हमारी हिंदी
-रघुवीर सहाय
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाए
पसीने से गंधाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को ले कर लड़े
घर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किए जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढंनगते गिलास
खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जाएँगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और जमीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे.
9 दिसंबर 1929 को लखनऊ में जन्मे रघुबीर सहाय जाने-माने कवि और पत्रकार थे. ‘दिनमान’ के सम्पादक के रूप में उनके द्वारा किया गया काम भारतीय पत्रकारिता में मील का पत्थर माना जाता है. हिन्दी कविता को उन्होंने एक बहुत आधुनिक और राजनैतिक रूप से सचेत स्वर प्रदान किया. उनकी प्रमुख रचनाओं में – सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो, हँसो, जल्दी हँसो, लोग भूल गए हैं, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, और एक समय था शामिल हैं. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया. 30 दिसंबर 1990 को दिल्ली में उनका निधन हुआ.
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