ज़माने बीते, जमानों की दुनिया बीत गयी, नयार नदी दूधातोली का अकूत पानी खदीली मिट्टी के साथ बहा कर समुद्र में मिला आई. कुछ बात तो जरूर हुई ही होगी. नहीं तो क्या इतनी दूर तक आती.
मैंने तो ये कथा बस कुल जमा पैंतालीस साल पहले ही सुनी थी. जब मैंने ये कहानी सुनी उससे भी जमानों पहले नयार नदी के दायें किनारे वाले पहाड़ो के बीच कहीं दिखती, कहीं खोती बिकट चढ़ाई वाली पगडंडियों के आखिरी वाले गाँव में एक थोकदार (जमींदार जैसे कुछ) रहता था. बीसी-पच्चीसी की भरी-पूरी जवानी वाली गबरू उम्र. सपनों के सतरंगी घोड़े गाँव के ठीक सामने दिखते चौखम्बा के पार छलांगें लगा के असीम नीलाई में डोलते रहते.
एक तो गबरू ऊपर से थोकदार होने का अहम था कि किसी की न धराता. ब्याह के सोने से लदी पोटली सी ब्योली (दुल्हन) ले आया. अब बीवी थी तो दो चार दिनों के उलार-दुलार के बाद नवेली ब्योली ने खाना बनाने के लिए रसोड़े में जाना ही था.
पहाड़ी घरों की रसोई में चूल्हे के ठीक ऊपर धुआं निकालने के लिए छत से कुछ स्लेटें हटा कर एक बड़ा सा धुआरा (छेद) बनाने का रिवाज आज भी है. डरती सहमती ब्योली रसोई में खाना बनाती रही और छत के ऊपर बैठे थोकदार जी रसोई में काम करती बीबी के निहारते रहे. तभी क्या देखते हैं कि कढ़ाई में करछी फेरती बीबी ने एक बूँद साग की अपनी हथेली पे डाली अर चाट ली.
हाय री ब्योली बिचारी डर के मारे नमक चख रही थी. उसे क्या मालूम पति नाम का जीव उसका व्यवहार आजमाने सर के ऊपर बैठा है. बस थोकदार ने रसोई से में ही पकड़ा ब्योली का हाथ और खींचते हुए सीधे उसके मायके छोड़ आया – “लो रखो अपनी बेटी इसे खाना बनाने का शऊर नहीं है हमें जूठा खाना खिलायेगी.”
वह ठहरा थोकदार. उसके लिए लड़कियों की क्या कमी थी. बेटियों की कदर न तब थी ना अब है. चार दिनों में दूसरी ब्याह लाया. हर बार बीबी को आजमाता अपनी करनी करता हर बार बहुएं थोकदार की कसौटी पर खरी नहीं उतर पातीं.
होते-करते ऐसे ही वह सातवीं लडकी ब्याह लाया. अधेड़ थोकदार छत से नई नवेली ब्योली को अपनी आदत के अनुसार ताक रहा था. तभी क्या देखता है ब्योली ने चूल्हे से जलती लकड़ी निकाली और अपनी जीभ को डाम (दाग) दिया. थोकदार धुरपली (छत) से ही चिल्लाया – “ये है असली थोकदारिन.”
उस दिन से थोकदार अपनी थोकदारी के अलावा दूर-दूर के इलाके तक कथा बन गया. और जीभ को जलती लकड़ी से दाग के अपनी इच्छाओं को अस्वीकार करने वाली लडकी थोकदार की असली थोकदारिन बन कर सामाजिक स्वीकृति के लिए थोकदार की परछाई बन गयी. ब्योली के जीभ दागने की जलन उसके दर्द की साक्षी बनी चूल्हे में जलती लकड़ियाँ, चूल्हे की लिपी वाली मिट्टी और उस मिट्टी में समाते चौदह बरस की ब्योली के आंसू जो किसी ने नहीं देखे.
-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
1 Comments
Anonymous
“थोकदार”– अकथ – अथक पीड़ा , छोटी सी रचना में। गीता दी अभिवादन।??