पिथौरागढ़ में रामलीला सन 1897 से लगातार हो रही है. भीमताल के देवीदत्त मकड़िया को यहां रामलीला शुरू कराने का श्रेय जाता है. वे सोर के परगनाधिकारी मंडलाधीश कहलाते थे.
शुरुआत में एक कामचलाऊ रामलीला कमेटी बनाई गयी. चिटगल-गंगोलीहाट के केशव दत्त पंत इसके प्रबंधक बनाये गए. 1923 से चौधरी कुंदन लाल गुप्ता इसके प्रबंधक हुये. कृष्णानन्द उप्रेती, और चौधरी गोविन्द लाल गुप्ता प्रबंध में उनके प्रमुख सहयोगी थे.
प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के वर्षों में रामलीला मंचन में दिक्कत आई क्योंकि पिथौरागढ़ क्षेत्र औसतन सभी परिवारों से एक न एक व्यक्ति ने इन युद्धों में भाग लिया था. इसके बाद भी यहां रामलीला के आयोजन की निरंतरता कभी बाधित नहीं हुई.
पिथौरागढ़ की रामलीला में हारमोनियम का प्रयोग बहुत बाद में शुरू हुआ. रामलीला कमेटी के पास अपना हारमोनियम और तबले की जोड़ी तो पचास के दशक तक भी नहीं थी. शुरुआत में तबले की संगत के साथ सारंगी प्रमुख वाद्य हुआ करती.
रामलीला के प्रारंभिक वर्षों में अहमद बख्श सितार पर संगत किया करते. वे पेशावर से आये थे और प्रख्यात शिक्षक हैदर बख्श के दादा थे. पिथौरागढ की रामलीला में हामोनियम का पहली बार प्रयोग 1921 में हुआ. इन्तिया राम पहले हारमोनियम मास्टर बने, इस दौर में तबले में संगत के लिये गल्लिया उस्ताद और रक्ती राम आये. ये स्थानीय मिरासी परिवारों से थे. बाद में चिरंजीलाल हारमोनियम बजाने लगे. उस्ताद इन्तिया अपनी सारंगी के साथ लगभग मृत्युपर्यन्त रामलीला से जुड़े रहे.
1925 से 1987 तक चौधरी गोविन्द लाल गुप्ता ने रामलीला कमेटी के प्रबंधन का पदभार संभाला. उनका कार्यकाल पिथौरागढ़ की रामलीला का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है.
यह लेख पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक में छपे महेंद्र सिंह मटियानी के लेख का अंश है. काफल ट्री ने पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से यह लेख साभार लिया है.
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