जब बर्फ पिघल कर नदियों को जवान कर रही थी और बुरांश पहाड़ को रक्तिम, तब रेशम की लकीरों पर अपनी भेड़ों को हांकते रं और शौका व्यापारी माल भाभर के खत्तों को छोड़ पहाड़ की और लौट रहे थे. इनकी भेड़ें अपनी पीठ पर दूर-दूर की मंडियों से सूती कपड़ा, गोला, मिस्री, जीरा, गरम मसाले जैसी चीजें ला रही थी जिनकी तिब्बत में भारी मांग थी. साथ ही खच्चरों की पीठ पर अनाज आ रहा था जो तिब्बत के बंजर भूगोल की बहुत बड़ी जरुरत थी और जिसके दम पर तिब्बत के व्यापार का रुख हमेशा हिमालय के व्यापारियों के पक्ष में रहा. Himalayan Women
आने वाले दिनों में इन व्यापारियों ने मध्य हिमालय के पुश्तैनी रास्तों को पार करना था और गाँव-गाँव में नमक के बदले अनाज लेते हुए आगे बढ़ना था. इन व्यापारियों के घर इनके लिए एक पड़ाव भर थे और हिमालय की सदानीरा नदियों की ऊपरी घाटियों में अपने घरों में कुछ दिन बिताने के बाद उनको जाना था हिमालय के पार. उस पठार में जहाँ उनके पुश्तैनी मितुर (मित्र) व्यापारी उनकी राह देख रहे थे. इन यायावर व्यापारियों का जीवन हिमालय के आर-पार दोलन में बीतना था.
जब यह व्यापारी माल भाभर में या तिब्बत में होते तब कौन था जो इनके घरों को आबाद रखता? कौन बेजान रूखे ऊन को आलिशान गलीचों की शक्ल देता? कौन हिमालय की रूखी माटी में पल्थी, सरसों, उवा,नपल, मूली और राजमा उगाता? जाहिर है इस व्यापारी के जीवन का एक दूसरा पहलू था इसके घर की औरतें. वह मां थी, पत्नी थी या बेटी थी लेकिन उसने इस व्यापारी को पूर्णता दी.
इस समाज ने अपनी महिलाओं को वह सम्मान भी दिया जिसको मध्य हिमालय के समाजों में देखना दुर्लभ था. उसे घर के अन्दर एक महत्वपूर्ण सदस्य का मिला दर्जा जो निर्णयों में भागीदार थी. समाज में अनेक दर्जे उनके कामों में महारत के आधार पर रचे गए जैसे खेती, बुनाई, खाना बनाने और मेहमान नवाजी में महारत, कठिन मेहनत के काम जैसे सुबह जल्दी उठना, पानी लाना, बच्चे को जन्म देना आदि में महारत, होशियारी और खुशमिजाजी का गुण, बात करने, कपडे पहनने और व्यवहार करने का लहजा और सामाजिक जलसों, त्योहारों, उत्सवों, नृत्य आदि में भाग लेने का गुण. हर गुण के लिए अलग-अलग शब्द भी रंगलो भाषा में मिलते हैं. इन आधारों पर महिलाओं को आंका जाता था तो घर के पुरुष पर उसका वर्चस्व भी तय होता था. Himalayan Women
इन समाजों में जहाँ पुरुष अधिकांश समय घरों से दूर रहते महिलाओं के पास कहीं अधिक जिम्मेदारियां होती. एक ओर एक सहृदय मां बनकर अपने बच्चों का लालन-पालन उन्होंने करना था तो दूसरी तरफ अपने खेतों, मवेशियों और व्यापार के लिए भंडारित माल असबाब की हिफाजत भी करनी थी. इस व्यापक जिम्मेदारी ने इस समाज में महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक सबल और स्वतंत्र बनने के अवसर दिए.
व्यापार के अवसान और व्यापक पैमाने पर हुए पलायन ने इनकी जिंदगी में क्या बदलाव लाये यह तो अध्ययन का विषय है लेकिन हम मध्य हिमालय के लोग अपने घरों में आज भी मिनांशिरी* के हाथों की गर्माहट और ममत्व को सहेजे हुए हैं. हमारी भकार के कोने में तह लगाकर रखी थुलम और खास मौकों पर निलकने वाला चटक रंगों में रंगा दन महज एक ऊन की कलाकृति नहीं बल्कि एक समृद्ध व्यापारी समाज की पलायन गाथा है.
आज का चित्र उस माँ का जो जीवन के आठवें दशक में है और शरद के आगमन से पहले अपने गाँव मार्छा से पैदल धारचूला की ओर आ रही हैं. उनकी झुकी कमर में लदी हैं स्मृतियां सदियों के इतिहास की, तिब्बत के मित्र की और मानसरोवर के जल की. Himalayan Women
*मिनांशिरी- रं भाषा में महिला के लिए प्रयुक्त शब्द
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं. विनोद काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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