कुमाऊं का थल मेला न जाने कितने पहाड़ियों की स्मृतियों का हिस्सा होगा. रामगंगा नदी के किनारे लगने वाले इस मेले को जीने वाली एक पूरी पीढ़ी है जो आज देश और दुनिया के अलग-अलग कोनों में बस चुकी है. थल मेले का नाम लेते ही उनके चेहरे में रौनक आ जाती है.
(History of Thal Mela)
इन दिनों रामगंगा के तट पर चल रहे थल मेले के विषय में अखबारों में लिखा जा रहा है वैशाखी पर्व पर शुरु होने वाला थल मेला. कुछ अख़बार उसे स्वतंत्रता संग्राम से जोड़कर बता रहे हैं कि थल मेला 1940 से शुरू हुआ. कहानियां गढ़कर कहा जा रहा है कि 1940 में यहां जलियांवाला बाग़ हत्याकांड का प्रबल विरोध हुआ तभी से थल मेला हर साल लगता है. क्या वाकई थल मेला 1940 से शुरु हुआ.
अख़बारों में लिखी खबरों ने बिना संदर्भ यह खबरें छापी हैं. थल मेले का मुख्य केंद्र वहां स्थित बालेश्वर मंदिर रहा है. नागर शैली में निर्मित बालेश्वर मंदिर कुमाऊँ के प्राचीनतम देवालयों में एक है. मंदिर के विषय में स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कहा गया है –
बालीश्वरस्य देवस्य पाश्र्वे तीर्थोत्तमं शुभम
निमज्य मानवस्तत्र माघस्नानफलं लभेत
इसके अतिरिक्त कैलाश मानसरोवर यात्रा के दौरान बालेश्वर मंदिर को एक अतिमहत्वपूर्ण केंद्र के रूप में दर्ज किया गया है. स्थानीय लोगों द्वारा मेले में गाये जाने वाले झोडों से पता चलता है कि ब्रिटिश काल में मेले के दौरान अंग्रेज सेना भर्ती के लिये दौड़ भी आयोजित करते थे. पंडित बद्रीदत्त पांडे के अनुसार पहले ठुल थल का मेला चैत पूर्णिमा को लगता था फिर इसका आयोजन विषुवत संक्रांति को किया जाने लगा.
(History of Thal Mela)
यह बात पूरी तरह सही है कि कुमाऊं के अन्य मेलों के तरह थल मेला भी स्वतंत्रता आंदोलनकारियों के मिलने की एक जगह थी. ब्रिटिश काल में कुमाऊं के मेलों में स्वतंत्रता आंदोलनकारी मिलते और अपनी रणनीति बनाते थे क्योंकि भीड़ भरे इन मेलों में अंग्रेजों को चकमा देना बड़ा आसान रहता. स्वंत्रता आन्दोलन के दौर में कुमाऊं के मेलों में अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं घटी हैं.
(History of Thal Mela)
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