आज जनकवि गिरीश चन्द्र तिवारी ‘गिर्दा’ की पुण्यतिथि है. 22 अगस्त 2010 को अपने सभी प्रियजनों को अलविदा कहने वाले ‘गिर्दा’ एक जनकवि के साथ लोक के मयाले कवि हैं. उनकी यह कविता कबाड़खाना ब्लॉग से साभार ली गयी है.
(Girish Chandra Tiwari Poem Kosi)
जोड़ – आम-बुबु सुणूँ छी
गदगदानी ऊँ छी
रामनङर पुजूँ छी
कौशिकै की कूँ छी
पिनाथ बै ऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
कौशिकै की कूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
क्या रोपै लगूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
क्या स्यारा छजूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
घट-कुला रिङू छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
कास माछा खऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
जतकाला नऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
पितर तरूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
पिनाथ बै ऊँछी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
रामनङर पुजूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
जोड़ – रामनङर पुजूँ छी,
आँचुई भर्यूँ छी, – (ऐ छू बात समझ में ? जो चेली पहाड़ बै रामनगर बेवई भै, उ कूँणै यो बात) –
पिनाथ बै ऊँ छी,
रामनगङर पुजूँ छी,
आँचुई भर्यूँ छी,
मैं मुखड़ि देखूँ छी,
छैल छुटी ऊँ छी,
भै मुखड़ि देखूँ छी,
अब कुचैलि है गे मेरि कोसि हरै गे कोसि.
तिरङुली जै रै गे मेरि कोसि हरै गे कोसि.
हाई पाँणी-पाणि है गे मेरि कोसि हरै गे कोसि.
(Girish Chandra Tiwari Poem Kosi)
भावार्थ:
दादा-दादी सुनाते थे कि किस तरह इठलाती हुई आती थी कोसी. रामनगर पहुँचाती थी, कौशिक ऋषि की कहलाती थी. अब जाने कहाँ खो गई मेरी वह कोसी ? क्या रोपाई लगाती थी, सेरे (खेत) सजाती थी, पनचक्की घुमाती थी. क्या मछली खिलाती थी वाह !….. आह ! वह कोसी कहाँ खो गई ?
जतकालों को नहलाती थी (जच्चा प्रसूति की शुद्धि). पितरों को तारती थी. पिनाथ से आती थी, रामनगर पहुँचाती थी. रामनगर ब्याही पहाड़ की बेटी कह रही है कि – कोसी का पानी अंचुरि में लेने के साथ ही छाया उतर आती थी अंचुरि में माँ-भाई के स्नेहिल चेहरे की. कहाँ खो गया कोसी का वह निर्मल स्वच्छ स्वरूप. अब तो मैली-कुचैली तिरङुगली (छोटी) अंगुली की तरह रह गई है एक रेखा मात्र. हाय, पानी पानी हो गई है. मेरी कोसी खो गई है.
(Girish Chandra Tiwari Poem Kosi)
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