हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 4
(पिछली कड़ियां :
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 1 बागेश्वर से लीती और लीती से घुघुतीघोल
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 2 गोगिना से आगे रामगंगा नदी को रस्सी से पार करना और थाला बुग्याल
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 3 चफुवा की परियां और नूडल्स का हलवा)
क्लब का सिर्फ नाम ही हुआ, ट्रैकिंग में जाने के लिए संसाधनों के लिए दूसरों से भीख मांगनी हुई. इस अभियान के बाद जब हमारे क्लब ने बल्जूरी चोटी का अभियान बनाया तो कई सारी हकीकतों से रूबरू होना पड़ा. तब बागेश्वर जिला नहीं था, अल्मोड़ा में साहसिक पर्यटन का कार्यालय था. राजदा ने एक पत्र तत्कालीन साहेब को लिखना शुरू किया कि फटेहाल क्लब का अभियान बल्जूरी के लिए बना है, लिहाजा कुछ हिमालयी उपकरणों की मदद क्लब को कर दीजिए. ये पत्र पूरा भी नहीं हुआ था कि अल्मोड़ा से ही साहेबान का एक पत्र हमारे पत्र से पहले क्लब को पहुंच गया कि उन्हें उनके एक हिमालयी अभियान में हमारे क्लब से संसाधनों की सख्त जरूरत है. तुरंत मदद करें. लिस्ट भी भयानक थी, जिसे पढ़ हम कई देर कल्पनाओं में डूबे रहे कि ऐसे—ऐसे इक्यूप्मेंट भी होते हैं और ये होता है माउंटेनियरों का तरीका और उनकी ड्रैस. (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)
एक हम हैं! हंटर शूज को ही सब कुछ मान एवरेस्ट के माथे पर कूदने को आतुर रहते हैं. हंटर ही हमारे लिए सब कुछ होने वाला हुआ. सस्ता, सुलभ और चलते—चलते भीग जाने के बावजूद कुछ घंटों में खुद—ब—खुद सूख जाने वाला प्यारा सा हंटर शू.
बहरहाल! हमारे क्लब के मांग वाले पत्र को किनारे कर दूसरा जबाबी पत्र बनाया गया कि “शिवजी खुदे उतांण है रिन बरदान कसिक दैयाल” मतलब हम भूखे—नंगे तो आपके पास कटोरा लेकर आ रहे थे और आप हमसे ही मेवों के साथ ही बासमती की फरमाइश कर रहे हो. अल्मोड़ा से कोई उत्तर आना भी नहीं था, मदद तो दूर की बात थी.
पत्थरों का समुद्र समाप्त होते ही कुछ पत्थरों की ओट लिए ढेरों ब्रहमकमलों का अद्भुत संसार पहली बार देखा. कुछ पल ठहरे तो कोहरे की चादर बिछनी शुरू हो गई. आगे कोहरे के बीच में से झांकता लंबा हरा—भरा बुग्याल बांहें फैलाया दिख रहा था. हिमालय में पहली बार का ये अनुभव वास्तव में बहुत ही अलौकिक था. मन में ख्यालात से उठ रहे थे कि काश! भूख—प्यास की तरह—तरह की कुछ गोलियां होती तो हिमालय की इन्हीं कंदराओं में कुछ वर्षों तक रह अपने मन की की जाती.
बुग्याल में पहुंचे तो चारों ओर हरी मखमली घास ही दिख रही थी. रास्ता गायब सा हो गया था. हमारे साथ के अनुभवी गाइड भगतदा दूर कोहरे में दिखे. कोहरे के बीच हाथों से इशारा करते हुए उन्हें देखा तो हम सभी उसी ओर को लपक लिए. हिमालय की ये घाटियां अब रहस्यमयी सी महसूस होने लगी थी. हल्की चढ़ाई में सामने एक टीले पर पत्थरों का पिरामिड सा दिखा. वो संकेत था हिमालयी रास्ते का. उसके पास पहुंच रुकसैक को किनारे रख मखमली बिस्तर में हम सभी पसर से गए. पता चला कि पिरामिड के इस ढेर को कैयर्न कहा जाता है जो कि दिशा सूचक होता है. एक कैयर्न से दूसरे कैयर्न की दूरी लगभग दो सौ से पांच सौ मीटर तक की होती है. हिमालयी क्षेत्र के बुग्यालों में जहां रास्ते नहीं होते हैं वहां अनवालों का बसेरा होता है और वो ही इसे अपने और दूसरों की सुविधा के लिए हर बार बनाते रहते हैं. बर्फबारी में ये ध्वस्त जो हो जाने वाले ठैरे.
कोहरे की वजह से लग रहा था जैसे अंधेरा घिरने को हो. शाम के चारेक बज चुके थे. बुग्याल पार करने के बाद रास्ता हल्का उतार लिए तिरछा मिला. कोहरा छंटा तो सामने की ओर फैले मखमले बुग्याल साफ दिखने लगे तो थकान काफूर हो गई. कुछ देर विश्राम करने का वक्त मिला. टॉफी—बिस्कुट आपस में बांट लिए. बुग्याल में पसरने का जो आंनद महसूस हो रहा था वो किसी जन्नत से कम नहीं लग रहा था.
आज का पड़ाव काफी दूर जैसा लगा. चलते—चलते भगतदा ने सामने की ओर इशारा करते हुए बताया – ‘वो सामने है बस थोड़ा सा…’ भगतदा का वो थोड़ा दो घंटे से कम का नहीं लगा. इन हिमवीरों के लिए तो ये ‘बस थोड़ा’ सही में ही हुआ. लेकिन पहली बार हिमालय में आने वालों को तो कैयर्न-हिमालय की कंदराओं को समझने में ही सदियां लग जाएं.
रास्ते में दो पोर्टर भाई पानी के गैलन ले नीचे उतर गए तो लगा पड़ाव आने ही वाला होगा. अंधेर घिर आया था. आधे घंटे बाद एक तिरछी ढलान में बताया गया कि यही पड़ाव है. तंबू यहीं लगेगा. सामान किनारे रख हम तंबू लगाने में लग गए. तिरछी ढलान में बमुश्किल तंबू के रस्सों को ठोक—पीट कर तंबू को खड़ा कर हम उसमें समा गए. पोर्टर भाईयों ने नीचे एक छोटी सी समतल जगह में अपना छोटा तंबू लगाया और खाने की जुगत में जुट गए. थकान की वजह से आज खिचड़ी पर राय बन गई. कुकर ने चारेक सीटी में जब बताया कि खाना तैयार है तो हम उनींदे से बर्तन ले तंबू में गोल घेरे में बैठ गए.
खिचड़ी मजेदार लगी. भूख भी थी और थकान तो साथ छोड़ नहीं रही थी. साये की तरह वो साथ ही चिपकी रहती थी. रेडियो के कान उमेठे तो पुराने गानों की बहार ही आ गई. मीठे सुरीले गानों ने थपकी दे सुला दिया. रेडियो किसने कब बंद किया पता नहीं चला.
सपने में देखा कि किसी अनाम जगह में हम भूस्खलन में दबे पड़े हैं. बाहर निकलने के लिए सभी एक—दूसरे को धकेलते हुए अपना दम लगा रहे हैं. तभी नींद खुल गई. महसूस हुआ कि सपना हकीकत ही है.
हम सभी आपस में गुड़मुड़ हो रहे थे. बमुश्किल सभी अलग हुए. स्थिति समझ में आने पर हम सभी बिन मुंह धोए हुए ही खूब देर तक हंसते रहे. दरअसल तंबू तिरछे ढलान में लगा था. जब तक होशोहवास थी सब कायदे से सोये, नींद के आगोश में आने के बाद पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण ने सबको नीचे की ओर खींच लिया तो सब एक—दूसरे के ऊपर कब गुड़मुड़ हो गए पता ही नही चला.
आज पंजीरी जैसा कुछ बनाया गया, जिसे नाश्ते के साथ ही रास्ते के लिए रख लिया गया. तंबू के साथ अपना सामान लपेट पीठ में डाल आगे को बढ़ चले. आज नामिक ग्लेशियर होते हुए हीरामणी ग्लेशियर तक जाना था. बीसेक मिनट चलने के बाद ही सामने का दृश्य देखा तो हम सभी देखते रह गए. ये नंदा कुंड था. सर्पिल डेल्टा का सा आकार बनाए पतली सी नदी की धारा बहते हुए अठखेलियां जैसी कर रही थी. चारों ओर ब्रहम कमल के फूल अपनी खुशी जाहिर कर रहे थे. भगतदा से नाराजगी जताई कि कल यहां क्यों नहीं रुकवाया. मुस्कुराते हुए हाथों को जोड़ उन्होंने बताया – “यह जगह यानी नंदा कुंड हम सभी के लिए काफी पवित्र है, साल में जब भी हमारी नंदा की पूजा होती है तो गांव के श्रद्वालु यहीं आकर नंदादेवी की पूजा के लिए ब्रहम कमल लेने आते हैं. इस पवित्र स्थान में रात्रि में ठहरना मना है. ये जगह परियों की है. रात्रि में वो इस पवित्र जगह में यहां आती रहती हैं, जिस वजह से आपको थोड़ा पीछे रुकना पड़ा. हम भी जब यहां आते हैं तो यहां नहीं रुकते. आगे—पीछे पड़ाव डाल लेते हैं. देवता को नाराज कैसे कर सकते हैं हो हम लोग. आप ही बताओ!”
(जारी)
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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