बचपन से भवाली के ताजमहल के नाम से जाने जाने वाली राजपुताना राजघराने की एक धारोहर के बारे में जानने की मेरी हार्दिक इच्छा रही है. दोस्तों के साथ खाली समय में शाम के वक्त वहाँ जाना और उसके मध्य में राजस्थानी भाषा में लिखे शिलालेख को पढ़ने की कोशिश करना मेरे लिये एक कौतूहल का विषय रहा है. शिलालेख भले ही देवनागरी में लिखा था पर उसको पढ़ना और समझना उस समय मेरे बस से बाहर था. 2015 में पहली बार मैने इस इमारत के विवरण को अपनी फेसबुक पोस्ट पर साझा किया था.
(History of Lalli Mandir Bhowali)
लल्ली कबर, लल्ली मंदिर, लल्ली छतरी नाम से जाने वाली भवाली की यह धारोहर असल में बीकानेर के राठौर वंश के राजघराने की महाराजकुमारी श्री चन्दकंवरजी बैसा साहिब (पुत्री राणावतीजी महारानी) की याद में बनाई गयी है, जिनका जन्म 1 जुलाई 1899 को जूनागढ़ बीकानेर में हुआ और मृत्यु मात्र सोलह वर्ष की आयु में भवाली सेनेटोरियम में 31 जुलाई 1915 को हुई. यह स्मारक असल में सोलह वर्षीय महाराजकुमारी (लल्ली) की समाधि है. महाराजकुमारी लल्ली जनरल हिज हाईनेस राज राजेश्वर महाराजाधिराज नरेन्द्र महाराजाशिरोमणि सर गंगा सिंह बहादुर, महाराजा औफ बीकानेर की पुत्री थी.
महाराजा गंगा सिंह जी की लल्ली की माताजी राणावतीजी महारानी के अलावा दो और शादियाँ थी. लल्ली की माँ महारानी राणावतीजीश्री वल्लभ कुंवरजी साहिब प्रतापगढ़ के महाराजा सर रघुनाथ सिंह बहादुर की बेटी थी. महाराजा गंगा सिंह जी की दूसरी शादी तंवरजी महारानी साहिब बीकानेर राज्य के संवतसर के ठाकुर श्री सुल्तान सिंह की बेटी और तीसरी शादी भटियांजी महारानीश्री अजब कंवरजी साहिब, मारवाड़ के बीकमकोर के ठाकुर श्री बहादुर सिंह की पुत्री से हुई थी.
महाराजा के तीनो महारानियों से चार पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई थीं. पहले बेटे राणावतीजी महारानी जी से जन्मे और पैदा होने के साथ ही अल्पमृत्यु को प्राप्त हुए. दूसरे बेटे भी राणावतीजी महारानी जी से जन्मे श्री राज राजेश्वर महाराजाधिराज नरेंद्र महाराजा शिरोमणि सर सादुल सिंह बहादुर, बीकानेर के प्रतापी महाराजा बने. तीसरे बेटे भटियांजी महारानी से जन्मे छतरगढ़ के कैप्टन महाराज श्री बिजय सिंहजी बहादुर थे. और चौथे बेटे भटियांजी महारानी से जन्मे महाराजकुमार श्री वीर सिंहजी बहादुर थे. राणावतीजी महारानी जी से जन्मी महाराजा गंगा सिहं जी की पहली पुत्री महाराजकुमारी श्री चंद कंवरजी बाईसा साहिब ही लल्ली थीं. उनकी दूसरी पुत्री भटियाणी महारानी से जन्मी महाराजकुमारीश्री शिव कंवरजी बाईसा साहिब थी जो की बाद में कोटा की महारानी व राजमाता बनीं. बीकानेर राज्य के शाही राजपूत परिवार में सन 1880 में जन्में सर गंगा सिंह महाराज श्री लाल सिंह साहिब और उनकी पत्नी माजीश्री चंद्रावतजी साहिबा के पुत्र थे. उन्होनें अपनी प्रारंभिक शिक्षा पंडित राम चंद्र दूबे जी से प्राप्त की. व्यक्तिगत रूप से मेयो कॉलेज, अजमेर में शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त सर ब्रायन एगर्टन द्वारा उन्हें प्रशासनिक प्रशिक्षण राजमहल में ही प्रदान किया गया. सैन्य प्रशिक्षण के लिए, 1898 देवली रेजिमेंट में शामिल हुए और बॉक्सर विद्रोह (1900) के दौरान चीन और प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, बीकानेर कैमल कॉर्प्स की कमान संभालते हुए फ्रांस, मिस्र और फिलिस्तीन में सेवाऐं दी. एक शासक के रूप में, उन्होंने बीकानेर में एक मुख्य न्यायालय की स्थापना की, कर्मचारियों के लाभ के लिए एक जीवन बीमा और बंदोबस्ती आश्वासन योजना शुरू की, और कानून के माध्यम से शारदा अधिनियम पेश कर बाल विवाह पर रोक लगाई. एक प्रसिद्ध भारतीय फ्रीमेसन होने के साथ साथ, महाराजा गंगा सिंह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संरक्षक और श्री भारत धर्म महामंडल, ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के उपाध्यक्ष, भारतीय जिमखाना क्लब के सदस्य और मेयो और डेली कॉलेजों, इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट, इंडियन सोसाइटी-लंदन, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी और भारतीय रेड क्रॉस सोसाइटी के पहले सदस्य थे. राजस्थान के श्री गंगानगर शहर की स्थापना का श्रेय भी महाराजा गंगा सिंह जी को ही जाता है. उनके बारे में अधिक विवरण इस विकिपीडिया लिंक से प्राप्त किया जा सकता है. यूट्यूब पर उपलब्ध एक रोचक वीडियो भी उनकी वीरगाथाओं का बखान करता है.
(History of Lalli Mandir Bhowali)
पिता व पुत्री की प्यार की यह निशानी हमारे बचपन के किस्से कहानियों में काफी चर्चित रही है. आमा बूबू बताते थे कि किसी बीकानेर के राजघराने के एक राजा की बेटी की यह स्मारक स्थली है, जिसकी मृत्यु अल्पआयु में हो गयी थी. राजा की इस पुत्री के बारे में हमें बचपन में कोई अंदाज नहीं था. लल्ली नाम से हम यही अंदाज लगाते थे कि वह एक छोटी बच्ची रही होगी हमारे जितनी.
लल्ली महाराजरानी चंदकंवर बैसा की सुंदर तस्वीरें बचपन के इस रहस्य से अब पर्दा उठा रही हैं. महाराज गंगासिहं जी की लल्ली के साथ खींची गई तस्वीरें इस बात की द्योतक है कि वो अपनी पुत्री को कितना प्यार किया करते थे. उस समय के पुरुष प्रधान समाज में किस तरह से उन्होनें लल्ली को महल के अंदर व बाहर लोगों से मिलवाया और उसका मानवर्धन किया यह सब इन तस्वीरों से उजागर होता है. दु:ख की बात यह है कि लल्ली केवल सोलह वर्ष की उम्र में ही महाराजा गंगा सिंह जी को छोड़ कर चली गयी. महाराजा गंगा सिंह बाल विवाह प्रथा के प्रखर विरोधी रहे जिससे कदापि लल्ली सोलह वर्ष की अवस्था तक अविवाहित रही. अन्यथा लल्ली का विवाह उनकी उम्र के मुताबिक उस समय हो ही चुका होता. महाराजा गंगा सिंह जी बहुत ही दूरदर्शी शाशक रहे. लल्ली अगर होती तो वह भी अपनी उच्चकोटि की परिवरिश व राजपरम्परा के चलते एक बहुत अच्छे स्तर की महारानी व राजमाता के रूप में उभर कर आगे आती. खैर ये सब कयास तो अब निरर्थक ही हैं. यह ही शेष है कि भवाली व आसपास के लोगों को लल्ली की कहानी और महाराजा गंगासिंह का प्यार व दुलार बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ से भी ऊपरी स्तर का उदाहरण व आत्मिक संदेश प्रदान करता है. उस समय लल्ली मंदिर एक चारदीवारी से घिरे हुए सुंदर परिसर में स्थित था. भीमताल रोड पर बने एक लकड़ी के गेट से कुल 20-30 सीढ़ियाँ उतर कर उस तक पहुँचा जा सकता था. चार पाँच फिट चौड़े मार्ग में रोड़ियाँ बिछी हुई थी और दोनों ओर फूल की क्याँरियाँ बनी हुई थी जिनमें सुंदर फूल लगे रहते थे. बांकी जमीन में आलू, मक्के, व गेहूँ आदि की खेती की जाती थी. मंदिर के ऊपर एक 2-3 फुट ऊँचा सुनहरा कलश लगा था.
क्षेत्रीय लोगों में मान्यता थी कि मंदिर का कलश सोने का बना हुआ है. इसी भ्रम के चलते एक बार चोरों नें कलश को काटकर चुरा लिया था. बाद में पुन: एक नया कलश बनाकर इसके उपर स्थापित किया गया. इस स्थान की चौकीदारी शूरसिंह माली नामक एक व्यक्ति किया करते थे जिनका हमारे आमा बूबू से मिलना-जुलना लगा रहता था. वो रानीखेत के पास कफड़ा से ताल्लुक रखते थे और उनकी चार पुत्रियाँ और एक पुत्र हुआ करते थे. उनकी पत्नि को हम आमा कहते थे और उनकी आज्ञा लेकर परिसर में यदा-कदा घुस जाया करते थे. उस समय राजघराने से परिसर के रखरखाव के लिये पैसा आया करता था. शूरसिंह माली जी की मृत्यु व राजघराने की उदासीनता के बाद यह परिसर अतिक्रमण का शिकार हो गया. भवाली का यह ताजमहल आज भी जस का तस है परंतु यह अब फुलवारियों की बजाय कंक्रीट के जंगलों से घिर गया है. लल्लीमंदिर परिसर में आज अनेकाअनेक मकान बन चुके हैं. राहत की बात यह है कि लल्ली का नाम आज भी उस जगह पर गूंजता है. लल्लीमंदिर को भले ही लोग जानते हों या नहीं लल्ली मंदिर परिसर लोगों के पते में अपना स्थान बना चुका है.
(History of Lalli Mandir Bhowali)
प्रोफेसर राकेश बेलवाल, सोहार विश्वविद्यालय, सल्तनेत औफ ओमान में कार्यरत हैं. मूल रूप से कुमाऊं के रहने वाले राकेश बेलवाल से उनकी ईमेल आईडी [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.
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