मानवीय बसावत में जीवन के कई रंग दिखाई देते हैं. ये बात अलग है कि कुछ रंगों को हम अपनी सुविधा से सामाजिक मान-प्रतिष्ठा देकर तथाकथित बड़ा बना देते हैं. और कुछ सामाजिक जीवन में बिखरे-गुमनाम से यहां-वहां दिखाई देते हैं. वे अपने आपको समेटे पर पूरी संपूर्णता से मदमस्त जीवन जीते हैं. यद्यपि दुनियादारी में फंसे लोग उनके प्रति सहानुभूति के भाव से ऊपर नहीं उठ पाते हैं. उनकी जीवंतता लोगों को हैरान करती है. जिस दिन वो ना दिखें तो उससे उपजा शहर का खालीपन कचोटता भी है. Guyan Mama of Srikot is a Unique Pahari Character
ऐसे ही ‘गुंया मामा’ हर शहर-देहात का वो चेहरा है, जिससे चंद लोगों को ही सही पर बेपनाह मोहब्बत है.
आप श्रीकोट (श्रीनगर गढ़वाल) में रहते हैं और ‘गुयां मामा’ को नहीं जानते. ये तो ताज्जुब वाली बात है. फक्कड़ी का मस्तमौला बादशाह ‘गुयां मामा’ बोलते कम और हंसते ज्यादा है. दुनिया पर और अपने आप पर भी. हम जैसे दुनियादारी में फंसे लोगों की बेचारगी वाली हालत पर तो जरूर हंसते होंगे. बरस 72 में 27 की उमर की उमंग उनके चेहरे पर विराजमान है. ढ़लान की उम्र ने चलने-फिरने में थोड़ा दिक्कत जरूर की है पर मन की रौनक से उम्र का क्या वास्ता ? Guyan Mama of Srikot is a Unique Pahari Character
ताउम्र दिन-रात फक्कड़ी में जीने वाले ‘गुयां मामा’ के बारे में आप जानना चाहेंगे. तो फिर देर किस बात की-
देवप्रयाग के पास ही है कोठी गांव. कोठी के कुटियाल हुए ‘गुयां मामा’. रामसेवक कुटियाल नाम रखा माता-पिता ने अपने एकलौते पुत्र का. पर जगत में पहचान मिली ‘गुयां मामा’ से. ‘गुयां’ नामकरण की भी अजब कहानी है. वैसे यह बात अजब-गजब आज के जमाने के हिसाब से हुई. गांवों में पचास-साठ साल पहले हमारे समाज में यह सामान्य चलन रहा होगा. बडे-बुर्जुगों से ऐसे किस्से हम और आपने बहुत से सुने होंगे. तबके जमाने में अपने बच्चे पर किसी और की बुरी नजर न लगे इसलिए उसका कोई बिगड़ा नाम रख लेते थे. इस टोटके के वशीभूत होकर दिखावे के रूप में बच्चे की परवरिश में लापरवाही भी रखी जाती थी. ताकि बुरा चाहने वालों और अनिष्टकारी प्रेतात्माओं की नजर बच्चे पर न जाए. इसी अंधविश्वास का शिकार बचपन में रामसेवक कुटियाल भी हुए. उनके मां-पिताजी की उनसे पहले की संतानें पैदा होते ही प्रभु को प्यारी हो जाती थी. जब उनका जन्म हुआ तो ये सोचकर इस बच्चे पर किसी की बुरी नजर न लगे, ऐसा ही टोटका अपनाया गया. नतीजन, पैदा होते ही ‘गुयां’ नाम (किसी काम का नहीं याने बेकार) उनका हो गया.
चलो, नाम तो बाद में उनका सुधर भी जाता परन्तु मां-पिताजी ने परवरिश में ऐसी लापरवाही बरती कि नये जमाने के पढ़ने-लिखने और काम-काजी हुनर से उनका नाता ही नहीं जुड़ पाया.
‘गुयां मामा’ का पुश्तैनी काम बद्रीनाथ में पण्डा-पुरोहिती हुई. लिहाजा, बचपन में इधर-उधर भटकने के बाद किशोरावस्था में पिताजी के साथ बद्रीनाथ में पण्डागिरी से जुड़ गए. यात्रा सीजन में बद्रीनाथ और सर्दियों में देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में ‘गुयां’ जी का जीवन गुजरने लगा. परन्तु माथे पर फक्कड़ी का चक्र-चाल जो बना था. इसलिए एक जगह वे क्यों रहते ? पैदल कहीं के कहीं निकल जाते फिर महीनों बाद वापस देवप्रयाग के घर आना होता था. देवप्रयाग से बद्रीनाथ और ऋषीकेश पैदल आना-जाना जीवन में कई बार हुआ. ये उनके लिए बड़ी बात नहीं थी. घर-गृहस्थी और पुस्तैनी जमीन-जायदाद से कभी मोह ही नहीं हुआ. जब तक मां-पिताजी जिन्दा थे तो कोई विशेष परेशानी नहीं हुई. परन्तु मां-बाप गुजरने के बाद पैरों के नीचे धरती और सिर के ऊपर खुला आसमान ही उनका अपना था. मतलब की दुनिया से तो वो कब का किनारा कर चुके थे. Guyan Mama of Srikot is a Unique Pahari Character
श्रीकोट (श्रीनगर गढ़वाल) ननिहाल हुई, इसलिए यहां बेफिक्र रहना उन्हें बचपन से ही प्रिय था. बचपन से जवानी तक उनके महीनों ननिहाल में रहते हुए गुजर जाते थे. मां-पिताजी के मृत्यु के बाद भी कुछ काम-धाम करने की उनकी कभी इच्छा ही नहीं हुई. मन हुआ किसी होटल या दुकान में कुछ महीने काम कर लिया. काम करने से मन भर गया तो जहां मन हुआ वहां की ओर चल दिए. फिर महीनों गायब. कहने को तो घर-गांव और बद्रीनाथ में पुश्तैनी जमीन-जायदाद हुई. पर कौन दुनियादारी के लफड़े में पड़े. जिन्दगी में आवारगी से बढ़कर और कौन सी शाही दौलत है ? जिसके लिए मारामारी की जाए. मतलब फकीरी के सामने किसी भी दौलत की क्या हैसियत है ? उनका ये ध्येय विचार हमेशा अटल रहा है. कुछ साल पहले तक भाई-बंधु कभी-कभार मदद कर जाते थे. अब तो कई साल से उनकी तरफ से भी ‘जय श्रीराम’ ही हो गया है.
श्रीकोटियों का कहना है कि तकरीबन पिछले पचास सालों से ‘गुयां मामा’ श्रीकोट का अहम हिस्सा हैं. ‘गुयां’ जी को श्रीकोटी ननिहाल में भान्जा कहने वाले अब तो गिनती के ही होगें, पर मामा कहने वाले चारों ओर हैं. असली बात यह भी है कि बचपन से उन्हें ‘गुयां मामा’ कहने वाले भी अब बुजुर्ग हो गए हैं. उनके खाने-पीने, पहने और रहने की व्यवस्था में श्रीकोट के लोग पीछे नहीं रहते हैं. सुबह से शाम तक ‘मामा ठीक हो’/‘खाना खा लिया’/‘कोई दिक्कत तो नहीं है’/‘कुछ लाना तो नहीं है’ कहने वालों की स्नेही आवाज सुनते-सुनते ही उनका पूरा समय मजे से कट जाता है. तभी तो दिन हो या रात ‘गुयां मामा’ को श्रीकोट में कहीं भी-कभी भी उसकी मधुर मुस्कराहट के साथ देखा जा सकता है. अपने आप में मदमस्त उनकी ख्यालों की दुनिया में हम जैसे दुनियादारी वालों का कोई मतलब नहीं है.
–अरुण कुकसाल
(वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है)
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