चुस्त-दुरुस्त सर फर. अभी यहाँ से कुछ पौंधे सारे हैं. तो अब तेज हो गई सतझड़ से वो सारे गमले उठाने में जुट जाना है. सबमें जान ठहरी. इतने द्वौ बारिश आंधी कुहरे में तो गल जायेंगे. वो नीम की खाद डालनी है अभी. बाकी सब गोबर -पत्ती की पुरानी गली खाद. केंचुवे तो इतने कि बरखा में भीगने आ जाते हैं लुरबुर करने ऊप्पर पूरे बरामदे में फैल जाते हैं. एक काम पूरा नहीं होता कि सात काम और याद आ जाते हैं. गंगा ऊपर दुमंजिले से धाल लगाती रहती है. खाना खा लो, चाय पी लो, कुछ तो खा लो. पर ये पेड़ पौंधे पत्ती भूख प्यास सब हर लेते हैं. अब ये देखिये. ये पौंधा एक साल हो गया. सिंगापुर से लाया इसे. इसे न गमले में डाला. कुछ मिट्टी खाद नहीं. और न पानी. ऐसे ही खुले में हवा में रख देता हूँ. एक साल में बढ़ दुगुना हो गया. सब कुछ हवा से खींचता होगा, हिमालय के ऋषि मुनियों की तरह.
पेड़ -पौंधे ही नहीं. सारा कुनबा जमा के अपने पाँवों में खड़ा किया है हेम चंद्र कपिल ने. डॉ कपिल ने. अर्थशास्त्र में पहाड़ के पशु धन प्रबंध पर डाने-काने से जुटाई जानकारी. मुझे हर बात का सबूत चाहिए था वह भी फोटो का प्रमाण. गाइड मैं ही था जो उन दिनों अधूरी पी. एच. डी. कराने की डार्क कॉमेडी से खिन्न था. डॉ जे. सी. पंत जी की सीधी सरल मेहनती बड़ी लड़की रश्मि के रिसर्च का काम बढ़िया चल रहा था. उसकी शादी की बात तय हुई. शादी हुई और शोध कार्य अधूरा रह गया. यह सिलसिला डॉक्टर बिपिन उप्रेती की कन्या और मेरी सातवीं रिसर्च स्कॉलर के साथ तक चला. जिन सब बालाओं ने मेरे अधीन पंजीकरण कराया.
उनकी रिसर्च अधूरी कहानी ही बन गयी. थीसिस पे काम चला. पहाड़ पे बड़े नए-नए टॉपिक छांटे गए. पर कन्याओं के लगन फले. गुरूजी पंजीकरण के बाद इंस्टेंट मर्रिज के स्वनामधन्य पंडित बन रह गए. सवाणी तो अपने दो बरस के छौने को गोद में उठाये काम पूरा करने को आकुल- व्याकुल दिखी. बड़ा मेहनती शांत पढ़ाकू भरत ठाकुर दिल्ली के शासकीय इंटर कॉलेज में अर्थशास्त्र का बेहतरीन टीचर और फिर नवोन्मेषी प्राचार्य तो बना. पर प्रेम विवाह के बाद उसका शोध कार्य भी बेहतरीन शिक्षक की तैयारियों के पीछे रिसर्च में मेरी अधूरी कहानी ही बन गया.
अब बचे दो तिलंगे. जिनमें पहला दुबला-पतला पर गजब का मेहनती साहसी सुनील पाण्डे जो पर्यावरण, नाटक, झांकी, पोस्टर के साथ हर खुर-बुर में हाथ डाल प्रबंधकीय कार्यों में दक्ष होता चला जा रहा था. आज इसी की बदौलत वह निधि संस्था का डायरेक्टर है. चालीस पचासों को रोजगार दिया है उसने. महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को नाबार्ड की मदद से उसने कायदे से खड़ा किया है. और आज भी मेरे किसी झनक भरे काम को आगे बढ़ने में उसकी काया मुर्गा छाप राकेट सी लहर चमक देने को सुर्र-फुर्र बेचैन दिखाती रहती है. भोटान्तिक अर्थव्यवस्था के कारबार पर उसके काम में मैंने उससे खूब तेल पिरोया. दारमा- व्यास -चौदास हर डाने-काने में भटक-घूम फोटो का सबूत मंगाया. इस मामले में तो दूसरे रिसर्च स्कालर हेम चंद्र कपिल ने तो अपने पशुधन प्रबंध की शोध में हदें ही पार कर दी. तब वह केंद्रीय विद्यालय भड़कटिया पिथौरागढ़ में योग टीचर था.
प्रेमबल्लभ पाण्डे उर्फ़ रमदा जैसे गुरु की छत्रछाया में उसने एम.ए. इकोनॉमिक्स किया. प्रेम विवाह भी हुआ. स्टाफ क्वाटर की कई नाली बंजर जमीं पै सब्जियां लहलहा दीं. मौन पालन के दर्जनों डब्बों हर बक्छुट के बाद बढ़ते चले गए. और शोध प्रबंध की प्रमाणिकता बरक़रार रखने को होलीस्टीन प्रजाति की गायें भी पाल दी. अब दुग्ध व्यवसाय में इनपुट-आउटपुट और लागत-लाभ के प्रामाणिक आंकड़े जो जुटाने थे. सो काम के मामले में पूरा सनकी- झनकी पगलैट है ये योग मास्टर हेम चंद्र कपिल. जिसने नैनीताल के हाई स्कूल, इण्टर कॉलेज में पढाई के साथ जीवनयापन को गति देते अनगिनत धंधे कर 1979 में डी. एस. बी. कॉलेज नैनीताल से स्नातकोत्तर उपाधि ली. अर्थशास्त्र में एम. ए. तो बाद में 1983 में किया. इस बीच योग के धुरंधर धीरेन्द्र ब्रह्मचारी की संस्था से योग प्रशिक्षण की उपाधि प्राप्त कर केंद्रीय विद्यालय में योग प्रशिक्षक की नियुक्ति पिथौरागढ़ पायी. सोर घाटी फल गयी.
अगर धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के करीब जाता. थोड़ी लस-पस करता. उनके आभा मंडल में छांव पाता तो आज मैं भी किसी मठ का मालिक होता गुरुदेव. वारे न्यारे कर रहा होता. पर मेरे बाबू इन साधु सन्यासियों की पोपट गाथाओं से बड़े चिढे रहते. इनके मायाजाल से दूर ही रहने की कहते. वैसे भी नैनीताल में बाबा नीम्ब करोली थे. नानतिन महराज थे, सोम्बरी महराज थे. तो चाय छोड़ो महराज जैसे दिग्गज भी जो अपनी धुन में ही न जाने कितने भक्तों की आपदा-विपदा हर लेते. न ही कुछ जताते. बस कोई मालपुवा खिलता कोई सर पे हाथ फेर देता. पर दिल्ली में तो धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के आश्रम में उनके दर्शन ही बहुत कम होते. जब आते भी तो सुंदरियां घेर लेतीं. नेता चरणों में पड़े रहते. अब हम जैसे पहाड़ी भुस्स कैसे उनके करीब जाने का जुगाड़ कर पाते? वैसे भी उसका सीधा कनेक्शन इंदिरा गाँधी संजय गाँधी तक हुआ. हां योग सिखाने के सारे प्रबंध, खाना- पीना, रहन-सहन उनके इंस्टिट्यूट में परफेक्ट हुआ. अब जब केंद्रीय विद्यालय में पिथौरागढ़ आया तो यहाँ प्रिंसिपल साहब हुए के. डी. पाण्डे जी.
स्कूल परिसर की खाली क्यारियों में उगे झाड़ -झंकाड़, कुरी गाजर घास देख बड़े दुखी. अपने दुःख में उन्होंने मुझे भी शामिल कर लिया. अब योग टीचर को लोग जरा दोयम दर्जे का मानते थे. काम ही क्या है? बच्चों को उल्टा -सीधा लटकाया, दौड़ाया-लिटाया और तन्खा पूरी ? इसलिए स्कूल का हर खर-भिस्ती वाला काम भी योग टीचर के सुपुर्द कर दो. कभी बैंक दौड़ा दो. किसी समारोह के लिए समोसे-लड्डू की प्लेट लगवा लो. बच्चों की टीम ले जाने वाला पहरुआ बना दो. या फिर घास ही छीलवा लो. प्राचार्य जी का आदेश और फिर तभी अचानक ही मैंने महसूस किया कि सारी क्यारियों में बच्चों की तरह फूल मुस्कुरा रहे हैं. हरियाली नाच रही है. रंगों की बहार है गुरुदेव. गुलों में रंग भरे,वादे नौबहार चली जो अब तक चल रही.
कोई नर्सरी नहीं थी पिथौरागढ़ में. जिनके पास घर के आँगन में थोड़ी भी जगह तो वहां भी ले मूली-चुतेकिपाणी, हालंग -पालंग,लाइ-, मेथी,लहसुन- पुदीना. सब खाया जाता है. फूल क्या उगाने ? सो कहाँ कहाँ से पौंध बटोरी, बीज मंगाए, कटिंग लगाई, बल्ब रोपे. गोबर की खाद डाली. रात अधरात तक सिंचाई करी. हाथ के नाखूनों में हर बखत मिटटी घुसी रहती. हाथ जर्जरे हो गए. मैसूर इंस्टिट्यूट तक से पौंध मांगने का जुगाड़ फिट कर दिया.
कलियाँ खिलीं फूल मुस्कुराये. जब में रिटायर हुआ केंद्रीय विद्यालय भीमताल से 2017 में. तो भवाली में रामगढ जाते इस डांडे में सन 2000 में बना लिए मकान में, मैं हरियाली को घेर चुका था.
बीच में कार चलते वो एक्सीडेंट भी हुआ जब रीढ़ की हड्डी ठुनक गई थी. आप ही लाये थे ऑर्थोपेडिक सरजन डॉ नारायण त्रिपाठी को. मुझे सीधा खड़ा कर क्या मंत्र दे गए वो. बाकियों ने तो कैसे-कैसे ऑपरेशन का ताना-बाना बुन दिया था. डॉक्टर त्रिपाठी ने मुझे फिर खड़ा क्या किया तब से बस सरपट हूं. मेरे पास तो टाइम ही नहीं अब. इनकी सार-पतार में, इन हज़ारों हज़ार सैकुलेट कैक्टसों की दुनियां में अल्ज़ी गया हूँ. गंगा डांटती रहती है..कभी तो घर के भीतर भी रहा करो. क्या क्या मंगाया था आपसे बाजार जा के ला देने को ! उसका मुहूर्त कब आएगा.अब ये बाजार हज़ार जाने के काम में अलज्याट भी लगती है. अब पचास किसम की तो रेयर वैरायटी हैं अपने घरोंदे में. तीस से ज्यादा कीवी के बोट. सब माँ जयंती की कृपा. उन्ही की कृपा से माँ जयंती नर्सरी बनी. दानव-दैत्य भी लगे ठहरे.
रात अधरात याद आता है वहां ठिंगरे लगाने थे. कहीं रेत डालनी थी. बस निकल पड़ता हूँ. दोनों दगडुए कुत्ते आपने आपने देखे ही हैं. इनका हर समय का साथ ठहरा. चूहे-छुर्री मुस-स्योल साले बड़ा नुकसान पाड़ देते हैं. इनकी रखवाली अलग हुई. गोबर,खल नीम की खाद डालता हूँ. केमिकल फर्टिलाइजर रत्ती भर भी नहीं. ये नीचे के दो कमरों में एक परिवार को ठौर दी है. औरत दिनमान भर देखभाल करती है. एक लड़का-एक लड़की है. दोनों स्कूल जाते हैं. छोटे लड़के में है हुनर. पोंधों से बात करना आ गया है उसे. अब साल में लाख दो लाख तो वापस दे जाते हैं ये मुझे. जिनको मालूम है वो यहीं से ले जाते हैं. धंधा नहीं बनता यहाँ, सब ओरल पब्लिसिटी है. दाम भी बस सामान्य लाभ वाले. इतनी इकोनॉमिक्स तो आपसे सीखी ही है. ठीक कहते हैं आप. नौकरी के बाद लोग रिटायर होते हैं. हम-आप आज़ाद हुए. कोई सौ ल-कठोल नहीं. फालतू गपबाजी-पोलिटिकल डिस्कशन नहीं. इन हज़ारों पौधों के भी सपने होंगे. इनको भी खिलना है महकना है. अपनी जगह बनानी है. बस इनकी ही धुन में रहता हूँ.हरेला साल भर हुआ यहाँ.
हेम चंद्र कपिल ने एक अलग जीवंत जादुई आशियाना सजाया है. सिमेल गांव से उनके पिता ने 1950 की शुरुवात में नैनीताल नया बाजार आ, आलू की आड़त से परिवार की गुज़र-बसर शुरू की. फिर परमिट का सीमेंट बेचा जो 1957-58 में 8 रूपये कट्टा था. तमाम धंधे किये. हेम की तीन दीदियां और तीन भाई रहे. बचपन से ही दुकान का काम पकड़ लिया. बगल में नेशनल होटल वाले नेता प्रमुख का पी.ए. भी रहा. अपने भाइयों को भी पढाई-लिखाई पूरी करा उपक्रमी बनाया. अपने दोनों बेटों को तकनीकी कुशल बना रोजगार की काबिलियत दी. सिद्ध किया कि काबिल हैं तो कर खाएंगे नहीं तो बेकारी के टिसुवे बहाएंगे.
नौजवानों की लड़ाई पे एक नाटक कई बार पिथौरागढ़ में खेला गया. जिसकी अंतिम परिणिति जुझारू छात्र नेता निर्मल पंडित की शहादत थी. जिसे नशा नहीं रोजगार दो में बलि का बकरा बनाया गया था. इस नाटक का पागल मास्टर मैने अपने रिसर्च स्कालर इसी हेम कपिल को बनाया था. सलीम-जावेद मार्का व्यवस्था तोड़ संवाद दिए थे. रघुवीर सहाय की कविता दी थी – ‘जो मारा गया है, उसके भी बोली थी लोग भूल जाते हैं.’
नाटक में जागर के बीच कपिल के पागल मास्टर ने कम्प कर दिया था. देव सिंह मैदान के शरदोत्सव में हज़ारों की भीड़ को कर दिया था खामोश. और युवा के वध को. उठी खुकरियाँ फ्रीज़ कर दी थी. उस दिन मुझे ऐसा लगा था कि वाकई में ये बंदा अपने हिस्से के हर पल को, हर मिनट सेकंड को रचनात्मक धाल लगाता रहेगा. आज देख रहा हूँ जमीनी सच को रूबरू करता कपिल. हज़ारों सेकुलेट कैक्टस और अनगिनत रंगों से भरे फूलों में प्रयोग कर रहा. और खुश है. अहा जिंदगी.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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