंग जमता ही नहीं.
गढ़वाल की होली के साथ ही उन नामों को स्मरण करें जिनमें सर्वश्री बड़े याकूब हुसैनी बौड़ा (ताऊ) विक्टर बोडा और उन व्यक्तियों को भी जिनके नाम विस्मृत हो रहे हैं. जिन्होंने कभी पौड़ी की होली की परम्परा को आगे बढ़ाया था. इस बीच पौड़ी के सांस्कृतिक जीवन से हबीब भाई भी चल बसे उनके चले जाने से शायरी और गायकी का एक यादगार चेहरा भी दुनियाँ से चला गया है. इस होली पर उनकी याद का आना भी होली रसिकों को रुला रहा है. गढ़वाल में बसन्त पंचमी से लेकर विषुवत संक्रांति तक चलने वाले थड्या, चैफला, गीतों में यहां का जनमानस डूबा रहता है. इसी अवधि में होली के गीतों की भी धूम सुनाई देने लगती है. अब तो मोहन रावत, अनिल बिष्ट, मनोज मंजुल और गौरी शंकर के नेतृत्व में होरी के हुल्यार बैठकों की तैयारी में जुट गये हैं. आनन्दी वर्मा और गोपा सजवान भी महिला होली की बैठकों के लिए ठौर तलाशने लगे हैं. इसी बीच कैसेटों के माध्यम से नरेन्द्र सिंह नेगी की गढ़वाली होली सुनाई दे रही है.
ऐगे फागुन मैंना खेला होरी
कैन रंगी चदरी अर केन
रंगीना धोती…
ऐगे फागुन मैंना खेला होरी
चमोली के रहने वाले डॉ. योगेश धस्माना कला, संस्कृति व इतिहास के जानकर हैं. सामजिक इतिहास पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.
‘उत्तराखण्ड होली के लोक रंग’ शेखर तिवारी द्वारा संपादित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है. चंद्रशेखर तिवारी काफल ट्री के नियमित सहयोगकर्ता हैं. उत्तराखण्ड की होली परम्परा (Traditional Holi) पर आधारित और समय साक्ष्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की रूपरेखा दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून द्वारा तैयार की गयी है. होली के इस मौसम में इस जरूरी किताब में से कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं को हम आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं. अनुमति देने के लिए हमारी टीम लेखक, सम्पादक, प्रकाशक व दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की आभारी है.
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बहुत सुंदर लेख, पौड़ी की होली का वर्णन पढ़कर बचपन की यादें ताज़ा हो गयी ,हम बच्चों में भी बहुत उत्साह होता था होली के त्योहार को लेकर,कई दिन पहले ही तैयारियां शुरू हो जाती थी ,गाना बजाना ,हंसी ठिठोली और सभी लोगों में परस्पर प्रेम भाव ,आज भी याद करकर मन आनंदित हो उठता है।