पिछली कड़ी से आगे…
अमिताभ बच्चन या विनोद खन्ना ?
15 अगस्त 1971 को मेरी माँ के मन में ये सवाल आया तो उन्होंने किसे चुना होगा ? उन्हें मेरा नाम रखना था.मै तो पैदा हो गया था पर अमिताभ बच्चन तब तक ठीक से पैदा नहीं हो पाए थे .. विनोद खन्ना “मेरा गाँव मेरा देश , रेशमा और शेरा “ जैसी फ़िल्मों से धूम मचा चुके थे और पहाड़ के गाँवों से निकल कर आँध्रप्रदेश के सिकंदराबाद पहुँची माँ तब तक उनकी दीवानी बन चुकी थी.तो फिर सोचना क्या था ? और इस तरह मेरा नामकरण हो गया.मेरे ख़्याल से हमारी पीढ़ी में बहुतायत में पाए जाने वाले उस दौर के राजेश , सुनील , धर्मेंद्र , जितेंद्र , विनोद , राकेश ( रोशन से प्रभावित ) जैसे थके हुए और पके हुए नाम तमाम सितारों से प्रभावित हो कर ही रखे गए होंगे. लड़कियों की लिस्ट तो अलग से बन सकती है.
तो माँ कैसे पहाड़ से सिकंदराबाद पहुँची ? ये पूरी कहानी बड़ी कमाल की है.जैसा मैंने पहले लिखा कि ननिहाल की मेरे जीवन में बहुत भूमिका है.ननिहाल ने ही मुझे नालायक से कुछ लायक बनाया.ये ननिहाल सिर्फ तीन प्राणियों का था.माँ , नानी और माँ की नानी.माँ के नाना की भी जल्दी मृत्यु हो गयी और मेरे नाना की भी तभी मृत्यु हो गई , जब माँ तीन चार साल की थी.घर में रह गए बस ये तीन प्राणी. जितना ख़ाली परिवार, उतनी ही भरपूर ग़रीबी और अभाव.लेकिन एक बात , जिसने इस ननिहाल को पहाड़ के कई ननिहालों से अलग किया और मुझे बनाने में भी बहुत बड़ा रोल अदा किया है , वो है : शिक्षा !!!
दुर्गा देवी, मेरी नानी, लेजम में उनके पास अपना घर नहीं था, पति नहीं था , पैसे नहीं थे, खेती भी कोई ख़ास नहीं थी. लेकिन उनके पास एक दृष्टि थी कि अपनी इकलौती बेटी भागीरथी यानी माँ को पढ़ाना है. आप ग़ौर कीजिएगा, ये बात है पचास के दशक की. आज हम बेटियों को पढ़ाने के लिए ना जाने क्या क्या कैंपेन चला रहे हैं पर आज से क़रीब 60-65 साल पहले , वो भी पहाड़ के सुदूर गाँव में बैठी एक महिला तमाम अभावों के बावजूद शिक्षा के महत्व को समझ रही थीं. उस वक़्त लेजम गाँव के सबसे बड़े लिखे व्यक्ति थे : हीरा वल्लभ जोशी जी… जो कई स्कूलों के हेडमास्टर भी रहे. वो नानी को बहन मानते थे और माँ को अपनी बेटी जैसा. उनका भी असर रहा कि नानी ने माँ को पढ़ने के लिए तीन किलोमीटर दूर थल के जूनियर हाईस्कूल भेजा. तब ग़रीब बच्चों की फ़ीस माफ़ भी हो जाती थी और इसी माफ़ी का फ़ायदा उठाकर माँ ने आठवीं पास कर ली.
आठवीं के बाद माँ नहीं पढ़ पायी क्योंकि ये स्कूल आठवीं तक ही था और आगे की पढ़ाई के लिए 40-50 किलोमीटर दूर जाना एकदम असंभव था. लेकिन आठवीं तक की ये पढ़ाई ही माँ के लिए किसी पीएचडी से कम नहीं थी. फिर माँ की शादी हुई. थल से बेरीनाग के जिस उखाड़ा गाँव ( पुराना थल ) में माँ विवाह के बाद पहुँची, वो एक भरा-पूरा परिवार था. पाँच भाई और पाँचों फ़ौज में. पिता जी के दो बड़े भाई थे और दो छोटे. माँ ने महसूस किया कि परिवार तो सब ठीक है पर शिक्षा को लेकर ना ख़ास जागरूकता है और ना ही सुविधा. उस वक़्त सबसे नज़दीकी स्कूल भी दस किलोमीटर दूर था.
शादी के बाद माँ एक दो साल पिता जी गाँव में ही रही लेकिन जब परिवार बढ़ाने की बात आई तो माँ ने पिता जी से दो टूक कह दिया कि पहले आप बच्चों की पढ़ाई लिखाई के बारे में सोचिए. सभी भाईयों में पिता भी सबसे अधिक पढ़े लिखे थे. दसवीं पास. शिक्षा के महत्व को वो भी जानते थे और फ़ौज ने उन्हें और जागरूक बना दिया था.जानते थे कि परिवार बढ़ाने की शर्त अगर बच्चों की शिक्षा है तो परिवार को अपने साथ फ़ौज के कैंट एरिया में रखना होगा.लेकिन ये बात परिवार को कैसे कही जाए ? क्योंकि बड़े भाईयों की पत्नियाँ और बच्चे तो सब गाँव में ही रह रहे थे.और उस ज़माने में एक घर में बहू के आने का मतलब सिर्फ़ एक बहू का आना ही नहीं होता था.एक और बहू के आने का मतलब एक और मज़दूर का आना भी होता था , जिसका फ़र्ज़ होता था कि वो जंगल से जानवरों के लिए घास भी काट कर लाए , उनका गोबर भी साफ़ करे, घर की सफ़ायी भी करे, खाना भी बनाए , खेतों को भी देखे और ना जाने क्या क्या करे !!
पिता जी के सामने बड़ा संकट था.वो एक मज़दूर की संख्या कम कैसे कर सकते थे. लेकिन वो ये भी जानते थे कि माँ जो कह रही हैं , वो ज़्यादा सही है और आख़िरकार उन्होंने अपनी बात अपने पिता ( हमारे दादा यानि बूबू ) के सामने रख दी. शुरू में कुछ विरोध हुआ. परिवार के लोग नाराज़ भी रहे. लेकिन धीरे धीरे सबको समझ आ गया कि डिगर सिंह ( पिता का नाम ) अपनी डगर से हटने वाला नहीं है.
पिता की पोस्टिंग उन दिनों सिकंदराबाद ( तब आँध्रप्रदेश , अब तेलंगाना ) में थी. 1970 में माँ भी सिकंदराबाद पहुँच गई और पीछे पीछे 1971 में मैं भी सिकंदराबाद. तब से लेकर पढ़ाई पूरी होने तक हम सब पिता के साथ ही रहे .जम्मू कश्मीर के उधमपुर , बंगाल के सिलीगुड़ी ,यूपी के बरेली .. शहर बदलते रहे लेकिन स्कूल हमेशा एक ही रहा : फ़ौजियों का सबसे पसंदीदा सेंट्रल स्कूल… केंद्रीय विद्यालय….
आज सोचता हूँ कि नानी ने माँ को तीन किलोमीटर दूर थल पढ़ने ना भेजा होता . माँ ने पिता से बच्चों को पढ़ाने की शर्त ना रखी होती और पिता ने माँ का साथ नहीं दिया होता तो क्या होता? सिर्फ़ ये एक सवाल भी कँपा देता है. जो जीवन आज जी रहे हैं , उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती इसलिये नमन उस सोच को जो शिक्षा के महत्व को समझती है हेडमास्टर, नानी, माँ से लेकर पिता तक.
(जारी)
देश के बड़े मीडिया घरानों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके विनोद कापड़ी फिलहाल पूरी तरह फिल्म-निर्माण व निर्देशन के क्षेत्र में व्यस्त हैं. मिस टनकपुर हाज़िर हो उनकी पहली फिल्म थी. अपनी एक डॉक्यूमेंट्री के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित हो चुके विनोद की नई फिल्म पीहू बहुत जल्द रिलीज होने वाली है. काफल ट्री के पाठकों के लिए उन्होंने अपने संस्मरण लिखना स्वीकार किया है.
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3 Comments
Suraj P. Singh
बेहतरीन!
shyam
again touched …?
Firoz zaidi
Inspirational… adbhut …aurat hi ghar ko bana sakti hai aurat hi tabah kar sakti hai Maa Bhagirathi ko mera Naman.
Aur badhne ka dil ho Raha tha but Jaldi khatam ho gaya ya ye Kahen ki utsukta mein main tezi se padh gaya.