लोहवन के ही रहने वाले दाऊदयाल गुप्ता उनके बेटे विष्णु और सतीश चाट का ठेला लगाते थे. दाऊदयाल पेठा बेचते थे. बाद में उन्होंने पान की दुकान खोल ली. एक बार उनके लड़कों ने मोटर साइकिल खरीद ली. दाऊदयाल उन पर बहुत नाराज हुए. कहने लगे कि ‘‘अब बताओ मोटर सैकल को का काम है, छोरे दस पैसे की धनिए की गड्डी लेने दस रुपये को तेल फूकेंगे.’’ मथुरा वाले इन चाट के ठेलों में अधिकांश में ‘गुप्ता चाट’ लिखा रहता है. लेकिन एक समय था जब ‘गुप्ता चाट’ के नाम से मथुरा से आये हज्जो के पुत्र जगदीश प्रसाद गुप्ता का मशहूर चाट का ठेला मंगल पड़ाव में लगा करता था. इस ठेले में नगर के नामी लोग तब शाम को चाट खाने आया करते थे. अब चाट के स्थान पर चाउमिन, मोमो, बर्गर आदि बिकने लगा है. मथुरा से आए मिठाई व चाट बेचने वालों की तादाद यहां बहुत हैं वे स्वंय को गुप्ता कहा करते हैं लेकिन वणिक वर्ग से (अग्रवाल, गुप्ता, बंसल, कंसल आदि में) अलग ही मानते हैं और अपने को चतुर श्रेणी वैश्य समाज’ कहा करते हैं.
हल्द्वानी में भूखन लाल की जलेबी आज भी प्रसिद्ध हैं मंगल पड़ाव क्षेत्र में स्थित प्रतिष्ठान के स्वामी अनिल कुमार की देख-रेख में आज भी कारीगर दिनभर भट्टी में आग जलाते और जलेबी तलते देखे जा सकते हैं. पहले जब नल बाजार में मिठाई की कुछ दुकानें हुआ करती थीं तब मूल रूप से काशीपुर के सिंघान मोहल्ले के रहने वाले भूखन लाल ने मंगल पड़ाव में किराये पर दुकान ली और मिठाई की साधारण सी दुकान खोली. घोड़े-तांगे वालों के रुकने का अड्डा होने तथा मंगल बाजार का प्रसिद्ध क्षेत्र होने के कारण लोगों का इस दुकान में खासा आना-जाना था. भूखन लाल ने लोगों की मांग देखते हुए ताजा जलेबी बनाने की व्यवस्था की और दुकान चल पड़ी. दुकान के सामने होली ग्राउण्ड होने तथा व्यापारी और ग्रामीणों का जमघट होने से ‘भूखन लाल’ की जलेबी प्रसिद्ध हुई. आज भी लोग दूर-दूर से इस दुकान पर जलेबी खरीदने के लिए पहुंचते हैं.
पहले जाड़ों में गजक और गर्मियों में मलाई बरफ बेचने वाले बाजार में घूमा करते थे. दो थालों में सजी गजक बहंगी पर कंधे में लटकाए गली-गली जाया करते थे. दिन में व देर रात तक ‘‘झुरमुर वाली बड़ी करारी, बढ़िया लो गजक, कि बाबू मेवा लो गजक’’ गाते हुए वे लोग जाड़ों की सौगात शुद्ध गुड़ व चीनी की गजक बेचा करते थे. गर्मियों में शुद्ध दूध की मलाई बरफ काठ के नक्काशीदार बक्से में लेकर बेचने वाले भी दिखाई देते थे. ‘‘मलाई बरफ-मलाई बरफ’’ की आवाज सुनते ही बच्चे घरों से निकल पड़ते. मलाई बरफ वाला मालू पत्ते में उन्हें गर्मियों की यह सौगात देता. बच्चे लेने तो मलाई बरफ आते थे, लेकिन बहुत देर तक उसके नक्काशीदार बक्से को निहारते रहते .
कालाढूंगी चैराहे के पास से लोहरा लाइन की ओर जाने वाली गली में गोधन सिंह और लछम सिंह की पकौड़ियों की दुकान भी नगर के प्रमुख लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र थी. आज भी यह दुकान जस की तस है और उनके बच्चे चला रहे हैं लेकिन समय परिवर्तन का पूरा प्रभाव यहां भी दिखाई देता है.
पहले घर के बुजुर्ग अक्सर शाम को कंधे में झोला लटकाए मंगलपड़ाव सब्जी मंडी जाया करते थे. टहलना भी हो जाता था और मेल मुलाकात के साथ सब्जियां भी खरीद ली जाती थीं. अब बाजार में बढ़ती भीड़ बुजुर्गों के लिए कष्टदायक हो गई है और सब्जी वाले भी घर-घर पहुंचने लगे हैं. उन दिनों सब्जी मंडी से पहले रस्सी गली व सदर बाजार के बीच चौराहे पर सरदार निहाल सिंह एक बोरा बिछा कर गडेरी, मूली, कागजी नीबू और अदरख बेचा करते थे. बंटवारे के बाद पाकिस्तान से यहां आए निहाल सिंह ने मेहनत के बाद बहुत कुछ जोड़ लिया लेकिन वे अपना अतीत जीवित रखते हुए दिन भर बोरे के कोने में सिमट कर बैठे रहते और ‘गडेरी का मद्दा आठ आने पव्वा’, अदरख का मद्दा चार आने पव्वा’ वगैरह-वगैरह की आवाजें लगा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा करते थे.
उन दिनों रुई धुनने वाली मशीनें नहीं हुआ करती थीं. गलियों में रुई धुनने वाले अपने तांत और धुनकी के साथ ‘तक-तक-धुन-धुन’ की तांत से निकलने वाली आवाज के साथ अक्सर जाड़ों में दिखाई देते थे. एक धनुषकार उपकरण छत से लटका रहता था, जिसके दोनों सिरे तांत से जुड़े रहते थे और एक लकड़ी की धुनकी, जो बीच में पतली और दोनों सिरों में गोले (नारियल) के आकार की होती थी, से तांत पर चोट मारी जाती थी. तांत और धुनकी के घर्षण से निकलने वाली आवाज के साथ ही रुई उड़-उड़ कर साफ हुआ करती थीं. लेकिन मशीनों के आ जाने के बाद पुराने धुनकर नहीं रहे.
गर्मी आते ही मंगलपड़ाव से आगे बरेली रोड की ओर खुले में मिट्टी के घड़े और सुराहियों का बाजार फैल जाया करता था. शाम के वक्त कंधे पर झोला लटकाये सब्जी खरीदने के लिए जाने वाले बुजुर्ग अक्सर इन दुकानों में घड़ों को कंकर से ठोक-बजाकर सौदा करते दिखाई देते थे. वे कई घड़ो-मटकों-सुराहियों में कंकर मार-मार कर टन-टन की आवाज से पता लगाते कि बर्तन सही है या नहीं. फिर मोलभाव होता. गर्मी बढ़ जाने पर मटके बेचने वाले ठेलियों में लाद कर घर-घर भी पहुंच जाते. तब हर घर में एक-दो घड़े, सुराहियां जरूर हुआ करती थीं. लेकिन फ्रिज ने ठंडा पानी देने वाले इन मटकों-सुराहियों को चलन से लगभग बाहर कर दिया. कुम्हारों का यह पुश्तैनी कारोबार खत्म होता जा रहा है और वे दूसरे व्यवसाय की तलाश में लग गए हैं. अलबत्ता मकानों से पटते इस शहर में स्थानाभाव के कारण गमलों का प्रचलन बढ़़ा है, किन्तु उस पर भी सीमेंट संस्कृति हावी होने लगी है.
रामलीला का मेला हो या ऐसे ही कोई दूसरे आयोजन, उनमें बच्चों को आकर्षित करने के लिए कई खेल तमाशों के साथ बाइस्कोप वाला भी दिखाई देता था. बच्चे अक्सर अपने अभिभावकों से बाइस्कोप देखने की जिद करने लगते. बाइस्कोप वाला सिर पर रखा बक्सा नीचे उतारता और उस पर अन्दर झांकने वाले छिद्रों में लगे ढ़क्कन खोल कर उसमें दिखाई देने वाली तस्वीरों के बारे में बताता रहता. आगरे का ताजमहल, लखनऊ का भूलभूलैया व इमामबाड़ा, दिल्ली का कुतुबमीनार व लालकिला वगैरह-वगैरह. लेकिन इन सबसे बड़ी चीज बच्चे बारह मन की धोबन देखने के लिए अधिक उत्सुक रहते और सोचते कि इस छोटे बक्से में इतनी बड़ी धोबन कैसे बैठती होगी.
एक जमाना था जब आम जनता तक सूचना पहुंचाने के लिए डुगडुगी पिटवाई जाती थी. तमाम सरकारी सूचनायें डुगडुगी पिटवा कर ही लोगों तक पहुंचाई जाती थीं. इसके बाद सिनेमा के प्रचार के लिए टिन के कीपनुमा भौंकरों द्वारा काम चलाया जाने लगा. आम जन सभायें, नौटंकियां अथवा धार्मिक आयोजन भी बिना किसी लाउडस्पीकर के ही हुआ करते थे. नाटकों में अभिनय करने के लिए बुलंद आवाज को ही अधिक तरजीह दी जाती थी. यों बाद में विभिन्न आयोजनों व जनसभाओं में लाउडस्पीकर का उपयोग किया जाने लगा लेकिन सन 1960 से पूर्व जनसूचना का माध्यम डुगडुगी ही रहा.
हल्द्वानी में जन-जन तक लाउडस्पीकर द्वारा सूचना पहुंचाने का पहला श्रेय रघुबीर एनाउन्सर को जाता है. रघुवीर के दादा धनपतराय पंजाब से यहां आकर बस गये थे और पिता सुन्दरलाल सर्गाखेत में परचून की दुकान करने लगे. पूरा परिवार हल्द्वानी रहता और पिता जाड़ों में हल्द्वानी आ जाते. रघुबीर नहीं जानते कि उनका परिवार पंजाब के किस क्षेत्र से व कब यहां आया. रामलीला मुहल्ले में रह रहे 66 वर्षीय रघुबीर बताते हैं कि आम जलसों में स. जगत सिंह की बहैसियत एक फोटोग्राफर की ही नहीं हरफनमौला व्यक्ति के रूप में उपस्थिति रहती थी. उन्होंने ही सबसे पहले उन्हें माइक पकड़ना सिखाया. बस यही शौक उनका व्यवसाय बन गया. आज सूचना तंत्र के विस्तार के बावजूद उनके व्यवसाय में कमी नहीं आयी है. यद्यपि अब इस क्षेत्र में कई लोग आ गए हैं लेकिन आज भी हल्द्वानी में एनाउन्सर के नाम पर रघुवीर को ही जाना जाता है.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 61
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