हरिद्वार नाम का उल्लेख पद्म पुराण में है. इसके ‘उत्तर -खंड’ में गंगावतरण की कथा है. महाभारत के ‘वन-पर्व ‘ में नारद मुनि ‘भीष्म-पुलस्त्य संवाद’ से युधिष्ठिर को हरिद्वार की पावन धार्मिक दैवीय महिमा समझाते हैं :
स्वर्गद्वारेण यत तुल्यम गंगाद्वारम न संशयः.
तत्राभिषेकम कुर्यात कोटितीर्थे समाहितः..
सप्तगंगे त्रिगंगे यशक्रावर्ते च तपर्यन.
देवान पितृंश्च विधिवत पुण्ये लोके महीयते..
लोकविश्वास है कि भगवान विष्णु के चरणों से निसृत गंगा के प्रवेश से हरिद्वार तीर्थ बना. महाभारत में इसे गंगाद्वार कहा गया. कपिल मुनि के नाम पे इसे कपिला कहा गया. माना जाता है कि यह कपिल मुनि का तपोवन रहा. सप्तगंग, त्रिगंग व शक्रावर्त तीर्थ में विधिवत देवता व पितरों का तर्पण कर आत्मिक आनंद का पुण्य फल प्राप्त होता है.
ऐतिहासिक श्रुति है कि सातवीं सदी में ह्वेनसांग इस स्थल पर आया. उसने इसे मोन्यु -लो नाम दिया. प्राचीन मंदिरों एवं किलों के ध्वंसावशेषों वाला मायापुरी गांव ही मोन्यु -लो माना गया. समुद्र मंथन की कहानी में अमृत प्राप्ति के लिए देवता और दानवों के बीच अनवरत युद्ध हुआ .
किसी तरह विश्वकर्मा जब इनसे बचाकर अमृत ले जा रहे थे तो अमृतकलश से कुछ बूँदें छलक कर हरिद्वार में गिर गयीं. तब इस स्थल को जहाँ अमृत छलका हरि की पैड़ी कहा गया. जनश्रुति है कि वैदिक काल में इस स्थान पर शिवशंकर पधारे अतः इसे हर की पौड़ी भी कहा जाता है.
राजा श्वेत ने हर की पौड़ी में भगवन ब्रह्मा की आराधना की. उनकी तपस्या से ब्रह्मा प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा. तब राजा श्वेत ने कहा की यह स्थल भगवन ब्रह्मा के नाम से ही प्रसिद्ध रहे. इसी लिए इसे ब्रह्मकुण्ड कहा गया. यहाँ छतरी स्थल भी है जहाँ अकबर के शासन काल में राजा मान सिंह की अस्थियां ली गयीं थीं. हरि की पौड़ी से दो कि.मी. ऊपर गंगा नदी का अविरल प्रवाह है जिसे नहर द्वारा यहाँ लाया गया है.
हरि की पौड़ी में कुशावर्तघाट और नारायणी शिला में पितरों का श्राद्ध सम्पन्न होता है. वस्तुतः शृद्धा से किया तर्पण ही श्राद्ध है. मान्यता है कि पितृपक्ष में दिवंगत पूर्वज पितृलोक से मृत्यु लोक में संचरण करते हैं. यहाँ उनकी वंशबेल उनका आवाहन करती है. अपने पितर के प्रति शृद्धा प्रकट करती है. पिंडदान व श्राद्ध की क्रिया सम्पन्न करती है.
शास्त्रों में बद्रीनाथ के समीप ब्रह्मकपाल सिद्ध क्षेत्र, गया में फल्गु नदी के तट पर विष्णुपद मंदिर तथा अक्षयवट तो हरिद्वार में नारायणी शिला पूर्वजों के पिंडदान को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं.
आख्यान है कि जब गयासुर राक्षस देवलोक से नारायण का श्रीविग्रह लेकर भागा तो उसका मस्तक वाला भाग बद्रीनाथ के ब्रह्मरूपाली स्थान पर, चरण गया में तथा ह्रदय वाला भाग हरिद्वार में गिरा. स्कंदपुराण के ‘केदारखंड’ में कहा गया कि हरिद्वार में श्रीनारायण का ह्रदय विद्यमान है जिसमें साक्षात् माँ लक्ष्मी विराजमान हैं. इसीलिए यहाँ देवता, पितर व वंश का आवाहन होता है व पितृ पक्ष में श्राद्धकर्म असीम संतुष्टि प्रदान करता है.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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