“तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, हरेले का यह दिन-बार आता-जाता रहे, वंश-परिवार दूब की तरह पनपता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले आकाश की तरह उच्चता प्राप्त हो, सिंह जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले, हिमालय में हिम रहने और गंगा जमुना में पानी बहने तक इस संसार में तुम बने रहो़.”
पहाड़ के लोक पर्व हरेला पर जब सयानी और अन्य महिलाएं घर-परिवार के सदस्यों को हरेला शिरोधार्य कराती हैं तो उनके मुख से आशीष की यह पंक्तियां बरबस उमड़ पड़ती हैं. घर परिवार के सदस्य से लेकर गांव समाज के खुसहाली के निमित्त की गयी इस मंगल कामना में हमें जहां एक ओर ‘जीवेद् शरद शतंम्‘की अवधारणा प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर इस कामना में प्रकृति व मानव के सह अस्तित्व और प्रकृति संरक्षण की दिशा में उन्मुख एक समृद्ध विचारधारा भी साफ तौर पर परिलक्षित होती दिखायी देती है. आखिर प्रकृति के इसी ऋतु परिवर्तन एवं पेड़-पौंधों, जीव-जन्तु,धरती,आकाश से मिलकर बने पर्यावरण से ही तो सम्पूर्ण जगत में व्याप्त मानव व अन्य प्राणियों का जीवन चक्र निर्भर है.
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर कुमाऊं अंचल में हरेला मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है. उमंग और उत्साह के साथ मनाये जाने वाले इस पर्व को ऋतु उत्सवों में सर्वाच्च स्थान प्राप्त है. हरेला पर्व सौरमास श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है. परम्परानुसार पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों में हरेला बोया जाता है. जिसमें उपलब्धतानुसार पांच, सात अथवा नौ प्रकार के धान्य— यथा-धान, मक्का, तिल, उरद, गहत, भट, जौं व सरसों के बीजों को बोया जाता है. देवस्थान में इन टोकरियां को रखने के उपरान्त रोजाना इन्हें जल के छींटों से सींचा जाता है. दो-तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात-आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं. हरेला पर्व की पूर्व सन्ध्या पर इन तृणों की लकड़ी की पतली टहनी से गुड़ाई करने के बाद इनका विधिवत पूजन किया जाता है. कुछ स्थानों में इस दिन चिकनी मिट्टी से शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के डिकारे (मूर्त्तियां) बनाने का भी रिवाज है. इन अलंकृत डिकारों को भी हरेले की टोकरियों के साथ रखकर पूजा जाता है. हरेला पर्व के दिन देवस्थान में विधि-विधान के साथ टोकरियों में उगे हरेले के तृणों को काटा जाता है. इसके बाद घर-परिवार की महिलाएं अपने दोनों हाथों से हरेले के तृणों को दोनों पांव,घु टनां व कंधों से स्पर्श कराते हुए और आर्शीवाद युक्त शब्दों के साथ बारी-बारी से घर के सदस्यों के सिर पर रखती हैं. इस दिन लोग विविध पहाड़ी पकवान बनाकर एक दूसरे के यहां बांटा जाता है. गांव में इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ों का रोपण करने की परम्परा है. लोक-मान्यता है कि इस दिन पेड़ की टहनी मात्र के रोपण से ही उसमें जीवन पनप जाता है.
यदि हम गहराई से देखें तो हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की भूमिका में नजर आता है. मानव के तन-मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती आयी है . यह पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है. हरेला बोने और नौ-दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है. इससे यह सहज पूर्वानुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी. हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की जो परम्परा है वह बारहनाजा अथवा मिश्रित खेती की पद्धति के महत्व को भी दर्शाता है. परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाये जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है क्योंकि संयुक्त परिवार चाहे कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है और तो और कहीं-कहीं पूरे गांव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गांव के मंदिर में भी बोया जाता है. पहले हरेले पर कई स्थानों में मेले भी लगते थे परन्तु आज वर्तमान में छखाता पट्टी के भीमताल व काली कुमाऊं के बालेश्वर व सुई-बिसुंग में ही मेले आयोजित होते है.
कुल मिलाकर देखा जाय तो हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक अवधारणा निहित है. समूचे वैश्विक स्तर पर आज पूंजीवादी और बाजारवादी संस्कृति जिस तरह प्रकृति और समाज से दूर होती जा रही है यह बहुत चिन्ताजनक बात है. पर्यावरण के सिद्वान्तों के अनुरूप ही हम सभी को अपनी सुविधाओं एवं आकांक्षाओं में परस्पर तालमेल बिठाना होगा.इसके लिये पग-पग पर पर्यावरण से सहयोग करना उतना ही जरुरी समझा जाना चाहिए जितना कि उससे लाभ उठाने की इच्छा. इस दृष्टि से भारतीय परंपरा का जिक्र करना उचित होगा. यहां के लोकजीवन के विविध पक्षों में पर्यावरण की महत्ता को पग-पग पर स्वीकार किया गया है. मांगलिक कार्यों में देवी देवताओं के साथ ही यहां प्रकृति पूजा का भी विधान है. विभिन्न व्रत-पर्वों में धरती के प्रतीक कलश की स्थापना कर सूर्य, चन्द्र, नवग्रह, जल, अग्नि सहित दूर्वा, वृक्ष, बेल व पत्तियों को पूजने की परम्परा चली आ रही है. पूजा अर्चना में प्रयुक्त इनकी उपस्थ्तिि हमें इस बात का अहसास कराती है कि यही प्राकृतिक तत्व हमें जीवन प्रदान करते हैं.
भारतीय परंपरा में धरती को हमवेशा से ही माता कह कर पुकारा गया है. ‘माता भूमिः पुत्रो ऽहम् पृथिव्याः‘ यानी धरती मेरी मां और मैं उसका पुत्र हूं. भारतीय साहित्य व लोक मान्यताओं में प्रकृति को सर्वोच्च सत्ता के रुप में आसीन करने और भूमि को देवत्व स्वरुप प्रदान करने की परिकल्पना रची गयी है. अगर गहराई से देखें तो मातृदेवो भव का मतलब जन्म देने वाली मां के अलावा उस धरती मां की सेवा और सुरक्षा से भी है जो हमें अपने अन्न जल से पोषित कर रही है. उत्तराखण्ड में आज भी लोग खेती का कार्य करने से पहिले और नयी फसल को देवताओं को अर्पित करते समय भूमि के रक्षक भूम्याल (भूमिपाल) का आह्वान करते हैं.
ऐसे में निश्चित तौर पर लोक के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व हमें प्रकृति के करीब आने का सार्थक संदेश देता है. समाज और प्रकृति में हरेले की महत्ता को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार भी पिछले साल से सरकारी स्तर पर हरेला मनाने की कवायद कर रही है जिसके तहत राज्य में पर्यावरण और सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये जन चेतना और जागरूता पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं.
अल्मोड़ा के निकट कांडे (सत्राली) गाँव में जन्मे चन्द्रशेखर तिवारी पहाड़ के विकास व नियोजन, पर्यावरण तथा संस्कृति विषयों पर सतत लेखन करते हैं. आकाशवाणी व दूरदर्शन के नियमित वार्ताकार चन्द्रशेखर तिवारी की कुमायूं अंचल में रामलीला (संपादित), हिमालय के गावों में और उत्तराखंड : होली के लोक रंग पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वर्तमान में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में रिसर्च एसोसिएट के पद पर हैं.
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