नैनीताल जिले का छोटा सा कस्बा मुक्तेश्वर अंग्रेजों की देन है. लिंगार्ड नामक एक अंग्रेज ने इसकी खोज की और उसके बाद ब्रिटिश हुकूमत ने अनुसन्धान कार्यों के लिए इसको चुना. धीरे-धीरे आजादी के बाद आईवीआरआई (भारतीय पशु चिकित्सा अनुसन्धान संस्थान) अस्तित्व में आया और अनुसंधान कार्य की नयी गाथा लिखता चला गया.
खैर, हम यहाँ बात कर रहे हैं इन ब्रिटिश कालीन गोंग टॉवरों की जो आज भी सीना तान खड़े तो हैं पर अब उपयोग में नहीं लाये जाते. आजादी के बाद भी वर्ष 2009-10 तक यह उपयोग में लाए जाते रहे मगर अब यह प्रयोग में नहीं लाए जाते.
अभियांत्रिक अनुभाग के पास लगे घण्टे में दरार आने के चलते अब यह उपयोग में नहीं लाया जाता. स्कूली छात्रों के लिए इस घण्टे की आवाज बहुत महत्वपूर्ण हुआ करती थी खासकर तब जब घर पर मम्मी कहा करती थी बेटा 6 बजे खेल खत्म कर घर आ जाना.
अतीत के पन्नों से जुड़ी यादों को खंगालें तो इस घण्टे की आवाज से जाने कितनों की कितनी गाथाएं शुमार हों चलेंगी. मगर आज इसकी आवाज गुम है यह मूक हो चला है. आईवीआरआई प्रशासन ने इसकी खोई आवाज लौटाने का शायद ही कोई प्रयास किया हो.
आपको बता दें यही वह घण्टा है जो हर घण्टे चौकीदार द्वारा बजाया जाता था और यदि संस्थान के अंतर्गत आने वाले जंगलों में आग लग जाये या कोई घटना घट जाए जिसमें मैन पावर की जरूरत हो तो इसे लगातार बजाया जाता था. इसकी ध्वनि सुन कर्मचारी घरों से बाहर निकल सेंट्रल ऑफिस में एकत्र हो जाते थे और फिर वहां प्रभारी द्वारा उन्हें दिशा-निर्देश दिए जाते थे. मगर अब यह सब बीते जमाने की बात हो गयी.
इसके बाद आता है सेंट्रल ऑफिस के पास लगा छोटा घण्टा जो सुबह 9:30 पर बजाया जाता था जो कि कर्मचारियों के लिए अलार्म का काम करता था, यह संकेत था कि अब आपकी ड्यूटी शुरू हो चुकी है अपने काम पर या सीट पर बैठ जाएं. इस घण्टे का यह ट्रेंड गजब के अनुशासन की याद दिलाता था. मगर वक़्त के साथ इस परम्परा का भी गला घोंट दिया गया.
बुजुर्ग आज भी उस दौर को याद करते हुए बताते हैं कि अंग्रेज अनुशासनप्रिय थे. घण्टों की आवाज सुनते ही लोग अपने कार्य पूर्ण करते थे. दिन हो या रात, मौसम खराब हो या बर्फ पड़ी हो, चौकीदार हर घण्टे इन घण्टों को नियमित रूप से बजाते थे.
बाहर से आने वाले सैलानियों के लिए भी ये कम आकर्षण का केंद्र नहीं थे, जब-जब घण्टे की ध्वनि उनके कान पर जाती मन में जिज्ञासा होती कि यह आवाज कैसी? फिर किसी स्थानीय निवासी से पूछते ये घण्टे की आवाज कैसी? और फिर वही इतिहास के पन्नो में दबी कहानी का छोटा सा अंश, कि भाईसाहब समय के हिसाब से हर घण्टे यह बजाया जाता है.
इसके बाद आता है सबसे बड़ा घण्टा जो संस्थान प्रभारी और छात्रावास के समीप लगा है इस घण्टे को अंग्रेजों ने ऐसे लगाया है कि हवा के रुख के हिसाब से जब भी इसे बजाया जाए तो इसकी आवाज अल्मोड़ा तक जाए. जी! सही पढ़ा आपने अल्मोड़ा तक.
ब्रिटिश शासन काल में मुक्तेश्वर के सबसे करीब फायर ब्रिगेड स्टेशन अल्मोड़ा था और मुक्तेश्वर से अल्मोड़ा पैदल और घोड़ों के माध्यम से आसानी से आया जा सकता था, कोई घटना, दुर्घटना या आपातकालीन जरूरत पर अल्मोड़ा में तैनात ब्रिटिश सेना की टुकडी जल्द ही मुक्तेश्वर पहुँच सकती थी. इसलिए इस घण्टे को यहां लगाया गया था. बुजुर्ग खीम सिंह बताते हैं कि इस घण्टे का केवल तभी प्रयोग किया जाता था जब क्षेत्र में सैन्य सेवा की जरूरत होती थी. मगर इसकी अब जरूरत नहीं इसलिए आजादी के बाद से ही इसे बंद कर दिया गया था. लेकिन आज इतने वर्षों के बाद भी यह उसी दृण संकल्प के साथ खड़ा है.
हल्द्वानी में रहने वाले भूपेश कन्नौजिया बेहतरीन फोटोग्राफर और तेजतर्रार पत्रकार के तौर पर जाने जाते हैं.
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