समकालीन जनमत से साभार लिया गया निस्सीम मन्नातुक्करन का यह लेख पूंजीवाद के डीएनए में मौजूद मनुष्य-विरोधी तत्त्वों की शिनाख्त करता है और उसके खतरनाक इरादों का पर्दाफाश भी. हमारे मुल्क में स्वच्छता-अभियान की हकीकत को इस लेख के आईने में देखना दिलचस्प होगा.
कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, आधुनीकीकरण द्वारा पैदा की गई साफ जगहों का उत्पाद है, लेकिन इसे तीसरी दुनिया की समस्या बताया जाता है.
जार्ज कार्लिन ने लिखा था ‘पूरी जिंदगी का मकसद – अपनी चीजों के लिए जगह तलाशने की कोशिश’.
मानवीय स्थितियों के बेहतरीन पहचान रखने वाले जबर्दस्त अमरीकी हास्य अभिनेता जार्ज कार्लिन ने 1986 के अपने एक स्केच ‘द स्टफ’ (सामान) में दिखाया कि कैसे हम बहुत सा सामान, भौतिक उपयोग की वस्तुएं, इकट्ठा करते है और ऐसा करते हुए हम उन वस्तुओं को रखने की जगहों को लेकर बेचैन होते रहते हैं. यहाँ तक कि ‘हमारा घर, घर नहीं बल्कि सामान रखने की जगह है, तब तक जाकर हम घर भरने के लिए कुछ और सामान लेकर आ जाते है.’ जो चीज कार्लिन हमें इस स्केच में नहीं बताते हैं, वह यह है कि यह घर में नहीं अट सका सारा सामान अनुपयोगी, फेंके हुए रद्दी कूड़े में बदलता है. कूड़ा ऐसी चीज है जो आधुनिक इंसानी जिंदगी की पहचान है, पर उसे वैसा माना नहीं जाता. कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, उसका सह-उत्पाद है. हम इस सच्चाई से इंकार करते हैं, इसे भुलाते हैं और ऐसा दिखाते हैं मानो इसका असतीतत्व ही नहीं है.
विलाप्पिसाला मामला
लेकिन हम जितना ही इस हकीकत से मुंह चुराते हैं, यह सामने आती जाती है. हाल में ही केरल की विलाप्पिसाला पंचायत में एक मामला सामने आया जहां सरकार कूड़ा निस्तारण केंद्र बनाने वाली थी, स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे थे. इस तनातनी में दो लाख टन ठोस कूड़ा पर्यावरण पर खतरा बना हुआ यों ही पड़ा हुआ है. ध्यान दीजिये कि भारत में खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर चल रही गरमागरम बहस से कूड़े का सवाल सिरे से गायब है. फलों और सब्जियों जैसे जल्दी खराब होने वाली जिंसो का कूड़ा घटाने पर जोर देने से खुदरा बाजार के थोकबाजारिए बेहतर भंडारण गृहों की सुविधा की ओर जाएँगे. इसके बाद होने वाले भयानक पारिस्थितिकीय मामले मसलन फैलाव, बहाव और स्वाभाविक तौर पर नहीं सदने वाले कूड़े आदि की समस्या से मुंह फेर लिया जाएगा.
वाशिंगटन डीसी की संस्था द इंस्टीट्यूट फॉर लोकल सेल्फ रिलाइअन्स की एक रपट के अनुसार 1990 से आगे के बीस वर्षों में, जब वालमार्ट ने अपना विशालकाय साम्राज्य स्थापित किया, अमरीकी परिवारों की खरीदारी के लिए कुल यात्रा औसतन 1000 मील बढ़ गई. 2005 से 2010 के बीच वालमर्ट के कूड़ा घटाने के कार्यक्रम शुरू करने के बाद भी खतरनाक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन 14 फीसदी तक बढ़ गया.
ये बड़े बड़े स्टोर न सिर्फ उपभोग की क्षमता बढ़ाते हैं बल्कि उसके प्रकारों में भी बेतहाशा वृद्धि कर देते हैं. नतीजतन भारी मात्रा में कूड़ा पैदा होता है. अमरीकियों द्वारा प्रतिवर्ष उत्पादित कूड़े की मात्रा 220 मिलियन (22 करोड़) टन है जिसमें से अधिकांश कूड़ा एक बार इस्तेमाल की गई वस्तुओं का होता है. आधुनिकीकरण और विकास के मिथकों के बीच हम गगनचुंबी इमारतों और आण्विक संयन्त्रों का जयगान गाते फिरते हैं पर पर इनके लिए जो भारी कीमत चुकाई गई, उस पर बात करने में हमारी आँखों के आँसू सूख जाते हैं. वर्ड ट्रेड सेंटर या एम्पायर स्टेट बिल्डिंग का नाम तो आपका सुना सुना होगा, पर क्या कभी आपने अमरीका के 1365 एकड़ में फैले विशालकाय कूड़ा निस्तारण केंद्र प्यूएंट हिल के बारे में सुना है ? अपनी किताब ‘गार्बोलोजी, औए डर्टी लव अफेयर विद ट्रेश’ में एडवर्ड ह्यूमस बताते हैं कि प्यूएंट हिल के कूड़ाघर को ‘जमीन भरने’ का नाम नहीं दिया जा सकता क्योंकि वाहना की जमीन को समतल हुए बहुत दिन हुए. अब तो हालत यह है कि कूड़ा सतह से 500 फुट ऊपर तक है, और इतनी जगह घेरे हुए है जिसमें 1500 लाख हाथी समा जाएँ. ह्यूमस के मुताबिक 1300 लाख टन कूड़े (जिसमें आधुनिक सभ्यता की एक और ‘महत्त्वपूर्ण’ खोज इस्तेमाल के बाद फेंक दिये जाने वाले 30 लाख टन डाइपर हैं) से जहरीला रिसाव हो रहा है, और इसे भू-जल में पहुँच कर उसे जहरीला बनाने से रोकने के लिए बहुत बड़े प्रयास की आवश्यकता है. (सरदार मान सिंह के रूप में सुन्दरलाल बहुगुणा)
खैर, विकास के विमर्शों में आमफहम बात यही चलती है कि कूड़ा-समस्या तीसरी दुनिया का मामला है, कि कूड़े के भारी ढेर ने दुनिया के गरीब हिस्से में शहरों और कस्बों के चेहरों को ढँक लिया है, कि मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के पहले प्रमुख कुछ कामों में से एक राजधानी काइरो से कूड़ा-निस्तारण भी है. और तीसरी दुनिया के नागरिकों ने इस विमर्श को स्वीकारते हुए मान लिया है कि वे एक ‘गंदी’ विकासशील दुनिया के बाशिंदे हैं. वे सौभाग्यवश विकसित दुनिया की ‘स्वच्छता’ की कीमत से अनजान हैं. तो सोमालिया के समुद्री लुटेरों की कहानियाँ तो दुनिया भर में जानी जाती हैं पर यह नहीं जाना जाता कि यूरोप के लिए दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से सोमालिया आणुविक और औषधीय कूड़े सहित तमाम खतरनाक विषैले कूड़े का सस्ता निस्तारण-स्थल है. फ्रैंकफर्ट और पेरिस की सड़कें जगमगाती रहें तो कौन अभागा सोमालिया की तरफ देखेगा जहां बच्चे अपंग पैदा पैदा हो रहे हैं !
कूड़ा साम्राज्यवाद
इस ‘कूड़ा साम्राज्यवाद’ के परिप्रेक्ष्य में हाशिये पर पड़े कूड़े के सवाल को विकास पर हो रही खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) समेत हर बहस के केंद्र में लाना होगा. विकासशील देश हों या विकसित, एक बात दोनों जगह एक जैसी है कि कूड़ा निस्तारण के इलाके वही हैं जहां समाज का सर्वाधिक कमजोर और बहिष्कृत तबका रहता है. ऐसे में यह होना ही था और हो भी रहा है कि पश्चिमी दुनिया समेत जगह-जगह शहरों में कूड़ा-हड़तालें और कूड़े के इर्द-गिर्द संघर्ष विकसित हो रहे हैं और कूड़ा-समस्या एक राजनैतिक हथियार बन रही है. विलाप्पिसाला में गंभीर पर्यावरणीय मामलों की अनदेखी कर कूड़ा निस्तारण केंद्र खोलने के खिलाफ 2000 से ही संघर्ष चल रहा है. अगर हंम यह मानते हैं कि कूड़े की समस्या तार्किक योजना, प्रबंधन और पुनर्प्रयोग के द्वारा हल हो जाएगी, तो यह कभी पूरा न हो सक्ने वाला सपना है. अमेरिका में दशकों की पर्यावरण शिक्षा के बाद भी सिर्फ चौबीस फीसदी कूड़ा पुनर्प्रयोग के लिए जाता है, सत्तर फीसदी का वही हाल है, उससे हर जगह की तरह जमीन ही भरी जाती है. कूड़े को कूड़ेदान में फेंकना कूड़ा उत्पादन की समस्या के लिहाज से कोई उपाय नहीं. उल्टे कूड़े को कूड़ेदान में फेंककर हम एक झूठी आत्मतुष्टि के बोध से भर जाते हैं, ऐसा कहते हैं ‘गान टुमारो : द हिडेन लाइफ ऑफ गार्बेज’ की लेखक हीथर रोजर्स. कारण यह कि घरों से पैदा हुआ कूड़ा, कूड़े की कुल मात्रा का बहुत-बहुत छोटा हिस्सा होता है, बड़ा हिस्सा होता है औद्योगिक संस्थानों का. वे दिखाती हैं कि कोरपोरेटों और बड़ी व्यावसायिक इकाइयों ने इसलिए पुनर्प्रयोग (रीसाइक्लिंग) का मंत्र और हरित-पूंजीवाद अपना लिया है क्योंकि उनके मुनाफे के लिए यह सबसे कम खतरनाक रास्ता है. तो ऐसे में यह होना ही है कि उत्पादन और कूड़े का उत्पादन दोनों बढ़े हैं. और भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ‘हरेपन’ के इस कार्पोरेटी अभियान के चलते पर्यावरण शुद्धता का पूरा भार कार्पोरेटों से हट जाता है और इसके उत्तरदायी हो जाते हैं हम-आप.
कूड़ा मुक्त अर्थव्यवस्था
जर्मनी की तरह के उदाहरण नगण्य हैं जिन्होंने कूड़े से जमीन भरने को लगभग खत्म कर दिया है और अपने सत्तर फीसदी कूड़े का पुनर्प्रयोग कर पा रहे हैं. पर इसमें भी झोल है. 1350 लाख डॉलर की कीमत से बना जर्मनी का दुनिया का सबसे बेहतरीन कूड़ा-निस्तारण संयंत्र क्रोबर्न सेंट्रल वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट अपने नियमित काम-काज और कूड़ा-मुनाफा कमाने के लिए इटली के कूड़े को सुरक्षित रखने के अपराध का आरोपी है. अब आप समझ लीजिये कि कूड़ा मुक्त आर्तव्यवस्था के दामन में कितने छेद हैं!
अंततः कूड़े की समस्या तब तक पूरी तरह समझ नहीं आ सकती जब तक आप पूंजीवाद की गति को न समझें. पूंजीवाद वस्तुओं का लगातार उत्पादन करता चला जाता है, वह ऐसी नीतियाँ बनाता है जिसके चलते वस्तुओं का जीवन कम से कम हो जाये. एरिज़ोना विश्वविद्यालय की विद्वान सारा मूर ने इस अंतर्विरोध पर बहुत सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा- ‘आधुनिक नागरिक चाहते हैं कि उनके रहने, खेलने, काम करने और शिक्षा हासिल करने की जगहें कूड़ामुक्त, साफ और व्यवस्थित हों. यह असंभवप्राय है क्योंकि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से ये सुविधाएं पैदा हुई हैं और उसी से यह विराट कूड़ा भी पैदा हुआ है.’
तो ‘पूंजी का यह स्वर्णकाल’ ‘कूड़े का भी स्वर्णकाल’ है. 1960 से 1980 के बीच अमरीका में ठोस कूड़े की मात्रा में चौगुनी बृद्धि हुई. पूरी दुनिया के लिहाज से यह बढ़ोत्तरी बहुत ज्यादा है, जिसके नाते प्रशांत महासागर में प्लास्टिक के कण फैल गए, और जल में तैरने वाले प्राणियों से छह गुना ज्यादा हो गए. विडम्बना यह कि कूड़े की यही बढ़ोत्तरी कूड़ा निस्तारण का अरबों करोड़ डॉलर का व्यवसाय बनाती है, और इसमें फिर माफिया का प्रवेश होता है जैसा कि इटली में हुआ. (शुक्र है कबीर)
विडम्बना यह है कि कूड़ा निस्तारण की लगभग शून्य व्यवस्था वाले भारत जैसे विकासशील देश उपभोग की फालतू वालमार्ट संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसी हालत में अगर मानुषी और प्रकृति के प्रति न्याय करना है तो सरकार को इस संस्कृति के उत्पाद कूड़े की समस्या का सामना सीधे-सीधे करना होगा.
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