सन 1871 की यात्रा (हरिद्वार) के बाद भारतेन्दु ने हरिद्वार के एक पण्डे को पत्र में लिखा था-
(Haridwar Travelogue by Bhartendu Harishchandra)
सम्वत बसु युग ग्रहससो, पूनो रात असाढ़।
रविवासर हरिद्वार में, लिख्यो पत्र अति गाढ़।।
मित्र मिलन मधुवन गमन के हित कियो बयान।
मध श्री गंगाहार में, हरखि कियो अस्नान।।
संग कन्हैयालाल जू और किशन इकदास।
रैन युगल बसि के कियो, न्हान चन्द्र के ग्रास।।
द्विजबर नागर मल्ल पुनि, श्री गोबिन्दाराय।
पोखरिया उपनाम है, तीरथ द्विज गुन धाम।।
दून को पंडा मानि के पूजन बहुविधि कीन्ह।
पाठ कियो शुक संहित, यथाशक्ति धन दीन्ह।।
यातें जो आवै पूते, मेरे कुल के मॉहि।
सो इनहीं को पूजिहें और द्विजन को नाहि।।
विमल वैश्यकुल कुमुद ससि, सेवत श्री नन्दनंद।
निजकर कमलन सौ लिख्यो, यह कबिबर हरीश्चन्द्र।।
(भारतेन्दु समग्र, पृ. संख्या 1073 पर प्रकाशित)
श्री हरिद्वार को रुड़की के मार्ग से जाना होता है. “रुड़की शहर अंग्रेजों का बसाया हुआ है. इसमें दो तीन वस्तु देखने योग्य है तो एक (कारीगरी) शिल्प विद्या का बड़ा कारखाना है जिसमें जल चक्की पवन चक्की और भी कई बड़े-बड़े चक्र अनवर्त खचक्र में करते हैं और बड़ी बड़ी धरन ऐसी सहज में चिर जाती है कि देखकर आश्चर्य होता है. बड़े बड़े लोहे के खंभे एक क्षण में ढल जाते हैं और सैकड़ों मन आटा घड़ी में पिस जाता है. जो बात है आश्चर्य की है. इस कारखाने के सिवा यहां सबसे आश्चर्य श्री गंगाजी की नहर है, पुल के ऊपर से तो यह नहर बहती है और नीचे से नदी बहती है. यह एक बड़े आश्चर्य का स्थान है.
इसको देखने से शिल्प-विद्या का बल और अंगरेजों का चातुर्य और द्रव्य का व्यय प्रगट होता है. न जाने वह पुल कितना दृढ़ बना है कि उस पर से अनवर्त कई लाख मन वरन करोड़ मन जल बहा करता है और वह तनिक नहीं हिलता. स्थल में जल कर रक्खा है. और स्थानों में पुल के नीचे से नाव चलती है यहाँ पुल के ऊपर नाव चलती है और उसके दोनों ओर गाड़ी जाने का मार्ग है और उसके परले सिरे पर चूने के सिंह बहुत ही बड़े बड़े बने हैं. हरिद्वार का एक मार्ग इसी नहर की पटरी पर से है और मैं इसी मार्ग से गया था.
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विदित हो कि यह श्री गंगाजी की नहर हरिद्वार से आई है और इसके लाने में यह चातुर्य किया है कि इसके जल का वेग रोकने के हेतु इसको सीढ़ी की भाँति लाए हैं. कोस कोस डेढ़ डेढ़ कोस पर बड़े बड़े पुल बनाये हैं वही मानों सीढ़ियाँ हैं और प्रत्येक पुल के ताखों से जल को नीचे उतारा है. जहाँ जहाँ जल को नीचे उतारा है वहाँ बड़े बड़े सीकड़ों में कसे हुए दृढ़ तखते पुल के ताखों के मुँह पर लगा दिये हैं और उनके खींचने के हेतु ऊपर चक्कर रक्खे हैं. उन तख्तों से ठोकर खाकर पानी नीचे गिरता है वह शोभा देखने योग्य है.
एक तो उसका महान शब्द दूसरे उसमें से फुहारे की भाँति जल का उबलना और छींटों का उड़ना मनको बहुत लुभाता है और जब कभी जल विशेष लेना होता है तो तखतों को उठा लेते हैं फिर तो इस वेग से जल गिरता है जिसका वर्णन नहीं हो सकता और ये मल्लाह दुष्ट वहाँ भी आश्चर्य करते हैं कि उस जल पर से नाव को उतारते हैं या चढ़ाते हैं. जो नाव उतरती है तो यह ज्ञात होता है कि नाव पाताल का गई पर वे बडी सावधानी से उसे बचा लेते हैं और क्षण मात्र में बहुत दूर निकल जाती है पर चढ़ाने में बड़ा परिश्रम होता है. यह नाव का उतरना चढ़ना भी एक कौतुक ही समझना चाहिए.
इसके आगे और भी आश्चर्य है कि दो स्थान नीचे तो नहर है और ऊपर से नदी बहती है. वर्षा के कारण वे नदियाँ क्षण में तो बड़े वेग से बढ़ती थी और क्षण भर में सूख जाती हैं. और भी मार्ग में जो नदी मिली उनकी यही दशा थी. उनके करारे गिरते थे तो बड़ा भयंकर शब्द होता था और वृक्षों को जड़ समेत उखाड़ के बहाये लाती थी. वेग ऐसा कि हाथी न सम्हल सके पर आश्चर्य यह कि जहाँ अभी डुबाव था वहाँ थोड़ी देर पीछे सूखी रेत पड़ी है और आगे एक स्थान पर नदी और नहर को एक में मिला के निकाला है. यह भी देखने योग्य है. सीधी रेखा की चाल से नहर आई है और बेंड़ी रेखा की चाल से नदी गई है. जिस स्थान पर दोनों का संगम है वहाँ नहर के दोनों ओर पुल बने हैं और नदी जिधर गिरती है उधर कई द्वार बनाकर उसमें काठ के तखते लगाये हैं जिससे जितना पानी नदी में जाने देना चाहें उतना नदी में और जितना नहर में छोड़ना चाहें उतना नहर में छोड़ें.
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जहाँ से नहर श्री गंगाजी में से निकला है वहाँ भी ऐसा ही प्रबंध है और गंगाजी नहर में पानी निकल जाने से दुबली और छिछली हो गई है परंतु जहाँ नील धारा आ मिली है वहाँ फिर ज्यौं की त्यौं हो गई है.
हरिद्वार के मार्ग में अनेक प्रकार के वृक्ष और पक्षी देखने में आए. एक पीले रंग का पक्षी छोटा बहुत मनोहर देखा गया. बया एक छोटी चिड़िया है उसके घोंसले बहुत मिले. ये घोंसले सूखे बबूल काँटे के वृक्ष में हैं और एक-एक डाल में लड़ी की भाँति बीस बीस तीस तीस लटकते हैं. इन पक्षियों की शिल्पविद्या तो प्रसिद्ध ही है लिखने का कुछ काम नहीं है इसी से इनका सब चातुर्य प्रगट है कि सब वृक्ष छोड़ के कांटे के वृक्ष में घर बनाया है. इसके आगे ज्वालापुर और कनखल और हरिद्वार है जिसका वृत्तांत अगले नंबरों में लिखूगा…
मुझे हरिद्वार का शेष समाचार लिखने में बड़ा आनन्द होता है कि मैं उस पुण्य भूमि का वर्णन करता हूँ जहाँ प्रवेश करने ही से मन शुद्ध हो जाता है. यह भूमि तीन ओर सुंदर हरे हरे पर्वतों से घिरी है जिन पर्वतों पर अनेक प्रकार की वल्ली हरी भरी सज्जनों के शुभ मनोरथों की भाँति फैल कर लहलहा रही है और बड़े बड़े वृक्ष भी ऐसे खड़े हैं मानो एक पैर में खड़े तपस्या करते हैं और साधुओं की भाँति घास ओस और वर्षा अपने ऊपर सहते हैं. अहाँ ? इनके जन्म भी धन्य हैं जिन से अर्थी विमुख जाते ही नहीं. फल, फूल, गंध, छाया, पत्ते, छाल, बीज, लकड़ी और जड़ यहाँ तक कि जले पर भी कोयले और राख से लोगों का मनोर्थ पूर्ण करते हैं.
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सज्जन ऐसे कि पत्थर मारने से फल देते हैं. इन वृक्षों पर अनेक रंग के पक्षी चहचहाते हैं और नगर के दृष्ट बधिकों से निडर होकर कल्लोल करते हैं. वर्षा के कारण सब ओर हरियाली ही दृष्टि पड़ती थी मानो हरे गलीचा की जात्रियों के विश्राम के हेतु बिछायत विछी थी. एक ओर त्रिभुवन पावनी श्री गंगाजी की पवित्र धारा बहती है जो राजा भगीरथ के उज्ज्वल कीर्ति की लता सी दिखाई देती है. जल यहाँ का अत्यन्त शीतल है और मिष्ट भी वैसा ही है मानो चीनी के पने बरफ में जमाया है, रंग जल का स्वच्छ और श्वेत है और अनेक प्रकार के जल जंतू कल्लोल करते हुए. यहाँ श्री गंगा जी अपना नाम नदी सत्य करती हैं अर्थात् जल के वेग का शब्द बहुत होता है और शीतल वायु नदी के उन पवित्र छोटे छोटे कनों को लेकर स्पर्श ही से पावन करता हुआ संचार करता है.
यहाँ पर श्री गंगा जी दो धारा हो गई है एक का नाम नील धारा दूसरी श्री गंगा जी के नाम से इन दोनों धारों के बीच में एक सुंदर नीचा पर्वत है और नील धारा के तट पर एक छोटा सा सुंदर चुटीला पर्वत है और उसके शिषर पर चण्डिका देवी की मूर्ति है. यहाँ हरि की पैड़ी नामक एक पक्का घाट है और यहीं स्नान भी होता है. विशेष आश्चर्य का विषय यह है कि यहाँ केवल गंगाजी ही देवता हैं दूसरा देवता नहीं.
यों तो वैरागियों ने मठ मंदिर कई बना लिये हैं. श्री गंगा जी का पाट भी बहुत छोटा है पर वेग बड़ा है, तट पर राजाओं की धर्मशाला यात्रियों के उतरने के हेतु बनीं हैं और दुकानें भी बनी हैं पर रात को बंद रहती हैं. यह ऐसा निर्मल तीर्थ है कि काम क्रोध की खानि जो मनुष्य है सो वहाँ रहते ही नहीं. पंडे दूकानदार इत्यादि कनखल या ज्वालापुर से आते हैं. पंडे भी यहाँ बड़े विलक्षण संतोषी हैं. ब्राह्मण होकर लोभ नहीं यह बात इन्हीं में देखने में आई. एक पैसे को लाख करके मान लेते हैं.
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इस क्षेत्र में पाँच तीर्थ मुख्य हैं हरिद्वार, कुशावर्त्त, नीलधारा, विल्पर्वत और कनखल. हरिद्वार तो हरि की पैड़ी पर नहाते हैं, कुशावर्त भी उसी के पास है, नीलधारा वही दूसरी धारा, विल्व पर्वत भी पास ही एक सुहाना पर्वत है जिस पर विल्वेश्वर महादेव की मूर्ति है और कनखल तीर्थ इधर ही है यह कनखल तीर्थ बड़ा उत्तम है. किसी काल में दक्ष ने यहीं या किया था और यही सती ने शिव जी का अपमान न सहकर अपना शरीर भसम कर दिया, यहाँ कुछ छोटे छोटे घर भी बने है. और भारामल जैकृष्ण खत्री यहाँ के प्रसिध्द धनिक हैं. हरिद्वार में यह बखेड़ा कुछ नहीं है और शुख निर्मल साधुओं के सेवन योग्य तीर्थ है.
मेरा तो चित्त वहाँ जाते ही प्रसन्न और निर्मल हुआ कि वर्णन के बाहर है. मैं दीवान कृपा राम के घर के ऊपर के बंगले पर टिका था. यह स्थान भी उस क्षेत्र में टिकने योग्य ही है. चारों ओर से शीतल पवन आती थी. यहाँ रात्रि को ग्रहण हुआ और हम लोगों ने ग्रहण में बड़े आनंद पूर्वक स्नान किया और दिन में श्री भागवत का पारायण भी किया. वैसे ही मेरे संग कल्लू जी मित्र भी परमानंदी थे. निदान इस उत्तम क्षेत्र में जितना समय बीता बड़े आनंद से बीता.
एक दिन मैंने श्री गंगा जी के तट पर रसोई करके पत्थर ही पर जल के अत्यंत निकट परोस कर भोजन किया. जल के छलके पास ही ठंडे ठंडे आते थे. उस समय के पत्थर पर भोजन का सुख सोने की थाल के भोजन से कहीं बढ़ के था. चित्त में बार बार ज्ञान वैराग्य और भक्ति का उदय होता था. झगड़े लड़ाई का कहीं नाम भी नहीं सुनता था. यहाँ और भी कई वस्तु अच्छी बनती हैं, जनेऊ यहाँ का अच्छा महीन और उज्ज्वल बनता है. यहाँ की कुशा सबसे विलक्षण होती है जिसमें से दालचीनी जावित्री इत्यादि की अच्छी सुगंध आती है. मानो यह प्रत्यक्ष प्रगट होता है कि यह ऐसी पुण्यभूमि है कि यहाँ की घास भी ऐसी सुगंधमय है. निदान यहाँ जो कुछ है अपूर्व है और यह भूमि साक्षात विरागमय साधुओं और विरक्तों के सेवन योग्य है. और संपादक महाशय मैं चित्त से तो अब तक वहीं निवास करता हूँ और अपने वर्णन द्वारा आपके पाठकों को इस पुण्यभूमि का वृत्तांत विदित करके मौनावलंबन करता हूँ. निश्चय है कि आप इस पत्र को स्थानदान दीजिएगा.
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(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1 सितम्बर 1850-6 जनवरी 1885) ने यात्री के नाम से जो पत्र कवि वचन सुधा के संपादक को लिखे और इसके 30 अप्रैल तथा 14 अक्टूबर सन् 1871 के अंकों में छपे थे, से यह आलेख बना है. ये पत्र भारतेन्दु रचनावली में संकलित हैं).
यह लेख पहाड़ पत्रिका के बारहवें अंक से साभार लिया गया है.
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