गुडी गुडी डेज़
(हीरामन– हीराबाई संवाद; नाम में क्या रक्खा है)
अमित श्रीवास्तव
हीराबाई- हीराबाई
हीरामन- हीरामन
हीराबाई- आह! हीरा! हम तुमको मीता कहेंगे फिर… हमारा नाम एक ही है न इसलिए
हीरामन- नाम में क्या रक्खा है. बात सही लगती है. किसी महान साहित्यकार ने कहा है, मुझे उनका नाम मालूम है लेकिन नाम में क्या रक्खा है. तब तक महान लगती है ये बात जब तक कोई महान व्यक्ति इसे काट नहीं देता. आजकल महान बातों की काट का फैशन है. मालूम? फ़टाफ़ट कट रही हैं. कोई एक महान बात उठाता है दूसरा फटाक से उसे काट देता है.
हीराबाई- आह! काट देता है? ऐसा?
हीरामन- और? एक कहता है `कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन’ दूसरा काट देता कर्म वर्म नहीं सब नसीब की बात है. एक `अहिंसा परमो धर्मः’ कहकर गांधी की मूर्ति लगाता है दूसरा लात मारकर मूर्ति गिरा देता है फिर गोडसे को प्रतिस्थानी के रूप में लाकर घोषणा करता है `वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति.’ विदेश घूमने गए धन को `प धन बिदेस चली जात है इहै अति ख्वारी’ कहकर कोसता है उसे वापस लाने की बात करता है दूसरा इस जुमले को मज़ाक कहकर विदेशियों का धन और ध्यान आपनी ओर खींचने के लिए सरल रास्ते बनाने की बात करता है. कुल मिलाकर बड़ा घालमेल चल रहा है.
हीराबाई- ऐसा?
हीरामन- और? अब तो लगने लगा है कि नाम में कुछ तो रक्खा है. न होता तो नेम प्लेट, विजिटिंग कार्ड, लोकार्पण पट्टियां इनका इतना फैशन न होता. सोचिये अगर आपके शादी कार्ड में आपका नाम ही न छपता या किसी और का छप जाता. विधायक के नाम की ही बिसात है कि उसके प्रतिनिधि भी गाड़ी में बोर्ड लगाकर घूमते हैं. अब तो विजिटिंग कार्ड भी ऐसे दिखने लगे हैं अलाना विधायक के साढू भाई. मालूम? कहना ज़रूरी नहीं कि `के साढू भाई’ बहुत छोटे फॉण्ट में लिखा होता है. ठीक भी है जो चीज़ बड़ी होनी चाहिए वो है.
हीराबाई- पर हम तो अब भी कहेंगे…
हीरामन- नाम में कुछ न होता तो रोडवेज के बाहर सार्वजनिक शौचालय के भूमि पूजन पर अलग शिलालेख, शिलान्यास, उदघाटन, लोकार्पण सब पर अलग-अलग शिलालेख न होते. मालूम? प्लान तो ये था कि पहली ईंट धराई, लक्कड़ लगाई, चिनाई, गारा-सीमेंट ढुलाई, पुताई सब पर अलग-अलग ही शिलालेख लगते लेकिन फिर देखा गया कि शिलालेखों का कुल बजट शौचालय से ज्यादा हो गया तो लोगों को अपनी भावनाओं पर काबू रखना पड़ा. सब अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा डालने वाली फीलिंग की महिमा है. अब उस कुत्ते को कौन समझाए जो शिलापट को ही शौचालय समझ बैठता है.
हीराबाई- कुत्ता? शौ… शौ… क्या कहते हैं आप?
हीराबाई- बात कहने की नहीं समझने की है मालूम? समझिए कि नाम बड़ा होता है संस्थाएं नहीं. नाम बड़ा हो तो कोई प्रजातंत्र में राजशाही के मजे लूट ले. आपने मिनिस्टर विदाउट पोर्टफोलियो सुना होगा लेकिन मिनिस्टर डीपोर्ट- फोलियो वाले विभाग बन जाएं तो? विदेश मंत्री विदेश न जाके उसे झुमरीतलैया भेज दिया जाए कि मानो यही विदेश है और न मानो तो एक विदेश वहीं बना लो, तो? सूचना एवं प्रसारण मंत्री अपने मन की बात न प्रसारित कर पाए उसे छत पर चढ़ाकर एंटीना ठीक करने का काम दे दिया जाए तो? मानव संसाधन विकास मंत्री सिलाई-कढ़ाई सेंटर में बैठने लगे या वित्त मंत्री चूहा मारने की दवाई ढ़ूढ़ने में लग जाए तो? ये तो वैसा ही है न जैसे गाँव की प्रधान तो पत्नी हो लेकिन नाम प्रधानपति का हो. मने एक बात कह रहे हैं हम. ‘करता हूँ मैं कन्हैया तेरा नाम हो रहा है’ का मामला बन जाए कि नहीं?
हीराबाई- अरे… अरे… इसमें संस्था कौन सी? मंत्री? चूहा? कन्हैया कौन हुआ… क्या मतलब हुआ भला?
हीरामन- मतलब… मतलब जानना है तो एक कहानी सुनो…
हीराबाई- आँ
हीरामन- हां… हुंकारी देते चलना. एक बार जंगल के चुनाव में बड़ा उलटफेर हुआ. सियार ने सब्जबाग अच्छे दिखाए सो उसे राजा बना दिया गया. राजा तो बन गया लेकिन नाम वही रहा उसका ‘सियार.’ कोई उसे शेर कहकर न बुलाता. सियार को अपना ही नाम अमर हो जाने का खतरा था. अगर यही अमर हो गया तो मजा नहीं है. उसने बोर्ड ऑफ साइकोफैंट्स की आपात बैठक बुलाई. एक से बढ़कर एक सुझाव आये. मालूम? एक ने राय दी कि वो अपने दिल की बात कहकर अच्छी बातें सबको बताए. चाहे तो उसमें कुछ सच्ची बातें भी शामिल कर लें. लेकिन इतनी करे कि बाद में असली वालों से खतरा न हो. लोग समझेंगे कि आप कितने महान हैं नाम अपने आप हो जाएगा. पिछले राजा ने चुप रहना चुना था. कोई नाम नहीं कमा पाया. राजा को बात जम गई. उसने एक दिन मुक़र्रर किया और आदेश दिया कि सब कान लगाकर सुनें. उस दिन उसने अपना मुह ऊपर किया यों कि लोगों को लगे साक्षात आकाशवाणी हो रही है और कहना चाहा `साथियों आपका ये दास आपकी गरीबी मिटाएगा’ पर ये क्या मुह से तो बस ‘हुंवा हुंवा’ निकला. उसने कहना चाहा `दोस्तों आप शराब मत पीजिए, नशा मत कीजिये हम आपको दूसरा नशा देंगे’ लेकिन मुह से निकला ‘हुंवा हुंवा.’ उसने कहना चाहा `जमीन पर बड़े कीटाणू हो गए हैं बैठने से पहले पूँछ चला दें’ लेकिन फिर वही ‘हुंवा हुंवा.’
हीराबाई- हूँ… आँ
हीरामन- स्कीम कारगर नहीं थी. उसने फिर सलाहकारों से पूछा. एक ने सलाह दी- ऐसा करते हैं दूर जंगल से दुनिया के सबसे ताकतवर राजा को बुलाते हैं उसके साथ फोटो खिंचवाकर जंगल में बंटवाते हैं. सारे प्राणी डर के कारण ही आपको मान देंगे और कालान्तर में नाम हो जाएगा. ऐसा ही किया गया. एक ऐसे राजा को बुलवाया गया जिसने अपने सिपाही भेज भेज कर दुनिया भर के जंगलों में अंदरूनी राज कायम कर रक्खा था. वो आया भी. फ़ोटो भी खिंची. जंगल में जानवरों को कुछ पल लगा भी कि देखो तो जिसका दुनिया भर में नाम है वो हमारे राजा के बुलावे पर आया. लेकिन जादू ज्यादा दिन नहीं चला. लोग फिर से उसे सियार कहने लगे. इसका उल्टा भी करके देख लिया. दूसरे जंगलों में जा-जाकर. लेकिन अंततः मामला वहीं… सिफर.
हीराबाई- हूँ
हीरामन- जस राजा तस सलाहकार. हारे नहीं. उन्होंने फिर एक साफ़ सुथरी सलाह दी. जंगल में फिलहाल पतझड़ का मौसम है कई सालों से. क्यों न ऐसा करें कि गिरे पड़े पेड़, टहनियाँ, पत्ते, जानवरों की लाशें, तमाम गंदी चीजें हटा दें यहाँ से. एक बड़ा अभियान चलाते हैं सबको घसीटते हैं इसमें. उन्हें ये गंदगी दिखाते हैं वो शर्म से पानी पानी हो जाएंगे और खाना पानी भी नहीं मांगेंगे हमसे. आइडिया पसंद आया. एक बड़े इवेंट मैनेजर को बुलाकर शुरुआत की गयी. कुछ दिन सब लोग भूक प्यास भूलकर जुट गए अपनी शर्म मिटाने में. फिर धीरे-धीरे मन उचटने लगा. मालूम? यहाँ-वहाँ की बातें करने लगे. `लोमड़ी संतुष्टि भोजनालय’ का सारा कूड़ा हम जैसे चार सौ घरों से ज्यादा है, `हाथी लम्बोदराय फैक्ट्री’ का कचरा हमारी जैसी चार सौ सोसाइटीज़ से निकले सामूहिक कचरे पर भारी होगा, `ऊँट ग्रीवा पेपर एंड पल्प’ की चिमनी से जितना धुआँ निकलता है वो हमारे घरों की चार हजार चिमनियां चार सालों में भी नहीं निकाल सकतीं. असल गंदगीकर्ता तो ये हैं, इन्हें बुलाकर तो आप चाय पिलाते हैं और हमसे कहते हैं को बेशर्मों, तुम मूंगफली खाकर अखबार फेंकते हो! ऐसा कहने लगे सब. फिर से नाम अमर होने की संभावनाए क्षीण होने लगीं.
हीराबाई- हूँ
हीरामन- इस बार सलाहकारों ने सीधी-सादी, सच्ची सलाह दी. लोग आपको शेर इसलिए नहीं मानते क्योंकि आप उस जैसे दिखते नहीं. शेर के शरीर पर धारियां होती हैं आपका शरीर सपाट है. कोई बात नहीं, आजकल टैटू का ज़माना है. आप शेर धारियों का टैटू करवा लें. राजा को बात पसंद आ गयी. उसने अपने शरीर पर धारियां बनवा लीं और उसपर शेर-शेर लिखवा लिया. ये सोचकर खुश हुआ कि अब उसका नाम अमर होकर रहेगा. जंगल के जो प्राणी इससे अनजान थे वो डर के मारे चुप रहे और जो जानकार थे वो भी चुप रहे… शायद बारिश का इन्तजार कर रहे थे.
हीराबाई- हूँ
हीरामन- क्या हूँ… न बारिश हुई न धूप. फिर सलाहकारों की ही सलाह पर उसने अपने नाम के ख़ुत्बे पढ़वाए. उन कसीदों की शुरूआत बड़ी अच्छी होती थी लेकिन फिर ध्यान लगा कर सुनने में वही सुनाई देता- ‘हुंवा हुंवा’ क्योंकि राजा का दिया हुआ नशा इतना तीखा था कि बोर्ड ऑफ साइकोफैंटस के सारे सदस्य उसी के रंग में रंगे रहते. वैसा ही बोलते जैसा वो बोलता. मामला वहीं रहा ढाक के तीन पात.
हीराबाई- हूँ… अच्छा फिर? आगे?
हीरामन- हूँ आगे… आगे की कहानी तो मैंने नहीं सुनी… पर सुना है उसने जंगल के राजशाही की सब मुहरें बदलवा दी हैं…
हीराबाई- दी ‘हैं’ मतलब?
हीरामन- शेर का चेहरे हटा कर अपना लगाने की तैयारी है या कुछ और, पता नहीं… सारे लाइसेंस कैंसिल हो गए हैं… न घास मिल रही जानवरों को न टहनी…
हीराबाई- हो गए ‘हैं’ मतलब… आप आप ठीक तो हैं? ये अचानक आपको क्या हुआ? आप कहानी सुनाते-सुनाते
हीरामन- देखो न धूप खिली है न बारिश… नहीं… नहीं, धूप भी आ गई है बारिश भी. और ये आवाज़… जाने कहां से… शायद चौथे लोक से, शायद ग्यारहवीं दिशा से, शायद तेरहवीं राशि से जाने कहाँ से फ़ातिहे की आवाज़ आ रही है सुनो… सुनो ना…
हीराबाई को तो नहीं सुनाई देती वो आवाज़… आपको?
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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