कहा जाता है कि प्राचीन महाकाव्य काल में उत्तराखंड का तराई -भाभर इलाका ऋषि मुनियों की तपोस्थली थी. सीतावनी में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम बताया गया. मान्यता है कि सीता माता ने यहीं अपना वनवास बिताया था. तदन्तर यह इलाका विदर्भ राजाओं के अधीन रहा जिनके पास अनगिनत पशु सम्पदा थी. पांडव भी यहाँ अज्ञातवास में रहे. अर्जुन के अकेले ही कौरव सेना को पराजित करने का प्रकरण भी इसी स्थल से जोड़ा जाता है. कौरवों ने जब विराट राज की गायों को हकाया- भगाया तो अर्जुन ने युद्ध में उन्हें पराजित कर तमाम पशु सुरक्षित विराट राजा को सौंप दिये. विराट राजा का सेनापति और विराट की रानी का भाई था कीचक जिसका वध महाबली भीमसेन ने तराई में किच्छा के समीप किया बताते हैं. History of Tarai Kumaon Uttarakhand
गुप्त काल में यहाँ कत्यूरियों का राज रहा. तब तराई खूब फली फूली. फिर गुप्त काल में होने वाली उठा-पटक से यहाँ त्राहि-त्राहि मची. प्रकृति का कोप रहा. ग्यारह सौ ईसवी तक यहाँ के चरागाह भी सिमटे और आबादी भी. तेरहवीं सदी में दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन शाह, बलबन और फिरोज शाह के आक्रमणों से यह इलाका त्रस्त रहा. मुग़ल काल में तराई उनके अधीन रही.
अकबर के समय में कुमाऊं में राजा रूद्र चंद का राज था. नागौर के खिलाफ मुगलों का साथ दे रहे राजा रूद्र चंद के पराक्रम से प्रसन्न हो अकबर ने तराई के चौरासी माल को राजा रूद्र चंद को दे दिया. इसे नौलखिया माल भी कहा गया. चंदवंश में लक्ष्मी चंद के बाद रूप चंद व फिर त्रिमल चंद का राज्य रहा. 1626 से 1638 तक उनके राज्य में तराई काफ़ी समृद्ध रहा. इससे अनेक राजा इसे कब्जाने की कोशिशों में लग गए. तब बाज बहादुर चंद ने मुग़ल सम्राट शाहजहाँ से करार किया.
मुरादाबाद के नवाब रुस्तम खां की मदद से बाजबहादुर चंद ने तराई को फिर से अपने दुश्मनों विशेष कर कटेहर हिन्दुओं को खदेड अपने कब्जे में कर लिया. बाजबहादुर चंद के उत्तराधिकारी कल्याण चंद के शासन में रुहेलों ने आक्रमण किया. मुगलों की मदद से रुहेले चौरासी माल से खदेड़ दिये गए पर सुबरना और बहेडी से न हटे. कल्याण चंद की असमय मृत्यु के समय उनका पुत्र छोटा ही था अतः शिवदेवजोशी ने उसके नाम शासन चलाया. काशीपुर और रुद्रपुर में किले बनाये गए जिससे रुहेलों पर निगरानी रहे. पर शिवदेव जोशी के निधन और दरबारी षड़यंत्र से तराई में रोहिलाओं का प्रभुत्व बढ़ता ही गया. यह दशा गोरखा राज में भी रही.
उन्नीसवीं शताब्दी में 1802 ई. में रुहेलखण्ड पर ब्रिटिश सरकार का कब्ज़ा हुआ तो उन्होंने तराई के इलाके को व्यापार के लिए मुफीद पाया. तब सीमांत से भोटिया व्यापारी तराई आ हाट बाजार लगाते थे. अंग्रेजों ने भी ऐसी ही कोशिश की जो अधिक फायदेमंद सिद्ध नहीं हुई. 1815 से कुमाऊं अंग्रेजों के कब्जे में आ गया था. 1818 से कमिश्नर ट्रेल ने तराई-भाभर में खेती बढ़ाने की कोशिश जारी कीं. सिंचाई सुविधाएं बढ़ाने पर जोर दिया गया. 1850 में सर हेनरी रामजे के कुमाऊं के असिस्टेंट कमिश्नर रहते कोसी नदी से नहर निकाली. सड़क, पुल और बंगले बने.
1856 में रामजे कमिश्नर बना. 1884 में सेवा निवृति होने तक तराई-भाभर इलाके में 137 मील लम्बी नहरें बन चुकीं थीं. रामजे की लगन से ही तराई में गाँव-गाँव कुएं खुदे, सड़कें बनीं. 1895 में नैनीताल जिले में तराई-भाभर के शासन को चलाने के लिए अलग डिप्टी कमिश्नर की नियुक्ति की गई तो सन 1900 से इसे खाम सुपरिटेंडेंट के हवाले कर दिया गया. अब तराई-भाभर एक प्रशासनिक इकाई के अधीन हो गया.
ई. टी एटकिंसन ने तराई के बारे में लिखा था कि यह इलाका लम्बी और संकरी पट्टी जैसा है जो पहाड़ियों की जड़ पर फैली है. ये डेढ़ सौ मील लंबी और करीब बीस मील चौड़ी है. इसके उत्तर में भाबर का इलाका है तो दक्षिण में पीलीभीत, बरेली, मुरादाबाद और रामपुर जिले हैं. इसके पूर्बी छोर पर शारदा नदी बहती है तो पश्चिमी किनारे बिजनौर जिला लग जाता है. History of Tarai Kumaon Uttarakhand
तराई की दलदली जमीन पर सदाबहार घास के मैदान रहे तो पतझड़ के वन भी. काली, सरयू, पूर्वी और पश्चिमी रामगंगा, गौला और कोसी नदी की घाटी पर हल्दू, सागौन, सैन, सेमल, तुन, धौरी, कुकाट, युकेलिप्टस, खैर, शीशम और साल के साथ अनेकों वृक्षों की प्रजातियां तो साथ में समशीतोष्ण कटिबंधीय चीड़ के जंगल भी. यहाँ की सदानीरा गौला, कोसी और काली नदियों के अलावा पश्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली फीका, बौर, भाकरा, नन्धौर, ढेला, दाबका और कामीन नाले छोटी बड़ी धाराओं से मिल लघु सरिताओं का जाल बिछाये शिवालिक पर्वत श्रेणियों से निकले हैं. भाबर से आए जल के साथ तराई के कामिन, सनिहा, लोहिया, देवहा, बाहुगुल और भाकर जैसे नाले मिलते हैं.
पहाड़ों की खूबसूरती और स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के सम्मोहन के साथ अंग्रेजों ने जब तराई में शीशम और सागौन के घने जंगल देखे तो उनकी व्यावसायिक बुद्धि ने इस सम्पदा के दोहन के लिए बुनियादी संरचना की शुरुवात करनी जरुरी समझी. तराई के इलाके में घने जंगल थे. तमाम किस्म के वन्य जीव यहाँ मौजूद थे.
आदमखोर बाघों की बढ़ती संख्या ने राजा, नवाबों, जमींदारों व कुलीन वर्ग के आखेट जैसे रोमांचक शौक को जिन्दा रखा था. तराई के अगल बगल की रियासतों के नवाब और राजे महराजे अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ अपने अस्त्र शस्त्रों से तराई के अरण्य प्रदेश में खूनी खेल खेलते. इस शौर्य प्रदर्शन के सबूत उनकी भव्य बैठकों की दीवारों में भुस भरे मुखौटों और चितकबरी खालों की रूप में टंगते जाते. तराई की बसासत को तेंदुओं और बाघों के आतंक का भी दंश भोगना पड़ा था. आदमखोर बाघों से जनता डरी सहमी रहती. तब जिम कॉर्बेट जैसे शिकारियों की यहाँ मौजूदगी ने इस स्थली को लगातार सुर्ख़ियों में बनाये रखा. उस पर सुल्ताना डाकू, भांतू डकैत की गतिविधियों से भी ये इलाका मशहूर हुआ. सुल्ताना तो दिलदार भी था अमीरों को लूटता गरीबों को नवाजता. फिर ये डाकू चाहे किसी भी इलाके में वारदात कर आयें पर उनकी शरणस्थली तो तराई ही थी.
आजादी के बाद फ्रंटियर के सिखों ने हाड़तोड़ मेहनत से यहाँ की धरती को सोना उगलने लायक बना ड़ाला. पैदावार बढ़ते रही, धन सम्पदा बढ़ी. खेती किसानी के रूप बदले. फार्म हाउस फैले. नई तकनीक, सुधरे बीज, महंगी खाद, कीटनाशक का बढ़ता प्रयोग तो बाद बाद में यही तराई आतंकवादियों का अड्डा भी बनी. History of Tarai Kumaon Uttarakhand
पहले जान माल का नुकसान यहाँ की दलदली जमीन में पनपते मच्छर से फैलता मलेरिया कर डालता था. किसी भी बीमारी के इलाज में थारू और बोक्साओं की परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां होती थीं जिनमें झाड़-फूंक, टोना-टुटका सब शामिल थे. सन 1918 में यहाँ भयावह इन्फ्लुएंजा फैला तो 1920 में हैज़ा. इन प्रकोपों के साथ डाकुओं का भय.
दूसरे विश्वयुद्ध के खतम होते छंटनी किये सशस्त्र सैनिकों को तराई में बसाने का विचार किया गया. भूतपूर्व सैनिकों को बसाने की योजनाएं बनीं. पर आजादी के बाद ही कालाढूंगी, काशीपुर और बाजपुर के इलाकों में बसाव संभव हो पाया. पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आए विस्थापितों को भी जमीन मिली. घने जंगल कटे, जमीन आबाद हुई. यहाँ के मूल निवासी थारू, बोक्सा की जमीनों पर भी बाहर से आए बनियों, बिचौलियों, आला हुक्मरानों और उनके राग दरबारियों ने हर किस्म के सब्ज बाग दिखा धन बल, बाहुबल से कब्ज़ा किया और जो मूल बाशिंदे थे वह खेती के मजदूर बन कर रह गए. यही हाल वनवासियों में गूजरों और गोठियों का हुआ. उनसे उनके जंगल छिने. दूध की बिक्री करने वाले बिचौलियों ने उनकी हिस्सेदारी हड़प ली.
तराई के जंगलों में जो बस्तियां हैं उन्हें खत्ते और गोठ कहा जाता है. इन्हें मुख्यतः घमतप्पुओं ने बसाया था. कुमाऊं के पहाड़ों की ठंड से बचने अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ के बारामंडल, पाली -पछाऊँ, काली कुमाऊँ और फल्दाकोट से तराई भाबर के घने जंगलों में अपने जानवरों के साथ अस्थायी रूप से बसने और दूध का कारबार कर रोजी-रोटी कमाने वाले ही घामतप्पू कहलाये जिनमें कुछ स्थायी तौर पर भी बस गए थे. ब्रिटिश काल में ‘एडवर्ड केवेंटर’ तथा ‘हेल्थ केमिकल्स’ जैसी दुग्ध डेरियाँ भी इन्हीं घाम तप्पुओं के खत्तों से दूध खरीदतीं थीं.
1969 में उत्तर प्रदेश सरकार के शासन आदेश में साफ कहा गया कि गोठियों का खत्ते की जमीन पर कोई अधिकार नहीं. वन विभाग ने भी यहाँ केंद्रीय तराई, पूर्वी और पश्चिमी तराई में फिरने वाले गुज्जरों को पक्के मकान बनाने की इजाजत नहीं दी. इसलिए वह अपने कच्चे आवास जिन्हें डेरा कहा जाता है, में रहते फिरते रहे. डेरे सामूहिक रूप से बसाये जाते. एक डेरे में पांच -सात से ज्यादा परिवार नहीं रहते. चारागाहों की कमी पड़ने और लगातार बढ़ते प्रतिबंधों से गूजरों की माली हालत भी दिनों दिन खराब होती चली गई.
तराई में थारू और बुक्सा आदिवासियों को 1967 में जनजाति घोषित कर दिया गया था. थारुओं का मानना है कि वह राजस्थान के सिसौदिया राजपूतों के वंशज हैं पर मानव विज्ञान विद इनकी शारीरिक बनावट और रक्त समूह के अध्ययन से इन्हें मंगोल वंश का बताते हैं. अब थारू ज्यादातर खटीमा और सितारगंज में रहते हैं. वहीं गदरपुर, काशीपुर, बाजपुर और रामनगर का बोक्सा -बहुल इलाका ‘बुक्सार’ कहलाता है. History of Tarai Kumaon Uttarakhand
बोक्सा भी स्वयं को राजस्थान के राजा जगतदेव के वंशज मानते हैं तो कुछ खुद को पंवार राजपूतों की संतति बताते हैं. कुछ अपने पूर्वजों को दक्षिण व दिल्ली से आया मानते हैं. मूलतः बुक्सा खेतिहर रहे. पहले जितनी जमीन को वह जोत लेते वह उनकी हो जाती. 1950 के दशक के आरम्भ में बोक्सा और थारुओं के पास करीब दो लाख पचास हज़ार हेक्टेयर की जोत थी जो अब तीस हज़ार हेक्टेयर से भी कम रह गई है. इसका मुख्य कारण था तराई की बीहड़ भौगोलिक परिस्थितियां जिससे यहाँ एक बंद समाज बना. जो सीधा सरल अपने माहौल में अलमस्त था और बाहरी आदमी से हमेशा ठगा गया.
पहले के राज ने इनकी सुध भले ही न ली हो पर इनकी परंपरा और रीति-रिवाजों से छेड़-छाड़ भी न की. ब्रिटिश राज में यहाँ के प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का जम कर विदोहन हुआ. ये सिमटते गए.
नियोजित विकास के पहले दौर में भी यहाँ की प्राथमिकताओं को तवज्जो न मिली. शिक्षा का अभाव था और उनका भोलापन बरकरार. नशे की आदत और डरपोक स्वभाव से उनकी काश्त का बाहर से आए दबंगों द्वारा बलात कब्ज़ा लिया जाना जारी रहा. फिर पर्व त्योहारों, शादी बारात में भी शाहदिली से खर्च करना यहाँ के मूल निवासियों की फितरत में शामिल था जिससे धीरे-धीरे ये उधार के जाल में फंसते रहे.
उत्तर प्रदेश शासन ने 1975 में भूमिहीन खेतिहर मजदूर ऋण मुक्ति अधिनियम लागू तो किया जिससे तहत भूमिहीन खेतिहर मजदूर और अनुसूचित जनजातियां गैर कानूनी उधार के चंगुल से बच सकें. पर शासन के इस फरमान से उन्हें कोई लाभ न मिल सका क्योंकि अभिलेखों में वह भूमिहीन नहीं बल्कि काफ़ी अधिक जमीन के मालिक बने रहे थे. फिर सरकार ने उनके लिए ऋण सहकारी समितियों की स्थापना भी की. पर मुख्य धारा से कटे रहने के कारण यह इन योजनाओं का फायदा लेने में असफल ही रहे.
तराई में वनों का अवांछित विदोहन अवैध कटान तो हुआ ही, औद्योगिक विकास के क्रम में नये कारखाने भी लगे. नई बसासत फैली. जमीन के भाव बढ़ते रहे. खाद्यान्न उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी हुई. औद्योगिक आस्थानों में कच्चे माल के आने से तैयार माल के जाने के सिलसिले में जो चकाचोंध पैदा होती है वह पूरे तनाव दबाव कसाव के साथ तराई में मौजूद हैं. History of Tarai Kumaon Uttarakhand
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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