ब्रिटिश शासन के दौरान ही भवाली के पास नैनीताल-हल्द्वानी रोड पर लगभग एक किमी की दूरी पर वर्ष 1912 में भवाली सेनेटोरियम की स्थापना किंग जॉर्ज एडवार्ड सप्तम के कार्यकाल में हुई. समुद्रतल से 1680 मीटर की ऊॅचाई पर बसा यह कस्बा शुद्ध जलवायु के साथ चीड़ के जंगलों से छनकर आने वाली हवा क्षय रोगियों के लिए मुफीद मानते हुए, इसकी स्थापना की गयी. सेनेटोरियम के बहाने भवाली को न केवल पहचान मिली बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू की पत्नी स्व. कमला नेहरू भी क्षयरोग से ग्रसित होने पर यहां भर्ती हुई.
(History of Bhowali)
पं. नेहरू जो उस समय नैनी जेल में कैद थे, पत्नी की देखरेख के लिए उन्हें अल्मोड़ा जेल स्थानान्तरित किया गया. पं. नेहरू कई बार कमला नेहरू का हाल जानने यहां आया करते थे. बताते है कि सुभाषचन्द्र बोस भी जब क्षयरोग से ग्रसित हुए तो चिकित्सकों ने उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए पहाड़ी क्षेत्र में प्रवास करने की सलाह दी. इसी सिलसिले में वे सेनेटोरियम आये, लेकिन उस समय टीबी की कोई दवा ईजाद नहीं हुई थी इसलिए बाद में वे उपचार के लिए बाहर चले गये.
भवाली सेनेटोरियम में क्षयरोग के उपचार हेतु आने वाले देश के प्रमुख व्यक्तियों में क्रान्तिकारी एवं साहित्यकार यशपाल, ख्यातिप्राप्त गायक कुन्दन लाल सहगल, खिलाफत आन्दोलन के नेता मोहम्मद अली व शौकत अली, उ.प्र. के मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द की धर्मपत्नी तथा क्रान्तिकारी नेता गया प्रसाद शुक्ल का नाम भी आता है.
बात भवाली सेनेटोरियम की हो रही हो तो यहां के चर्चित डॉ. प्रेम लाल साह व डॉ. खजान चन्द का जिक्र आना स्वाभाविक है. डॉ. प्रेम लाल साह, भवाली सेनेटोरियम के एक योग्य चिकित्सक रहे, जिन्होंने कमला नेहरू का भी उपचार किया. भवाली बाजार में उनका अपना क्लीनिक भी हुआ करता था. बुजुर्गों से उनकी काबिलियत के चर्चे भी खूब सुने लेकिन आज वह पीढ़ी रही नही, जिन्होंने डॉ. प्रेम लाल साह का दीदार किया हो. भवाली बाजार में जिस भवन में वर्तमान में गांधी आश्रम है, वह डॉ. प्रेम लाल साह जी का ही भवन है. बताते है कि इस भवन का उद्घाटन महात्मा गांधी ने ताला खोलकर किया था.
बाद के वर्षों में भवाली तिराहे से गांधी कालोनी की ओर चढ़ती रोड के किनारे कैंची के राम दत्त तिवारी ने भी यहां अपना भवन बनाया, जिसमें कई वर्षों तक स्टेट बैंक की शाखा का संचालन भी होता रहा. पिछले 5-7 वर्षों से स्टेट बैंक की यह शाखा मल्ली बाजार में स्थानान्तरित कर दी गयी. तब भवाली कस्बे में कुंवर राम जी का ट्रक व राम दत्त तिवारी जी का ट्रक नं. 2511 ही स्थानीय माल ढोने के काम में लिये जाते. उस दौर में उ.प्र. रोडवेज तथा केएमओ के भी ट्रक हुआ करते इस कारण प्राइवेट ट्रक गिने चुने थे.
साठ के दशक तक भवाली बाजार गांव-देहात का एक छोटा कस्बा हुआ करता था. चौराहे से भीमताल की ओर जाने वाली सड़क के दाईं ओर किशोरी लाल गोबिन्द लाल साह की दुकान, जबकि उसके ठीक सामने बाई ओर, जहां आज अस्थाई फड़ बन चुके हैं, रामगढ़ तथा भीमताल की ओर जाने वाली गाड़ियां यात्रियों की प्रतीक्षा में खडी़ रहती, फिर भी सड़क खुली-खुली लगती.
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चौराहे के पास ही वंशी लाल कंसल (वंशी लाला) की मिठाई की दुकान से लगती हीरा बल्लभ काण्डपाल का रैस्टोरंट था, उसी के एक कोने में पान की दुकान भी वह स्वयं देखते. कभी गरमागरम बहसों का केन्द्र रहा, यह रेस्टोरेंट भवन की जीर्ण-शीर्ण अवस्था के चलते बन्द हो चुका है. जोशी पुस्तक भण्डार तथा गिरीश तिवाड़ी का तिवारी बुक डिपो मात्र ही छात्रों की पाठ्य पुस्तकों व स्टेशनरी का स्थान हुआ करता. कुछ समय जोशी पुस्तक भण्डार के दुमंजिले में भी स्कूलों की किताबें मिला करती थी.
किशोरी लाल गोविन्द लाल साह की फर्म बहुत पुरानी थी, जिसमें एक हिस्से में परचून की दुकान व दूसरे दर में आढ़त हुआ करती. जहां तक मुझे याद है भवाली कस्बे में तब कुल चार आढ़तें थी: गोंबिन्द लाल साह, बहादुर सिंह अधिकारी, पान सिंह नेगी तथा हरिदत्त सनवाल. हरिदत्त सनवाल तथा उनके पुत्रों पूरन सनवाल तथा महेश सनवाल ने कुछ वर्षों तक रामलीला में क्रमशः दशरथ, राम एवं लक्ष्मण का दमदार किरदार निभाया था. परचून की दुकानों में गोबिन्द लाल साह के अलावा, स्टशेन के पास नारंग जी की ’पंजाबी की दुकान’ कहलाती तथा मल्ली बाजार में पढालनी तथा पूरन चन्द्र बिनवाल की परचून की दुकानें मुख्य थी. इसके अलावा तारादत्त जोशी, लक्ष्मीदत्त जोशी तथा उछप सिंह की भी परचून की दुकानें हुआ करती थी.
वर्तमान आनन्द मिष्ठान्न भण्डार के आगे राम सिंह नाई के बाजू में रेवाधर पन्त जी का खाने का होटल था जो निगलाट के मूल निवासी थे. गोलज्यू के डंगरिये के रूप में भी उनका अच्छा सम्मान था. वर्तमान में जहां आनन्द मिष्ठान्न भण्डार है, इनकी पुश्तैनी दुकान तब ये नहीं थी, बल्कि वर्तमान आनन्द एम्पोरियम वाली दुकान में आनन्द बल्लभ हलवाई की दुकान हुआ करती, इस दुकान को कोई फर्म का नाम नहीं दिया गया था, बल्कि आनन्द बल्लभ बेलवाल की हलवाई की दुकान से ही चर्चित थी.
जहां तक मेरी स्मृति में है, सुर्ख लाल चेहरा, काली-सफेद खिचड़ी लम्बी मूछों के साथ धोती व कुर्ता पहने अपनी गद्दी पर बैठकर कभी जलेबी बनाते तो कभी मावा घोटते हुए सामने पड़ी बैंच पर बैठे लोंगो से बतियाते रहते. दम लगाने के शौकीन लोगों को भी यहां चिलम फूंकते देखा जा सकता था.
पीछे की ओर एक लकड़ी की शीशे लगी आलमारी होती, शीशों के पार धुऐं से काले हुए शीशों के अन्दर कलाकन्द आदि मिठाईयां बाहर झांकती. मिठाई के लिए तब डिब्बों का चलन नहीं था. कम मात्रा में जलेबी अथवा मिठाई मालू के पत्तों पर दी जाती, जबकि ज्यादा मात्रा के लिए बांस पेपर की थैलियों का इस्तेमाल होता. मालू के पत्तों का यद्यपि अपना कोई स्वाद नहीं होता, लेकिन इन पत्तों में मिठाई का स्वाद ज्यादा बढ़ जाता. मालू के पत्तों पर गिरे बख्खर को चाटने का एक अलग ही मजा था. शुद्धता के लिहाज से भी मालू के पत्तों का कोई जवाब नहीं.
मिठाई की दुकानों में दो अन्य दुकानें थी, कुंवर सिंह बिष्ट तथा देवी मन्दिर के आगे भवानी दत्त हलवाई. भवानी दत्त हलवाई के मलाई के लड्डू प्रसिद्ध थे. जब भवाली की मिठाइयों की चर्चा हो तो यहां की आलू की लौज को कैसे भुलाया जा सकता है. दरअसल आलू की लौज भवाली की बेजोड़ मिठाई है, जो अन्य शहरों में नहीं बनती. कभी भवाली आयें तो यहां की आलू की लौज का रसास्वादन करने से न चूकें तथा अपने परिचितों के लिए भवाली की यह विशिष्ट सौगात अवश्य साथ ले जायें.
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टीकाराम भट्ट पंसारी की दुकान चलाया करते और साथ ही वैद्यकी का काम भी करते थे. पकाने वाली घुट्टी का क्वाथ उनकी दुकान से हमने भी बचपन में खूब पिया था. उनके सुपुत्र के.सी. भट्ट जी हमारे शिक्षक भी हुआ करते. अब यह दुकान उनके ही नाती संचालित कर रहे हैं. मल्ली बाजार बाजार को निकलने वाली रोड के चढ़ाई में वर्तमान में डूंगर सिंह अधिकारी के रैस्टोरेन्ट के दुमंजिले में गौरीदत्त काण्डपाल जी भी पण्डिताई के साथ ही वैद्यकी का काम भी करते थे.
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तब आज की तरह रेडीमेड कपड़ों का चलन कम था, कपड़ा खरीदकर कर ही सिलवाया जाता था. मोहन चन्द्र भट्ट, मल्ली बाजार में पढालनी तथा मुख्य बाजार में नजीर अहमद की कपड़े की दुकानें मुख्यतः हुआ करती. मोहन चन्द्र भट्ट जी की सस्ते गल्ले की दुकान भी थी, जिसको जहां तक मुझे स्मरण है, मोतीराम जी देखते थे.
1965-66 के दौरान जब अकाल पड़ा था तो सस्ते गल्ले की दुकान में लम्बी-लम्बी लाइनें लगा करती. उस समय बाहरी देशों से आयातित माइका नाम से मोटा अनाज भी सस्ते गल्ले की दुकानों में बिकता था. मोहन चन्द्र भट्ट के पिता गंगा दत्त भट्ट, शिवदत्त भट्ट तथा केशवदत्त भट्ट कस्बे के सम्पन्न परिवारों में थे. केशव दत्त भट्ट का परिवार तो निगलाट के ऊपर गैरखान में रहता था, जहां उनके भतीजे पीताम्बर भट्ट व वकील हेमचन्द्र भट्ट आदि के भी बगीचे थे, जब कि शिवदत्त भट्ट का परिवार जी.बी. पन्त इन्टरकालेज वाली पहाड़ी पर रहता तथा गंगा दत्त भट्ट का परिवार मुख्य बाजार में रहता था. भट्ट परिवार के पास भवाली कस्बे में बहुत सारी सम्पत्ति थी. पोस्ट आफिस भवन तथा वह भवन जिसमें पहले अस्पताल संचालित होता था, उससे लगी भूमि, मल्ली बाजार में काली मन्दिर के नीचे गधेरे से लगी भूमि एवं डीवीटो स्कूल के नीचे भवन व भूमि भट्ट परिवारों की ही थी.
इसके अलावा लोकमान भगत तथा उनके परिवार के पास भी भवाली कस्बे में भू-सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा था. साठ अथवा सत्तर के दशक में भगत जी की भूमि पर ही एक अस्थाई सिनेमाहाल का भी संचालन किया गया था, लेकिन दर्शकों की कमी के चलते बाद में इसे बन्द कर दिया गया.
हाफिज एण्ड को भी कभी भवाली की मशहूर दुकान हुआ करती. जूते चप्पलों के अलावा घर के उपयोग की हर जिन्स इस दुकान में उपलब्ध रहते. वर्तमान में सैलेक्शन प्वाइन्ट व शू स्टोर उसी जगह पर बना है लेकिन तब यह एक छोटी सी टिनशेड में बनी दुकान थी.
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अनारगली में राम लाल टेलर के ठीक सामने बेकरी हुआ करती, जो अपनी खुशबू से पूरी गली की महकाये रहती. लगभग 9 इंच लम्बे रस, बन के आकार के बड़े खस्ते, पफ तथा जोड़ी वाले व नॉनखटाई बिस्कुट विशेष हुआ करते. इसी तरह की एक बेकरी रानीखेत रोड में दूध डेयरी के पास पुल के उस पार हुआ करती थी.
भवाली का पौराणिक देवी मन्दिर जो लगभग 100 साल पुराना माना जाता है, आज की तरह भव्य रूप में नहीं था. एक बहुत ही छोटे आकार में देवी मां का मन्दिर हुआ करता था. समय प्रवाह में आज न केवल मन्दिर परिसर में कई मन्दिरों का निर्माण हो चुका है, मां भगवती के अलावा भगवान शिव, हनुमान जी, राधा-कृष्ण, माँ काली, बटुकभैरव के अलावा मन्दिर के बाहर भगवान गणेश का मन्दिर की स्थापना हो चुकी है. प्रमुख पर्व एवं त्योहारों पर भक्तों का तांता यहां लगा रहता है.
पिछले कुछ वर्षों से जो नैनीताल के नन्दादेवी महोत्सव की तर्ज पर भवाली में भी 3-4 दिन का नन्दा देवी उत्सव आयोजित किया जाता है तथा सांस्कृतिक मंच पर नन्दा देवी समिति की ओर से भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं तथा समीपस्थ विभिन्न विद्यालयों के बीच लोकगीत, लोकनृत्यों की प्रतियोगिताऐं आयोजित हो रही हैं.
मन्दिर के मुख्य द्वार के ठीक सामने एक रास्ता निकलता है – रेहड़ के लिए. जगह का नाम कुछ अटपटा लगेगा, पहली बार सुनने वाले को. लोकभाषा में तो रेहड़ उस भूभाग को कहते हैं, जहां कभी भू-स्खलन हुआ हो. संभव है कि अतीत में कभी ऐसी कोई घटना घटित हुई हो, लेकिन आज यह रेहड़ वैसा नहीं रहा जैसा आप नाम सुनने से अपने दिमाग में इसकी छवि बना बैठे हो. यह बात दीगर है कि लोग बताते हैं कि आज से पांच-छः दशक पूर्व तक यह एकदम सुनसान व वीरान इलाका था, जहां दिन में ही सियार बोलते थे.
बुजुर्ग लोग बताते हैं कि कभी रेहड़ में एक पुरानी कोठी हुआ करती थी, जिसमें लामा लोग रहा करते थे. कस्बे के बच्चे खेलने कोठी के सामने के मैदान में जाते थे और शाम ढलने से पहले घर को लौट आते थे. लोगों की मान्यता थी कि इस कोठी के आस-पास भूतों का डेरा है. यदि भुतहा कोठी के परिसर में खेलते हुए गल्ती से बच्चों की बॉल चले जाती तो भूत की डर से दिन में भी बच्चे बॉल लाने को डरते.
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बताते हैं कि इसी पुरानी कोठी के परिसर में एक गहरा कुंआ भी हुआ करता था, जो आज पट चुका है. आज यहां पर आलीशान घर बन चुके हैं. लेकिन आज शहर की आबादी का एक बड़ा हिस्सा रेहड़ में बस चुका है. कभी इस रेहड़ की तलहटी में जमुना धारा एक मुख्य पहचान हुआ करता था और कस्बे के लोगों की पेयजल की आपूर्ति को काफी हद तक पूरा करता था.
ब्रिटिश काल में 1932 में बनाये गये इस धारे की उपयोगिता इसी बात से जाहिर होती है, कि नोटिफाइड एरिया कमेटी द्वारा इसका 1963 में इसका पुनः जीर्णांेद्धार किया गया.
पहाड़ में घारे व नौले का महत्व केवल पेयजल की आपूर्ति तक सीमित नहीं हैं, ये हमारी संस्कृति तथा सूचनाओं के आदान-प्रदान का केन्द्र भी हुआ करते. आज की तरह तब संचार सुविधाऐं तो थी नहीं, धारे व नौलों पर आने वाली पनिहारनों से ही सुख-दुख का बखान व नयी नयी घटनाओं व खबरों का आदान प्रदान होता. जमुना धारा भी न जाने कितने नव ब्याहतों का नौला/घारा पूजन का साक्षी रहा हो और न जाने दुनियां से विदा होने वाले कितने पितरों का पिण्डदान का पवित्र स्थल रहा होगा. लेकिन ज्यों-ज्यों रेहड़ क्षेत्र में भवन निर्माण की गति बढ़ती गयी, धारे का अविरल जल स्रोत अपनी अन्तिम सांसें गिनता गया. पिछले 20-25 साल से अपना वजूद खो चुके इस नाले के लिए राहत भरी खबर ये है कि क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश नेगी ने अपने खर्च पर इसी कोरोना काल में जून 2020 में नाले का जीर्णोंद्धार कर दिया है और स्रोत का शुद्ध व शीतल जल जमुना धारे में पुनः प्रवाहित होने लगा है.
रेहड़ में कर्नल मथुरा लाल साह की भी काफी सम्पत्ति बताई जाती थी. क्षेत्र के पुराने वाशिन्दों में अधिकारी परिवारों को माना जाता है. कर्नल मथुरालाल साह की अधिकांश सम्पत्ति अब बाहर से बसे लोगों द्वारा खरीद ली गयी है. आईटीआई भवन भी इस क्षेत्र के पुराने भवनों में शुमार था, वर्तमान आईटीआई संस्थान भीमताल रोड के पास पुराने जीजीआईसी भवन में स्थानान्तरित हो चुका है तथा जीजीआईसी भवन श्यामखेत के पास एअर फोर्स स्टेशन के पास चला गया है.
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पिछली कड़ी : अतीत के पन्नों में भवाली की राजनैतिक व साहित्यिक भागीदारी
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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3 Comments
नीरज तिवारी
श्री भुवन चन्द्र पन्त जी की लेखनी ने अपने लेखों में पुरानी यादों , भवाली के इतिहास का बेहतरीन रेखाचित्रण खीचा है . उन्हें कोटि -कोटि धन्यवाद …..
Puran Bhakt
आपने अच्छी यादें है सहेजी हैं साधुवाद ।मेरा बचपन भी भवाली में ही बीता है धारे के बगल में एक पार्क होता था जहां हम फिसल पट्टी खेलते थे तथा वहां पर बाइस्कोप वाले से बाइस्कोप में पिक्चर देखते थे बंसी लाल जी 15 अगस्त के अवसर पर चौराहे पर भाषण दिया करते थे रामदत्त भगत जी भवाली के चेयरमैन हुआ करते थे जहां पर आजकल टीआरसी है वहां पर अस्थाई पिक्चर और भी बना था कुल मिलाकर बचपन में आनंदमय जीवन बिताया रामलीला मैदान में रामलीला होती थी जिस का आनंद लेते थे।
पंकज मोहन श्रीवास्तव
मैं भी 1988 में भवाली में राजकीय सेवा के दौरान रहा हूँ.आपके लेख से भवाली की स्मृतियाँ ताज़ी हो गयीं