आज सरकार, समाज सभी हरेला को केवल पर्यावरण से जोड़ने की जुगत में लगे हैं. इसमें सभी के अपने फायदे हैं. हरेला पर्व को केवल पर्यावरण के साथ जोड़ने का एक गंभीर परिणाम यह होगा कि हरेला कुछ वर्षों में केवल एकदिवसीय सरकारी कार्यक्रम से अधिक कुछ न रहेगा.
![Harela and Uttarakhand Government](https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2019/07/66428258_2709364709092223_8738664649420963840_n.jpg)
उत्तराखंड समेत देश का दुर्भाग्य रहा है कि जहां सरकार घुसी है वहां उसने उसका बंटाधार किया है. इसके बहुत अच्छे उदाहरण उत्तराखंड के स्थानीय मेले हैं. उत्तराखंड में होने वाले जितने भी स्थानीय मेलों में सरकार घुसी है वहां अब मेले का मतलब एक मंच, मंच के आगे मुख्य अतिथि और चारों ओर कर्कश ध्वनि में कानफोडू स्पीकर से अधिक कुछ नहीं रहा है.
हरेला पर्व जो दस से ग्यारह दिन का वर्ष में तीन बार होता है वह सरकारी महिमा के चलते साल में एक दिन में सिमटने को रह गया है. सरकार हरेला को जबरन उत्तराखंडी पर्यवारण दिवस बनाने को अग्रसर है.
दस दिन अपने घर में बीज से पौंधे बनने का एक लोक पर्व एक दिन के वृक्षारोपण तक सीमित कर दिया गया है. उत्तराखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री को शायद ही पता हो कि पिछले बरस उनके द्वारा जो हरेला पर्व पर लाख वृक्ष लगाये गये थे उनका क्या हाल है? सरकार में शायद ही कोई जानता हो कि पिछले बरस हरेला के दिन लगे लाखों पेड़ों में कितने हज़ार पेड़ अब बचे हैं.
![Harela and Uttarakhand Government](https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2019/07/10511227_424487744356572_1314384165883774058_n-1.jpg)
अगर इतने सालों में उत्तराखंड की कोई भी सरकार हरेला लोकपर्व को लेकर जरा सी भी संवेदनशील होती तो हरेला पर्व को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करती और अपने बच्चों को पढ़ाती कि प्रकृति प्रेम क्या होता है, कैसे अपनी प्रकृति के साथ जिया जाता है.
हरेला एक लोकपर्व है जिसमें पौधों नहीं बीज बोये जाते हैं उन बीजों की परवरिश होती है और वहीं जब पौंधे बनते हैं तब जाकर उन्हें पूजते हैं अपने माथे पर लगा कर आशीर्वाद लेते हैं. सरकार ने हरेला पर्व के पहले दस दिन खा दिये उसे बस बना बनाया पौधा चाहिये और फोटो चाहिये. खैर, कल हरेला है जिसे उत्तराखंडी पर्यवारण दिवस होने से यहां के लोग ही बचा सकते हैं.
-गिरीश लोहनी
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