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कल है हमारा लोकपर्व घ्यूं त्यार

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कुमाऊं में भादों मास की संक्रांति घ्यूँ त्यार मनाया जाता है. इसे ‘ओलकिया’ या ‘ओलगी’ संक्रान्त भी कहते हैं. इस दिन घी खाने की परंपरा रही. इस कारण इसे घ्यूँ त्यार या घी संक्रांति भी कहा जाता है. पहाड़ में खेती किसानी के साथ पशु पालन होता आया. अनाज, फल फूल और सब्जी के साथ गाय बैल, भैंस बकरी और सीमांत इलाकों में भेड़, याक व अन्य पशु दूध दही, मक्खन, व घी के साथ उपज के लिए समुचित खाद प्रदान करते रहे.
(Ghee Sankranti Uttarakhand Festival)

गावों के अवलम्बन क्षेत्र से इनके लिए चारा पत्ती मिल जाता. चराई भी हो जाती. खेती किसानी और पशु पालन से जुड़ा यह विशेष त्यौहार है. सावन भादों में अक्सर गाय भैंस ब्याए रहते हैं. हरे चारे की कमी नहीं होती. दन्याली यानि दूध दही घी इफरात में होता है. इसी कारण घी त्यार में हर घर में घी से बने स्वादिष्ट पकवान बनाये जाते हैं. बच्चों के कपाल में भी मक्खन या घी चुपड़ा जाता है.

घी त्यार को ओलगी संक्रांति भी कहते हैं. ओलकिया संक्रांति में उर्द या मॉस की दाल भिगा उसके छिल्के बहा सिलबट्टे में खूब पीस, नमक, हींग, अजवाइन, लाल खुस्याणी, आद या अदरख मिला बड़े बनाते हैं. आटे की लोई में इसे भर पूरी और लगड़ भी बनते हैं. उड़द की पिसी दाल को आटे की लोई के भीतर भर तवे में सेक और फिर चूल्हे की आग में सेक ऊपर से घी चुपड़ ‘बेडुआ’ रोटी भी बनाई जाती है. सीप वाली महिलाएं बिना चकला बेलन के ही बेडुआ रोटी हाथ में ही पाथ देतीं हैं ऐसे जतन से कि पूरी रोटी के भीतर उड़द का मसाला बराबर रहे, बराबर सिके.
(Ghee Sankranti Uttarakhand Festival)

इष्ट-मित्रों को ओलग भेंट की जाती है. जिसमें घी, दही, पापड़ या पिनालू के डंडी में मुड़ गए पत्ते या ‘गाक’ और अन्य पकवान बना कर मित्रों के घर भेंट करने ले जाते हैं.इसके साथ ही मौसमी फल, केले, हरी सब्जी, मूली गोरस और घी भी ओलक में दिया जाता रहा. पहले ये रिवाज भी था कि आसामी द्विज वर्ग के घर ओलुक भेंट करने जाते थे तो साथ ही रोपाई वाले खेतों में पाती तथा मेहल की टहनियों को रोप देते. जहां ओलुक भेंट करनी होती उस घर के दरवाजे के पास की भूमि पर भी ये टहनियां रोप देते.

शिल्पकार लोग अपने हुनर से बनाई वस्तुओं की भेंट भी प्रदान करते जिनके साथ छिलुके, पत्तल धागा व घुइयां की मुड़ी पत्तियां होतीं. ब्राह्मणों, पुरोहित पंडितों,लाला महाजन को ओलुक भेंट दिया जाता जिसके बदले उन्हें अनाज, कपड़ा, पकवान व रूपया पैसा मिलता.
(Ghee Sankranti Uttarakhand Festival)

विवाहित कन्याएँ अपनी ससुराल से मायके को ‘ओल’ ले जातीं. ओलकिया संक्रांति के दिन गाय भैंस इत्यादि जानवरों के जंगल जाने वाले रस्ते किसी पेड़ को काट उसकी शाखाएं काट खतड़ुए का रोपण करना भी कई जगहों में प्रचलित रहा. ओलुका एक तरह से फल-फूल, साग-पात, गोरस-घी का उपहार है जो भादों में दिया जाता है. सब लोगों में आपसी मेलजोल बना रहे और इसी बहाने शरीर को भी घी दूध मिले, बंटे यही इसका शकुन रहा.

कुमाऊं में जहां घी त्यार मनाया जाता रहा वहीं टिहरी गढ़वाल की जलकुर घाटी में “टेक्टा” मनाया जाता है जिसमें भी गोरस का प्रयोग होता है. घरों की साफ सफाई होती है और विवाहित कन्याएँ ससुराल से मायके आतीं हैं. यह संक्रान्त से दो गते तक मनाते हैं. इसका खास उद्देश्य अपने पितरों को भोग लगाना है. इसमें खास तौर पर खीर बनाई जाती है और लगड़ या लगडी तली जाती है.

रात को अपने घर के बाहर लकड़ियां जलाई जातीं हैं. अब पत्तल या पत्रों में खीर रखी जाती है. साथ में हुक्का-चिलम और अर्जुना घास रख देते हैं. घास से साफ सफाई कर पितर खीर खाएंगे और फिर चिलम गुड़गुड़ाएंगे, यह लोक विश्वास है. इस इलाके में टेक्टा के साथ ही साल में पड़ने वाले त्योहारों की शुरुवात कर दी जाती है.
(Ghee Sankranti Uttarakhand Festival)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे 

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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