बात तब की है जब मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया. गॉंव से गया एक लड़का जिसने दिल्ली का नाम भर सुना था अचानक गॉंव की प्राकृतिक जिंदगी छोड़कर दिल्ली की मशीनी जिंदगी में प्रवेश कर गया था. नानकमत्ता एक क़स्बा है और 2007 में तो लगभग गांव ही था जहां के सरस्वती शिशु मंदिर और विद्या मंदिर से मैंने 12वीं तक की शिक्षा विशुद्ध हिंदी माध्यम से प्राप्त की. तब न सिर्फ़ मेरी हिंदी में पकड़ अच्छी थी बल्कि संस्कृत की समझ भी ठीक-ठाक थी. हमारा हाल तो यह था कि हमने अंग्रेज़ी भी हिंदी में ही पढ़ी. कक्षा में मैं उन तीन छात्रों में हमेशा रहता था जिनके बीच प्रथम स्थान के लिए होड़ मची रहती थी. हमारी दुनिया नानकमत्ता थी और हमारी प्रतिस्पर्धा कक्षा के चंद छात्रों से. अचानक 12वीं की परीक्षा के बाद सब भविष्य की योजनाएँ बनाने लगे तो मुझे भी लगा कि कुछ सोचना चाहिए. बाक़ी के मित्र इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की कोचिंग के लिए हल्द्वानी चले गए और मैं अपना झोला लेकर दिल्ली पहुँच गया.
दिल्ली की दुनिया में खुद को खपा पाना बहुत मुश्किल था. पूरी दिल्ली ब्लू लाइन बस के भरोसे चला करती थी और ग़लती से भी ग़लत नंबर की बस पकड़ ली तो समझो “जाते थे जापान पहुँच गए चीन” वाला हाल हो जाता था. एक बार छत्तरपुर जाने के लिए 516 की जगह 517 नम्बर की बस पकड़ी और भीड़ इतनी की लगभग 50 मिनट एक पैर में खड़े रहने के बाद घिटोरनी के टर्मिनल में जाकर रूका. कंडक्टर से पूछा भाई छत्तरपुर क्यों नहीं रोका तो वो जाट बोला-पागल हो गया है के? देख नी रा के छत्तरपुर की गाड्डी से कि घिटोरनी की? मैं जैसे-तैसे वापस छत्तरपुर पहुँचा.
मुझे एक साल दिल्ली को समझने में लग गया और मैंने अपना एक साल ऐसे ही बर्बाद किया. अगले साल एडमिशन के लिए मैं खालसा कॉलेज नार्थ कैंपस पहुँचा तो एक अध्यापक ने मेरा 12वीं का माध्यम पूछा. मैंने बोला-सर हिंदी. उन्होंने बिना मेरी इंग्लिश जाने मुझसे कहा देखो बेटा हमारे यहाँ सिर्फ़ एक ही माध्यम है और वो है इंग्लिश तो तुम यहाँ कोप-अप नहीं कर पाओगे. एक काम करो साउथ के किसी कॉलेज में एडमिशन ले लो वहॉं हिन्दी माध्यम है. मैंने सोचा बड़ा अजीब शहर है यहाँ पढ़ने के लिए भी अंग्रेज़ होना ज़रूरी है. मैं वापस अपने कमरे में आ गया.
अगले दिन मैं साउथ कैंपस के शहीद भगत सिंह कॉलेज एडमिशन के लिए पहुँच गया. वहॉं माध्यम वाला चोचला नही था लेकिन साइंस से आर्ट में एडमिशन लेने वाले बच्चों से कट ऑफ़ से 5 प्रतिशत अधिक अंक होने का प्रावधान था. मेरे 12वीं के अंक कट ऑफ़ से 6 प्रतिशत ज़्यादा थे तो मुझे राजनीति शास्त्र (ऑनर्स) में एडमिशन मिल गया. मेरा राजनीति शास्त्र में रुझान था लेकिन विषय के 12वीं तक के बेसिक फ़ंडे क्लीयर नहीं थे. पहली कक्षा के लिए मैं कॉलेज पहुँचा तो देखा वहॉं लोगों में इंग्लिश में बात करने की लत लगी है. इंग्लिश में पढ़ाये गये पहले लेक्चर का 90 प्रतिशत ब्रेट ली के बाउंसर की तरह मेरे सिर के ऊपर से निकला और अगले चार-पाँच महीनों तक बाउंसर का यह सिलसिला चलता रहा. मैं मन ही मन सोचने लगा बेटा कहां इन अंग्रेज़ों के बीच फँस गया, तू नानकमत्ता में ही ठीक था. कई बार तो अंग्रेज़ी को देखकर इतनी खींझ आती थी कि मन करता सब छोड़ छाड़कर वापस घर चला जाऊँ. लेकिन वापस जाकर होने वाली बेज्जती के बारे में सोचकर संघर्ष करने की इच्छा और प्रबल हो जाती.
प्रथम 6 महीने तक यह निश्चित नहीं था कि मैं परीक्षा अंग्रेजी माध्यम से दूँगा या हिंदी. 6 महीने बाद जब परीक्षा फॉर्म भरने का नंबर आया तो फ़ॉर्म मैंने दो दिन तक अपने कमरे में ही रखा और हिंदी-अंग्रेज़ी, हिंदी-अंग्रेज़ी में उलझा रहा. अंत में मैंने सोचा जब ओखल में सिर दे ही दिया है तो मूसल से क्या डरना. फिर मैंने अंग्रेज़ी माध्यम से ही परीक्षा देने का मन बना लिया और निर्णय लिया कि चाहे ग़लत ही सही लेकिन पूरी बेशर्मी के साथ अध्यापकों व कुछ मित्रों से अंग्रेज़ी में ही बात की जाएगी. मेरी लगभग हर किसी से मित्रता थी उन लड़कियों से ख़ासकर जिन्हें अच्छी अंग्रेज़ी बोलनी आती थी. एक महिला मित्र मेरे उच्चारण पर मुझे बहुत टोकती थी. उसकी टोका-टाकी ने मेरा अंग्रेज़ी का उच्चारण ठीक किया. राजनीति शास्त्र की बेसिक समझ बढ़ाने के लिए मैं NCERT की 6वीं से 12वीं तक की पुस्तकें ख़रीद लाया और उन्हें पढ़कर मैंने अपनी समझ बढ़ाई. अब हुआ यूँ कि अंग्रेज़ी माध्यम के छात्र अपने कॉन्सेप्ट क्लीयर करवाने व नोट्स माँगने मेरे पास आने लगे. परीक्षा के समय कॉल कॉन्फ़्रेंस में लेकर 2-3 महिला मित्र मुझसे मुख्य प्रश्नों पर सवाल जवाब करने लगी. तीनों साल मैं ग्रेजुएशन में अव्वल रहा और सर्वाधिक नंबर लाने के एवज़ में अंतिम वर्ष मुझे स्वर्ण पदक से नवाज़ा गया.
कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा आपकी तरक़्क़ी में आड़े नहीं आती. आड़े आता है आपका डर, टूटा हुआ मनोबल, आपका झिझकना. भाषा एक माध्यम है अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने का. आज लोगों को हिंदी बोलने और लिखने में शर्म महसूस होती है. अंग्रेज़ी सभ्यता का प्रतीक नहीं है वह सिर्फ़ एक भाषा है और आधुनिक बाज़ार की ज़रूरत है जिसे हम सबको सीखना चाहिए लेकिन यह बिल्कुल स्वागत योग्य नहीं है कि हम अपनी मातृ भाषा को तिरस्कृत करें. हमारी पहचान हमारी मातृ भाषा और बोली से है. एक केरल वाले को मलयाली, तमिलनाडु वाले को तमिल, बिहार वाले को भोजपुरी, असम वाले को असमी, उत्तराखंड वाले को कुँमाऊनी और गढ़वाली व अन्य राज्य वालों को अपनी भाषा आनी चाहिये.
यह आलेख हमें हमारे पाठक कमलेश जोशी ने भेजा है. कमलेश के लेख – सिकुड़ते गॉंव, दरकते घर, ख़बर नहीं, कोई खोज नहीं और छात्र राजनीति में जागरूकता का अभाव- सन्दर्भ गढ़वाल विश्वविद्यालय – हम पहले भी छाप चुके हैं. यदि आप के पास भी ऐसा कुछ बताने को हो तो हमें [email protected] पर मेल में भेज सकते हैं.
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