विगत कुछ सालों से महानगरों में खप रहे युवाओं के बीच पहाड़ लौटकर कुछ कर गुजरने का एक नया, सकारात्मक चलन देखने में आ रहा है. ये युवा बहुत उम्मीद के साथ पहाड़ लौटते हैं और खुद पहाड़ की उम्मीद बन जाते हैं. हम ‘काफल ट्री’ के माध्यम से ऐसे युवाओं की कहानियां भी सामने ला रहे हैं. इसी कड़ी में नया नाम है हल्द्वानी के करन जोशी का. करन लेकर आये हैं गिर्दा का एक गीत (Girish Tiwari Karan Joshi)
सेंट पॉल्स से स्कूली पढ़ाई करने के बाद करन ने एमबीपीजी से आगे की शिक्षा ली. जैसी कि उत्तराखण्ड के युवाओं की नियति ही है, कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद करन दिल्ली चले गए या कह सकते हैं जाना पड़ा.
करन का मन संगीत में रमता था. बचपन से ही गिटार बजाने का शौक था. उम्र बढ़ने के साथ शौक भी परवान चढ़ता गया. बगैर किसी प्रोत्साहन के उन्होंने गिटार हाथ में थामा और उसे बजाने में महारथ हासिल करते रहे. यह वह वक़्त था जब पढ़ाई-लिखाई के अलावा किसी भी अन्य गतिविधि में मन रमाना समय की बर्बादी समझा जाता था. उस समय छात्र-युवाओं के लिए पढ़ाई-लिखाई से इतर अन्य क्षेत्रों में अवसर भी न के बराबर ही हुआ करते थे. सो माँ-बाप समय की ऐसी बर्बादी करने से बच्चों को भरसक रोकने की कोशिश किया करते थे.
संसाधनों का अभाव था तो किसी म्यूजिक टीचर से संगीत और गिटार की औपचारिक शिक्षा ले पाने की स्थिति भी नहीं थी. करन ने खुद के प्रयासों और दोस्तों की मदद से गिटार बजाना सीखा और कॉलेज पहुँचने तक अच्छे साजिंदे बन गए. उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ संगीत साधना जारी रखी. कॉलेज के दिनों में ही उत्तराखण्ड के कई रॉक बैंड्स के लिए गिटार बजाने और गाने का सिलसिला भी शुरू हो गया.
गिटार बजाने और गाने के अलावा करन ने गाने लिखना और म्यूजिक कम्पोज करना भी शुरू कर दिया. 2013 में उत्तराखण्ड आयी आपदा पर लिखे और कम्पोज किये उनके गीत ‘शिवा’ को तब काफी सराहना मिली.
जिंदगी की जरूरतें करन को दिल्ली एनसीआर ले गयी मगर संगीत का शौक वहां भी बरकरार रहा. उन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करते हुए अपनी संगीत यात्रा जारी रखी. दौड़ते-भागते वक़्त ने संगीत के लिए मौका कम कर दिया. लेकिन शहरी जीवन के खुरदुरेपन में मुलायम पहाड़ भीतर पाँव पसरता गया. दिल्ली में रहने के दौरान करन का उत्तराखण्ड के लोकसंगीत की ओर रुझान और ज्यादा बढ़ गया.
अंततः करन ने तय किया के वे महानगरों की इस दौड़ती-भागती जिंदगी को अलविदा कहकर अपने राज्य लौट जायेंगे और उत्तराखंडी लोकसंगीत के क्षेत्र में कुछ अलग और नया करने की कोशिश करेंगे. करन ने बहुराष्ट्रीय कंपनी की अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दिया और हल्द्वानी लौट आये. यहाँ जल्द ही उन्हें एक निजी स्कूल में संगीत शिक्षक का काम भी मिल गया. उन्होंने अपने प्रयोगों से नयी पीढ़ी को लोकसंगीत से जोड़ने के बारे में सोचना शुरू किया.
उन्होंने ‘केदारनाद’ नाम से अपना यूट्यूब चैनल बनाया और अपना पहला पहाड़ी गाना तैयार किया. अपनी शुरुआत के लिए करन ने उत्तराखण्ड के जाने-माने रंगकर्मी, कवि तथा सामाजिक कार्यकर्त्ता गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की चर्चित कविता को चुना. लोकसंगीत की दिशा में शुरुआत के लिए इससे अच्छा विषय और भला हो भी क्या सकता था.
सीमित संसाधनों में करन ने गिर्दा के गीत ‘ओ दिगो लाली’ की रूहानी कम्पोजीशन तैयार करने की कोशिश की और इस गीत को दिल की गहराइयों से अपने अंदाज में गाया. गिर्दा के गीत के साथ करन के सुरों की यह संगत कैसी बन पड़ी है यह तो श्रोता ही बेहतर बताएँगे. लेकिन लोकसंगीत के दरवाजे पर नवयुवकों की दस्तक उत्तराखण्ड के लिए एक शुभ संकेत जरूर है. आप भी नीचे दिए गए लिंक में इस जुगलबंदी का रस लें.
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