उत्तराखंड के प्रस्तर शिल्प में गंगा
-कौशल सक्सेना
भारतीय इतिहास में सबसे पहले गंगा का मूर्ति-रूप में अंकन गुप्त काल में ही प्रारम्भ हुआ. गंगा दर्शन परम मांगलिक प्रतीक बना. गंगा दर्शन के बिना तो देव दर्शन अधूरा है. इसीलिये गंगा-यमुना को नदी देवियों के रूप में देवालयों के प्रवेश द्वार के दोनों मुख्य स्तम्भों के अधोभाग में स्थापित करने की परम्परा भी प्रारंभ हुई. गंगा को पवित्रता और यमुना को समर्पण का प्रतीक भी माना गया. आशय था कि मंदिरों में केवल वही प्रवेश के योग्य हैं जो पवित्र हैं तथा देवता के प्रति समर्पण की भावना रखते हैं. मंदिरों के प्रवेशद्वारों पर गंगा को पारम्परिक लक्षणों घट एवं मकर सहित स्थापित किया गया. देवी का जीवरूप मकर जल की अपार शक्ति एवं घट मंगल का प्रतीक है जिसमें भरा पानी अमृत के समान पवित्र गंगा जल ही है.
उत्तराखंड तो गंगा-यमुना का मायका है. गंगा दशहरा यहाँ के मुख्य त्योंहारों में से एक है. ऐसे में कैसे संभव था कि कला शिल्प में गंगा-यमुना का अंकन यहाँ नहीं मिलता. मंदिरों के निर्माण में शिल्पियों को सबसे प्रिय प्रतीक गंगा-यमुना का मंदिरों की भूषा के रूप में अंकन रहा है. प्रायः सभी प्रमुख मंदिरों की द्वार सज्जा इन नदी देवियों के उत्कीर्णन से ही की गयी है. बमनसुवाल, नवदेवल, जागेश्वर, कटारमल, चंडी मंदिर, दिंगास, धामी गाँव, कपिलेश्वर, गोपेश्वर, आदिबदरी, पुनाणू, लाखेश्वर मंदिर, लाखामंडल आदि से गंगा की मंदिर द्वारों पर बनी सुन्दर प्रतिमायें प्रकाश में आयी हैं. इनको द्वारशाखा के निचले हिस्से में स्थापित किया गया है. यद्यपि गंगा की स्वतंत्र प्रतिमायें कम हैं, उनके स्वतंत्र मंदिर भी बहुत कम हैं अलबत्ता उनकी प्रतिमाएं दुर्लभ नहीं हैं. उत्तराखंड में आठवीं शती से लेकर चौदहवीं शती तक की गंगा की प्रतिमायें उपलब्ध हैं. गंगा-यमुना की प्रवेशद्वारों में स्थापित प्रतिमायें शीर्ष पर मुकुट, कानों में कर्णकुंडल, बाजुओं में बाजूबंध तथा साड़ी से सजी मिलती है. उन्हें प्रवेशद्वारों में क्रमशः बाईं ओर स्थापित किया गया है. वे मंगलघट तथा अनुचरों सहित ही दिखाई देती हैं. छत्र का दंड प्रायः अनुचर अथवा परिचारिकायें धारण करते हैं. त्रिभंग मुद्रा उनकी प्रिय मुद्रा है.
इस प्रकार का अंकन उत्तराखंड में कई स्थानों पर प्राप्त होता है. अल्मोड़ा जनपद के बमनसुवाल ग्राम में निर्मित मंदिर समूह की धर्मशाला के प्रवेशद्वार के निचले स्तम्भों में गंगा का अंकन किया गया है. इस अलंकृत द्वार स्तम्भ में वे शैव द्वारपालों के साथ दिखायी गयी हैं. दोनों नदी देवियाँ मंगलघट लिये हुए हैं. द्वारापाल जटाजूट से सज्जित हैं. नवदेवल मंदिर में नवीं शती में बनी गंगा यमुना प्रतिमायें शीर्ष मुकुट, कानों में कुंडल, हाथों में बाजूबंद से सज्जित तथा अधोवस्त्र धारण किये हुए है.
गंगा की बानठौक, जिला पिथौरागढ़, जागेश्वर, सोमेश्वर तथा अल्मोड़ा जनपद के सिरौली से प्राप्त हुई स्वतंत्र प्रतिमायें शिल्प की दृष्टि से दर्शनीय हैं. बानठौक की गंगा 10 वीं शती की जान पड़ती हैं. सिरौली की प्रतिमा में भी परम्परागत लक्षण लांछन मौजूद हैं. वे मकर पर आरूढ़ होकर त्रिभंग मुद्रा में दायें हाथ को ऊपर उठाये है. भग्न हाथ में कलश रहा होगा. गंगा जिस छत्र के नीचे खड़ी है उसका दंड एक अन्य उपासिका ने अपने हाथ में ले रखा है. एक अन्य उपासिका भी त्रिभंग मुद्रा में प्रदर्शित की गयी है. पूर्ण घट को अपने शीर्ष पर धारण किये एक अन्य स्त्री भी है. नीचे पाश्र्वों में एक उपासक भी करबद्ध मुद्रा में है.
नटराज शिव के साथ गंगा-यमुना का प्रस्तुतिकरण कपिलेश्वर मंदिर में है जहाँ शुकनास पर नटराज शिव गजहस्त मुद्रा में विराजमान हैं. नटराज शिव के बायीं ओर मकरवाहिनी द्विभुजी गंगा का अंकन अत्यन्त मनोहारी है. उनके दांये हाथ में मंगल कलश है. कंठ में एकावलि से आभूषित एवं बाहों में लहराते उत्तरीय ने इस प्रतीमा को अतीव सुन्दरता प्रदान की है. केशराशि को बांध कर बनाया गया जूड़ा और उसमें टंका पुष्प कलाकार की कला दक्षता का परिचायक है. पाश्र्व में यमुना का अंकन किया गया है. दानों नदी देवियाँ त्रिभंग मुद्रा में हैं. कंधे तक उठे हाथों में मंगलघट अंकित किया गया है. उनके पाश्र्व में स्थूल शरीर एवं कौपीनधारी एक मुरली वादक है. घुंघराली अलकों वाले यह वादक तल्लीनता से अपने कार्य में लीन हैं. गंगा का एक दुर्लभ चित्रण लाखामंडल मंदिर की बाह्य रथिका में है. यहाँ गंगा-यमुना दंड धारिणी सेविकाओं सहित निरूपित है. उनके वाहन भी उनके साथ ही हैं.
गंगा की स्वतंत्र प्रतिमा जोशीमठ में भी है जिनके दक्षिण हाथ में घट है. कटिहस्त मुद्रा में खड़ी गंगा अपनी सेविकाओं सहित दर्शायी गयी है.
यह उल्लेखनीय है कि गुप्तकाल की कला से ओत-प्रोत उत्तराखंड में गंगा-यमुना की प्रतिमायें मंदिरों के प्रवेशद्वारों की भूषा के रूप में लगभग नवीं-दसवीं सती तक तो प्रचुरता से उपलब्ध होती है. परन्तु उसके बाद शनैः-शनैः उनका रूपांकन कम होता जाता है. अग्निपुराण में उल्लेख है कि गंगा-यमुना के हाथों में मंगलघट अवश्य होना चाहिये. अधिकांश मंदिरों की द्वारभूषा के रूप में इस परम्परा का पालन भी किया गया है. परंतु पलेठी एपं घुनसेरा गाँव की गंगा-यमुना विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुरूप फुल्ल पद्म से अलंकृत है. यहाँ यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि गंगा-यमुना का अंकन द्वारभूषा के रूप में केवल विष्णु अथवा शैव मंदिरों में ही प्रचुरता से नहीं किया गया अपितु सूर्य मंदिरों में भी वे लोकप्रिय अलंकरण के रूप में स्थान पायी हैं. टिहरी जनपद के पलेठी गाँव के प्राचीन सूर्य मंदिर से प्रकाश में आयी गंगा संभवतः सबसे प्राचीन और भव्य है. विद्वान मानते हैं कि कला और सुगढ़ता की दृष्टि से भी उनका निदर्शन अत्योत्म है. मकर एवं कच्छप आरूढ़ देवियाँ कर्णकुडल, कंठहार और साड़ी से विभूषित हैं. दोनों देवियाँ त्रिभंग मुद्रा में हैं. नग्नपद, क्षीणकटि गंगा के वक्ष पर कंचुकी शोभित है. यमुना के अनावृत वक्षों पर माला झूल रही है. बाहों पर उत्तरीय लहरा रहे हैं. उनके हाथों में श्रीफल एवं फुल्लपद्म हैं. शीर्ष के मध्य में निकाली गयी सीमांत है. केशों को पुष्पों से सजाया गया है. उनकी उपासिकाओं की भूषा भी दर्शनीय है. कटारमल के प्रसिद्ध सूर्यमंदिर समूह के एक मंदिर में वे ललितासन में बैठी दिखायी गयी हैं. इस मंदिर में यमुना को प्रदर्शित नहीं किया गया है.
मंदिरों की तरह नौलों के प्रवेश द्वारों में भी गंगा-यमुना अंकन यदा-कदा मिलता है. नारायणकोटी का नौला इसका एक सुंदर उदाहरण है. जहाँ नौले के प्रवेश द्वार के निचले हिस्से में दोनों नदी देवियाँ विराजमान हैं. एक हथिया नौला तथा चम्पावत के नौले में भी गंगा की प्रतिमा का उत्कीर्णन हुआ है. पिथौरागढ़ जनपद के थरकोट में एक ऐसा अंकन प्राप्त हुआ है जिसमें जल उडेलती हुई महिला को दिखाया गया है. परंतु इस अंकन में मकर न होने से यह निश्चित रूप से कह पाना कठिन है कि शिल्पी ने इस अंकन में गंगा को ही निर्मित किया होगा.
यह तथ्य भी दृष्टव्य है कि मकर को गंगा का जीवरूप माना गया है. उत्तराखंड की अधिकांश जल निकासी के लिये बनायी गयी प्रणालियों में चाहे वे नौले हों, जलधारा हो अथवा मंदिर हों मकर मुख प्रमुखता से बनाये गये हैं. यह भी संभवतः गंगा की धारा के अंकन का ही प्रतीक है.
(‘पुरवासी’ के अंक 26 से साभार)
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