गोधनोत्सव उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में दीपावली के दूसरे दिन यानि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाने वाला पशुत्सव है. इस तरह का त्यौहार देश के लगभग सभी हिस्सों में अलग-अलग समय में कृषक समुदाय द्वारा मनाया जाता है. (Govardhan Festival of Kumaon)
नाम और मनाये जाने वाले दिन में साम्यता के कारण लोग इसे मैदानी हिस्सों में मनाये जाने वाले गोवर्धन पूजा की तरह ही समझते हैं, जिसमें गोवर्धन पर्वत की पूजा की जाती है.
यह गोवर्धन नहीं बल्कि गोधन है, यह गोवर्धन पूजा से बिल्कुल अलग एक पशुत्सव है. इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि यह त्यौहार वृजक्षेत्र की गोवर्धन पूजा से न मिलकर अन्य क्षेत्रों के पशुचारक समुदाय में प्रचलित गौ-पूजन से मिलता-जुलता है.
कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों के पशुपालक, किसान इस दिन सुबह-सुबह गोधन (गायों तथा बैलों) के सींगों में घी मलकर, कच्ची हल्दी को पीसकर मठे में मिलाये गए चावल के घोल से किसी खुले मुंह के पात्र, गिलास, कटोरी आदि से इनके सम्पूर्ण शरीर में थापे (ठप्पे) लगाते हैं. इन्हें खाने के लिए बढ़िया चारा और दाना भी दिया जाता है. इनकी घंटियों में नए डोरे लगाए जाते हैं, सिर फूलों से सजाये जाते हैं. घर में खीर, हलवा, पूड़ी आदि पकवान बनाये जाते हैं. (Govardhan Festival of Kumaon)
थापा लगाने वाला ग्वाला हलवा-पूड़ी को एक गमछे या वस्त्रखंड के दोनों कोनों में बांधकर अपने कंधे में आगे-पीछे लटकाकर थापा लगाते हुए मंगलकामना के गीत गाता है. ‘गोधनि म्हारा (महाराज) की लतकनि भारी, थोरी दे बाछी दे’ अर्थात हे गोधन देवता तुम हमारी गायों को बछिया तथा भैंसों को कट्टियां (थोरियां) देना. कुमाऊँ में गोवर्धन पूजा के दिन गायों को लगाते हैं थाप
पिथौरागढ़ के कुछ गांवों में अमावस से द्वितीया तक तीनों दिन गाँवों में बच्चों की टोलियां घूम-घूम कर हर दरवाजे पर गृहस्वामि के दीर्घ जीवन की मंगलकामना के गीत गाती हैं, इसके बदले हर घर से चावल भी मांगे जाते हैं. इसे भैल मांगना कहा जाता है. अब यह परंपरा लुप्त हो रही है.
(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी.डी. शर्मा के आधार पर)
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