मानव के प्रदर्शन करने की भावना बहुत शक्तिशाली होती है. जीवन के इस नाटक में अपनी कला प्रदर्शन का अगर पर्याप्त अवसर नहीं मिलात है तो इसके परिणाम होते हैं, विमान अपहरण या सामूहिक हत्याकांड जैसी घटनाएं. कलाकार को ठीक बहाव एवं भाव मिले, इसके लिए यहां थियेटर हैं, म्यूजियम और ओपेरा हाऊस भी है. आकर्षण के भी सभी प्राचीन, एवं आधुनिक साधन यहां पर हैं. इतना सब होते हुए यहां प्रमुख आकर्षण हैं गंदोला.
हम तो गंदोला का आनन्द नहीं ले पाये. कारण कोई विशेष नहीं, दस हजार लोरा (लगभग सौ रूपये) एक घंटे के गंदोला में बैठने का किराया देने में असमर्थता थी. गंदोला आज मोटर बोट के युग में भी वही पुरानी मस्ती और शान से वेनिस के जल में झूमते हुए दिखाई पड़ते हैं. बनारस के बजरे या नैनीताल की नावें इनके सामने कुछ भी नहीं हैं. कश्मीर के शिकारे भी गंदोला का कोई खास मुकाबला नहीं कर पाते. नैनीताल की नाव वालों की तरह ही, गंदोला वालों को भी जाड़ों में बेरोजगार रहना पड़ता है. जाडों में वेनिस में नैनीताल से कई गुना अधिक सर्दी पड़ती है. यही कारण है कि गर्मियों में गंदोला के रेट काफी अधिक हो जाते हैं. सोलहवीं शताब्दी में लगभग दस हजार गंदोला वेनिस में थे, पर आज घटकर इनकी संख्या चार सौ के आसपास रह गयी है. कहते हैं कि आज से बीस वर्ष पूर्व एक गंदोला 5 लाख लीरा में बन जाती थी.
गंदोला खुद ही बहुत आकर्षक होते हैं और उतने ही आकर्षक होते हैं इसके एकाकी मल्लाह जिनमें मस्ती होती है. यही कारण है कि पश्चिम राष्ट्रों की विलासप्रिय स्त्रियां, वेनिस में महीनों गुजार देती हैं. अधिकांश अपना समय गंदोला में व्यतीत करती हैं और मल्लाहों पर धन और तन निछावर करती हैं. गंदोला उनके लिए सुख प्राप्त करने वाला प्रतीक बन गया.
वेनिस शहर की बनावट निराली है. छोटे-छोटे द्वीपों पर बसा होने के कारण आज भी यातायात के प्रमुख साधन नाव और मोटर बोट है. हालांकि पुलों द्वारा द्वीप कहीं-कहीं जुड़े हुए हैं और इन पुलों पर कारें भी देखी जा सकती हैं. लेकिन खास-खास रास्ते नहरों के ही हैं. वेनिस में गिरजे भी बहुत हैं तथा इनके अलावा ऐसी भव्य इमारतें हैं, जिन्हें मध्य युग में रईसों और सामन्तों ने बनाया था. पर आज ये सब इमारतें मरम्मत न हो पाने के कारण जीर्ण शीर्ण पड़ी हैं.
वेनिस में हमें दो पन्द्रह वर्षीय लड़कियां मिली, जो कि जैकलीन कैनेडी से बहुत प्रभावित दिखाई पड़ती थीं. उनकी जीन्स जेब में रखा सिगरेट का पैकेट उनके संस्कारों और विचारों का परिचय देने के लिए पर्याप्त था. बातों से पता लगा कि उन्हें जीवन में किसी चीज से परहेज नहीं है, क्योंकि जीवन में हर बात से अनुभव ही होता है. 15 वर्ष में इतना घुमक्कड़ हो जाना और विश्व यात्रा में निकल पड़ना हमारे लिए एक आश्चर्य की बात अवश्य थी पर उन दोनों के लिए महज एक शौक के अलावा कुछ भी नहीं था. हमसे पूछले लगे भारतीय लड़कियां किस उम्र में ‘डेटिंग’ करने लगती हैं. हमने बताया कि हमारे समाज में डेटिंग और वेटिंग एक अपवाद के रूप में ही चलती है. जब हमने उन्हें भारतीय युवक एवं युवतियों के व्यवहार में उनकी जाति, धर्म एवं आर्थिक स्थिति की गहन प्रभाव का वर्णन किया, तो वे लगभग चीख पड़ी और बोलीं, ‘हाऊ क्रेजी’ (कैसा पागलपन!)
योरोप के स्वच्छन्द वातावरण में
12 सितम्बर 1676 को हमने वेनिस से युगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड के लिए प्रस्थान करना था. युगोस्लाविया के विषय में राम मनोहर लोहिया ने इसे आंशिक रूप से समाजवादी बनने की चेष्टा करता हुआ एक कम्युनिष्ट देशा कहा था.,
हम लोग बेलग्रेड के लिए म्यूनिख (जर्मनी) से आती हुई ट्रेन का इन्तजार करते हुए वेनिस रेलवे स्टेशन पर घूम रहे थे. सुबह से ही वर्षा हो रही थी. वेनिस छोड़ने का मन भी नहीं कर रहा था. हम लोग कुछ और समय रहकर पश्चिम के आदर्श, दृष्टिकोण एवं विचारधारा को समझना चाहते थे. यहां के लोग समय को बहुत महत्व देते हैं, समय के पीछे भागना यहां पैसे के पीछे भागना समझा जाता है, यही यहां की भौतिकवादी सभ्यता की सफलता का रहस्य है. शिष्टाचार जितना पश्चिम में हमने देखा उतना पूर्व में नहीं पाया जाता है. बात-बात में क्षमा मांगना या धन्यवाद देना यहां के जीवन का अंग है. योरोप में मकान छोटे-छोटे पर सुन्दर हैं, हमारे पहाड़ी क्षेत्रों की तरह सिमेंट के कुरूप, महंगे और असुविधाजनक घर नहीं दिखाई देते. अपने घर भी लोग साफ रखते हैं तथा घर के आस-पास भी; यह नहीं कि घर का कूड़ा सड़क में फेंककर निश्चिन्त हो गये. रहना अगर योरोपियन लोगों से सीखा जाये तो इसमें कोई बुराई नहीं. पूर्व के जीने के तरीके भिन्न हैं पर इनमें कुछ सुधार की आवश्यकता है. पर यह कहना कि पश्चिम में सब कुछ ही महान एवं सर्वोत्तम है, एक प्राचीन पूर्वी सभ्यता को अपमान करना होगा. हर जाति ने दूसरी जाति की अच्छी बात को अपनाया और ऐसे ही संसार अधिक से अधिक सभ्य होता गया. पर आज हम देख रहे हैं कि पश्चिम की वेश-भूषा का ही हमारे देश में अनुकरण हो रहा है, इसके साथ-साथ दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं है. हम अपने जीवन के प्रति अधिका-अधिक रूचि लेने का अभ्यास करना चाहिए. अगर हम इन सुन्दर गुणों को पश्चिम से ले सकें तो ये हमारे देश के जीवन स्तर को आगे बढ़ाने में अवश्य सहायक होंगे.
ट्रेन नियत समय पर वेनिस स्टेशन पर पहुंची. हमें विदा करने वालों में केवल एक अफगानी लड़का था, जो कि अपने को अफगानिस्तान के भूतपूर्व राजा का पुत्र बतलाता था. उसके पिता अब रोम में राजनयिक शरण लेकर रहते हैं. उस लड़के को देखकर इतना अवश्य प्रतीत होता था कि इसका पालन-पोषण सम्पन्न घर में हुआ होगा. पर अब योरोप की बाजारू लड़कियों के चक्कर में पड़कर वह लगभग बरबाद हो चुका था. हम तीनों को ‘माई इण्डियन फ्रैन्ड कहकर सम्बोधित करता था. उसके कुछ दिन हमारे साथ अच्छे गुजरे थे, अतः उसे हमें छोड़ने पर अत्यधिक दुख था.
ट्रेन में मुसाफिर कोई विशेष नहीं थे. आराम से बैठने की जगह मिल गयी. हमारे डिब्बे में अधिकांश मुसाफिर इटली एवं युगोस्लाविया के सीमावर्ती क्षेत्रों के थे . युगोस्लाव यात्रियों में तो अधिकांश औरतें और ल ड़कियां थीं. युगोस्लाव औरतें और लड़कियों में पश्चिमी पूंजीवादी राष्ट्रों की उपभोग सामग्री, जैसे कपड़े, कॉस्मेटिक्स एवं इलेक्ट्रानिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आकर्षण है. शायद ये लोग यही तस्करी कर रही थीं. क्योंकि इनमें हर कोई ढेर सारे कपड़े पहने हुआ था. मैं देख रहा था कि इनमें नवयुवतियों सी लापरवाही न होकर एक अजीब सी तनावग्रस्तता दिखाई दे रही थी. बार-बार मेरी आंखे उनकी ओर जा रहीं थी, जो कि कोशिश कर रहा था कि उनकी ओर न देखूं.
ट्रेन की गति कुछ धीमी ही थी. वह छोटे-छोटे सुनसान स्टेशनों पर ररुकते हुए जा रही थी. इक्के-दुक्के यात्री ही उतरते या चढ़ते दिखाई दे रहे थे. भारतीय स्टेशनों की रौनक की यहां के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. पता भी नहीं चला कि कब युगोस्लाव चैकपोस्ट आ गयी. रात के लगभग 6 बजे थे जब युगोस्लाव पुलिस ने आकर हमारे पासपोर्ट देखे. भारतीय पासपोर्ट के जलवे देखने को मिले. एक मोहर लगी और पासपोर्ट वापस मिल गया. पर अमेरिकन और योरोपियन यात्रियों को पुलिस कार्यालय जाना पड़ा. हमारी गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का ही शायद यह लाभ हो. थोड़ी देर बाद ट्रेन फिर चलने लगी, अब हम साम्यवादी राष्ट्र की भूमि में यात्रा कर रहे थे. अजीब से विचार मस्तिष्क में आ रहे थे. साम्यवादी राष्ट्र कैसा होता होगा? वहां के लोगों का हमारे प्रति कैसा व्यवहार रहेगा, वेलग्रेड में कहां रहेंगे इत्यादि. ढेर सारे कपड़े पहने युवतियों को देखकर ध्यान भंग हुआ, अब वे धीरे से अपने अपने कपड़े उतार कर संभाल रही थी. रात के लगभग ११ बज चुके थे. हम अपने-अपने स्लीपिंग बैग निकालकर जहां कहीं जगह मिली सो गये.
सुबह जब आंखें खुली तो उजाला हो चुका था. ट्रेन युगोस्लाविया के हरे-भरे गांवों से होकर गुजर रही थी. बड़े-बड़े खेतों के बीच में कहीं-कहीं एक साथ कई मकान दिखाई दे रहे थे. आश्चर्य यह देखकर हो रहा था कि कहीं भी बच्चे, बूढ़े या जवान कोई भी नहीं दिखाई दे रहे थे. सुबह के साढ़े छः का समय हो चुका था हमारे भारतीय गांवों में तो अब तक काफी चहल-पहल हो चुकी होती है. यह सोचकर प्रसन्न्ता हुई, कि साम्यवाद में सोने की खूब छूट है.
थोड़ी देर बाद एक छोटे से स्टेशन पर ट्रेन रूकी. आश्चर्य हुआ जब लोगों ने यह बताया कि यही युगोस्लाविया की राजधानी वेलग्रेड है. बीस लाख आबादी का शहर, देश की राजधानी, पर रेलवे स्टेशन इतना साधारण, कोई भव्यता नहीं, अजीब सा लगा. सबसे अजीब तब लगा जब देखा कि नहाने के लिए स्नान गृह ही नहीं; टॉयलेट इतना गन्दा कि काफी देर तक सोचता रहा कि अब क्या करें, अन्त में स्टेशन पर खड़ी एक ट्रेन का उपयोग करना पड़ा इससे अधिक सुविधायें तो हमारे देश के स्टेशनों में उपलब्ध होती हैं.
ब्रेकफास्ट पर एक-एक हैमबर्गर तथा चाय पी. इटली की तुलना से खाद्य पदार्थ सस्ते थे. सामान रेलवे स्टेशन पर छोड़कर घूमने-फिरने निकल पड़े, धूप निकल आयी थी, समय सुहाना था. हम तीनों वेलग्रेड शहर एवं बाजार देखना चाहते थे. रेलवे स्टेशन निकलकर जैसे ही शहर की ओर दृष्टि लगाई ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे कि समय थम सा गया हो. द्वितीय महायुद्ध की हालीवुड फिल्मों में योरोप को जैसा दर्शाया जाता है, वही दृश्य मानस पटल पर आने लगे. बाजार, गलियां चारों और कोई चहल-पहल नहीं इक्के-दुक्के लोग दिखाई देते, किसी को देखकर लगता जैसे कोई दार्शनिक हो और किसी को देखकर हारे हुए जुआरी का आभास होता. एक दुकान पर स्वर्गीय नेहरू एवं मार्शल टीटो का टॅगा चित्र देख कर पहुंच गये. एक आधा सोया आधा जागा दुकानदार हमें देखकर चैंक सा गया, फिर संभलकर बोलने लगा, ‘इण्डियन, वैरीगुड! अवर फ्रैण्ड.’’ औपचारिकता निभाने को एक कष्टकारक कोल्ड ड्रिंक पीना पड़ा. रेडीमेड कपड़े की दुकान भी देखी, कपड़े साधारण होने पर भी महंगे बहुत थे. बाजार घूमकर बोरियत होने लगी, अतः मन बहलाने को वेलग्रेड के एक प्रसिद्ध पार्क में चले गये. यहां से वेसना और डेन्यूब नदी का मनोहारी दृश्य देखा. पार्क में पर्यटक कम, पुलिस के सिपाही अधिक दिखाई दे रहे थे. रोम की तरह पार्कों में ग्राहकों की तलाश में घूमती लड़कियां या प्यार में खोये लड़के नहीं दिखाई दे रहे थे.
इस्तानबूलः आधा योरोप आधा एशिया
योरोप के अधिकांशतः रेलों में हमारे देश की तरह भीड़ नहीं होती, पर आज म्यूनिख से आने वाली रेल में काफी लोग थे. एक नजर गयी तो देखा कि एक टर्किस महिला एक पूरा केबिन अपने तीन बच्चों के साथ घेरे हुए है. हमने शीघ्र उसी कैबिनमें जाना उचित समझा, महिला ने हमारी आशा के अनुरूप आक्रमक रूप ले लिया और कहने लगी कि वह हमारी खबर इस्तानबूल पहूंच कर लेगी. हम तीनों ने भी अस्तित्व के लिए संघर्ष करना काफी सीख लिया था. अतः जोर जबरदस्ती करके केबिन में प्रवेश कर ही लिया.
थोड़ी देर में रेल ब्रेलग्रेड स्टेशन से चल पड़ी और हमने उस महिला के बच्चों को एक-एक टाफी देकर अपनी ओर मिला लिया. हम यात्रा में बच्चों के लिए टाफी अवश्य रखते थे. थोड़ी देर में तीनों बच्चे हमसे घुलमिल गये, फिर माँ का मूड भी अच्छा हो गया, और वह बताने लगी कि उसका पति म्युनिख में काम करता है और स्वंय बच्चों का पढ़ाने के मिलिये इस्तानबूल में रहती है. हर वर्ष छुट्टियों में बच्चों को लेकर दो माह के लिए जर्मनी चली जाती है. हमारे देश की तरह टर्की के लाखों लोग योरोप के विभिन्न देशों में काम करके अपने देश को हर वर्ष अरबों रुपये की विदेषी मुद्रा भेजते हैं.
हम लोग युगोस्लाविया के ग्रामीण क्षेत्र से होकर गुजर रहे थे. छोटे-छोटे स्टेशनों पर रेल रुकती और युगोस्लाविया के ग्रामीण लोग दिखाई देते जिनकके सौन्दर्य, भोलेपन एवं सादे जीवन ने हमें काफी प्रभावित किया. हमारी रेल, नदी नालों को पार करते हुए चल रही थी. कभी कोई शहर आता तो कभी कोई गांव, कहीं लोग मछली का शिकार करने में व्यस्त दिखाई देते तो कहीं युवक युवतियों के जोड़े बैठे दिखाई देते. सचमुच प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य में जीवन की आपाधापी से दूर अपने प्रियजनों के बीच कुछ दिन व्यतीत करना कितना सुखद अनुभव होता है. वरना तो आधुनिक शहरी जीवन में मनुष्य कृत्रिमता, धनलिप्सा एवं एशोइशरत की अनुबुझी तृष्णा के पीछे इतना पागल हो चुका है कि उसके जीवन में सरलता, स्वाभाविकता, सुन्दरता और प्रकृति के प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं रहा.
दिन में हम लोग बुलगारिया पहुंचे. बुलगारिया भी एक साम्यवादी देश है. यहां के लिए भी भारतीयों को वीसा नहीं लेना होता है, चैक पोस्ट पर एक प्रवेश की मोहर के साथ सभी औपाचारिकतायें पूर्ण हो जाती हैं, पर हमारी तरह यह छूट पाकिस्तान के नागरिकों को प्राप्त नहीं है. इसी कारण एक भारतीय पासपोर्ट की कीमत पाकिस्तानी तस्करों के बीच सौ से लेकर डेढ़ सौ अमेरिकन डालर तक रहती है. इस्तानबूल में रह रहे भारतीय एवं पाकिस्तानी भाई लोग टर्की से बुलगारिया को रेडीमेड कपड़ों की तस्करी करते हैं. महीने में दो चक्कर लगा देने पर आराम से पांच हजार रूपये तक बन जाते हैं. इस तस्करी का कारण बुलगारिया के लोगों में विदेशी सामान के प्रति आकर्षण है.
सांयकाल हमारी रेल बुलगारिया की राजधानी सोफिया पहुंचने वाली थी. हम निर्णय ही नहीं ले पा रहे थे कि एक दो दिन यहाॅं रूका जाय सा सीधे टर्की के शहर इस्तानबूल की ओर बढ़ चले. सच्चाई यह थी कि हमारी शारीरिक स्थिति ऐसी हो चुकी थी कि हमें शीघ्र अच्छा भोजन एवं आराम, वह भी मानसिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार का चाहिए था. शारीरिक कमजोरी के कारण मानसिक तनाव रहता और हम तीनों बात-बात पर बहस करने लगते. पर यह झगड़ा छोटी मोटी बात को लेकर ही हो जाता और हम एक दूसरे को ‘तुम मूर्ख हो’, तुम्हारे पास सोचने समझने की शक्ति नहीं है.’’ इत्यादि वाक्य कह बैठते. हम तीनों में विशेष बात यह थी कि व्यक्तिगत मामलों में एक दूसरे के साथ उदारता बरतने की नीति हमने अपना रखी थी. यही कारण था कि हमारी पटरी आपस में अच्छी तरह बैठी रहती. वैचारिक मामलों में भी हम तीनों सभी विषयों में एकमत थे. मुझे इस बात का गर्व है कि राजा एवं योगेश जैसे असाधारण व्यंितव के साथी मुझे विश्वयात्रा करने के लिए मिले. हम तीनों इतने दिन साथ रहकर अब और भी अच्छी तरह एक दूसरे को समझने लगे हैं और प्यार करते हैं.
हल्का-हल्का अंधेरा होने लगा था जबकि हमारी रेल सोफिया के स्टेशन पर रूकी. रेल के डिब्बे से एक और प्लेटफार्म दिखाई दे रहा था तथा दूसरी ओर कारखानों की चिमनियां. स्टेशन पर घूम रहे बुलगारिया के नागरिकों एंव रेलवे प्लेटफार्म की भव्यता से बुलगारिया की सम्पन्नता का आभास हो रहा था. हम तीनों आपस में एक दूसरे से पूछ रहे थे कि क्या करना है. अन्तिम निर्णय यही लिया कि सीधे इस्तानबूल को ही चल दिया जाये. युगोस्लाविया में बेलग्रेड में बिताई रात का कटु अनुभव काफी था. साम्यवादी सरकारें शायद नहीं चाहती हैं कि हिप्पीनुमा हम जैसे पर्यटक उनके देशों में आयें और वहां के युवावर्ग को हम जैसे यात्रियों से मिलकर जीवन में घूमने की गलत प्रेरणा मिले. साम्यवादी सरकारें अपने देश के युवा वर्ग के सम्मुख संसार की कुछ और ही तस्वीर रखना चाहती हैं, जिससे वे साम्यवाद के प्रति निष्ठावान बने रहें.
सोफिया स्टेशन पर एक घण्टे के लगभग रेल रुकी और लोगों ने स्टेशन पर जाकर खाने का सामान खरीदा, पर हमारे खाने का प्रबन्ध टर्किस महिला के परिवार के साथ हो गया. अतः अपना पैसा खर्च नहीं हुआ. अब तक अंधेरा हो चुका था और हमारी रेल सोफिया स्टेशन से बहुत आगे आ चुकी थी. मैं खिड़की के पास बैठ कर योरोप से एशिया की ओर भागती उस ट्रेन को देखकर सोच रहा था, जैसे कि हम आधुनिक शहर से कस्बे की ओर चल जा रहे हैं. कभी विचार आता है कि हमारे देश का आर्थिक पक्ष भी इन देशों की तरह दृढ़ होता तो हमारे देश के युवक भी निश्चित होकर दुनिया भर में घूमते रहते और अपनी इच्छा के अनुरूप् अपना जीवन-यापन करते, हमारे देश में कोई अशिक्षित नहीं होता और न बेकारी होती! पर कैसी विडम्बना है कि हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित है और शिक्षित वर्ग बेरोगारी से इस कदर परेशान है कि उसके सोचने समझने की शक्ति लगभग सामप्त हो चुकी है. यह कठिन परिश्रम का काम नहीं करना चाहते पर दो सौ रूपये की कुर्सी में बैठने वाली नौकरी के पीछे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय बर्बाद कर देते. लेकिन शारीरिक मेहनत के व्यवसाय जिससे प्रतिमाह हजार-दो हजार कमाये जा सकते हैं, उसको नीची नजर से देखते हैं. जहां अच्छी नौकरी से तात्पर्य ऊपरी कमाई से होता है, जहां का युवावर्ग शिक्षा, नौकरी से लेकर विवाह तक के लिए अपने माता-पिता या भगवान के भरोसे बैठा रहता है. सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यहां वह जनता अपनी सरकार का चुनाव मतदान द्वारा करती है जिसका सिद्धांत है ‘कोउ नृप होई हमें का हानि.’
सोफिया के बाद एक रात और रेल में बिताने के बाद हम लोग टर्की की सीमा पर पहुंचे टर्की की सीमा पर सेना का काफी जमाव देखने को मिला क्योंकि इस साइप्रस के मुस्लिम और कसाइयों के मामले को लेकर टर्की और ग्रीस के बीच काफी तनाव था. अगर योरोप का मानचित्र देखें तो पायेंगे कि जिस स्थान पर बुलगारिया की सीमा टर्की को छूती है, वहीं पर ग्रीस की सीमा भी टर्की से मिलती है. सुबह के लगभग दस बजे का समय होगा. हम लोगों ने इस्तानबूल के उस भाग में प्रवेश किया जो कि योरोप में है.
(जारी)
पिछली क़िस्त का लिंक: नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा – 7
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1 Comments
Anonymous
बहुत बढ़िया वृतांत। इन लोगों के साहस और विश्वास को सलाम।