पिछली सहस्राब्दी के आखिरी महीने में अपने हंगेरियन विद्यार्थियों को मैंने अपने इलाके का परिचय देने के लिए मशहूर लोकगायक नैन नाथ रावल का यह कुमाऊनी गीत सुनाया :
(Himuli Hyoon Pado Nainnath Rawal)
ओ हिमुली
पड़ो ह्यों हिमाला डाना, ठंडो लागोलो क्ये?
वारा चांछे, पारा, चांछे दिल लागोलो क्ये?
ओ हिमुली
वारा भिड़ा चड़ी बासी
पार भिड़ा करौली
भरिया जोवन त्यर
तसी जै क्ये रौली
ओ हिमुली
ठंगरी में चड़ी बासी
हरिया रंगे की
चाने छै
तौ हौसी कसी
चाने छै संगै की
ओ हिमुली
कुमू बै कुमाया ऐरौ
सोर बै सोर्याला
किले खिती गैछे सुवा
तसो मायाजाला
ओ हिमुली
ओ हिमुली, पर्वत-शिखरों पर बर्फ पड़ चुकी है, क्या ठण्ड आरम्भ हो चुकी है? इस तरह तू आर-पार किसे तलाश रही है हिमुली, क्या तेरा दिल बेचैन है? शिखर के इस पार्श्व में मधुर आवाज वाली चिड़ी गा रही है और उस पार्श्व में कर्कश आवाज वाली करौली. ओ हिमुली, सोचो तो, तेरा भरा-पूरा यौवन क्या हमेशा ऐसा ही बना रहेगा? लम्बूतरे सूखे उदास खंभे पर हरे रंग की चिड़िया गा रही है. तू ऐसे आशा भरे उत्साह के साथ किसे तलाश रही है हिमुली? क्या इस एकांत में तुम्हें अपने साथी की तलाश है? देखो, काली-कुमाऊँ से कुमैयाँ आ चुका है और सोर से सोर्याल. ओ हिमुली, लेकिन तूने ऐसा मायाजाल क्यों फैला रक्खा है?
(Himuli Hyoon Pado Nainnath Rawal)
भारत लौटते हुए मेरे छात्र चाबा किश और हिदश गैरगेय मुझे हवाई अड्डे तक छोड़ने आये थे. उन्होंने कक्षा में पहली बार सुनी इस कविता की याद दिलाई. अपनी अटपटी, मगर प्यारी शैली में उन्होंने गीत की शुरुआती पंक्तियाँ दुहरायी- ‘ओ हिमुली…’ मुझे लगा उन लोगों ने मेरे द्वारा दी गयी शिक्षा की विरासत सम्हाल कर रख ली है.
(Himuli Hyoon Pado Nainnath Rawal)
हंगरी में प्रवास के लेखक का जीवन:
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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