कई दूसरे शहरों में मुस्लिम समाज के बीच भी धार्मिक मान्यताओं को लेकर आपसी फसादाता होते रहते हैं, किन्तु यहां बरेलवी और देवबंदी दोनों मतों को मानने वाले धार्मिक मामलों में आपसी सुलह-समझौते को ही अधिक महत्व देते हैं. इसी लिए ईदगाह में बकरीद को बरेलवी नमाज पढ़वाते हैं और ईदुलफितर (मीठी ईद) को देवबंदी नमाज पढ़वाते हैं. मुख्य बाजार स्थित जामा मस्जिद के अलावा तकरीबन 20 से अधिक मस्जिदें हैं यहां बंजारा, सिद्दकी, अंसारी, छीपी, कलाल, सलामनी (हज्जाम), इदरीसी (दर्जी), अब्बासी (भिश्ती) आदि सभी रहते हैं. सबके अपने-अपने मत हैं, लेकिन कब्रिस्तान एक ही है. इसमें कोई मतभेद नहीं है.
बहुत समय तक मैंने हल्द्वानी के मुहल्लों में लम्बा चोगा, सफेद दाड़ी कंधे पर लम्बा झोला दांये हाथ में लोहे के कड़े और एक डंडा लेकर गाना गाते हुए एक फकीर को देखा है. नाम था उसका अब्दुल शकूर शाह. वह अपनी पैदाइश 1914 की बताता था. डंडे से कड़ों में मार कर ताल के साथ वह गाता था नजीर की बानी, जो उसे पूरी तरह याद थी –‘‘ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन, क्या-क्या कहूं में तुमसे कन्हैया का बालपन.’’ वह बताता था कि वह पढ़ा-लिखा नहीं है लेकिन बचपन से उसे गाने बजाने का शौक था. बंटवारे से पहले मेरठ से पिताजी हम लोगों को लेकर लाहौर गए, फिर अमृतसर, तब ‘हिन्दू-मुस्लिम’ न था, यह तो बंटवारे के आसपास का मैल है. अमृतसर में रज्जब अली की शगिर्दी की. उन्हीं की शागिर्दी में पेशावर बिलोचिस्तान तक पहुंचे फिर वतन हिन्दोस्तान लौट आए. जब उससे पूछा गया कि वह मजहब से मुसलमान हैं तो कृष्ण कन्हैया का भक्ति गीत भावपूर्ण ढंग से गाते वक्त उसमें डूब से जाते हैं तो कैसा लगता है? वह कहने लगा कि ‘बानी’ तो ‘बानी’ होती है. उसमें हिन्दू-मुसलमान का सवाल ही कहां? समझदार आदमी के लिए सब धर्म, सब अवतार बराबर हैं. मतभेद तो नालायकों के लिए होते हैं. काफिर तो वह है जो ईमान को न माने, बाकी तो सब अपना तरीका है मांगने का, कोई हाथ जोड़ कर मांगता है कोई हाथ फैलाकर. भावपूर्ण और तन्मयता से गाते हुए उस फकीर के चारों ओर बच्चे सिमट आते और उसके चले जाने के बाद वे भी उसकी बानी दोहराने लगते.
यहां रामलीला होती है, दिवाली होती है, कौन सजाता है इन त्योहारों के तामझाम को, देवालयों में चढ़ने वाले बतासे कौन बनाता है. अपने जीवन का शतक पूरा करने के बाद भी बतासे बनाने का कारोबार करने वाले रियायत हुसैन उर्फ लल्ला बतासे वाले पुरानी हल्द्वानी के गवाह हैं. रियायत हुसैन का बतासे बनाने का कारखाना लाइन नं. 1 में है और यह लल्ला बतासे वाले के नाम से प्रसिद्ध है. मूल रूप से जिला बदायूं के दातागंज निवासी विलायत हुसैन के पुत्र रियायत का जन्म अपने नाना के घर लखीमपुरखीरी में हुआ था. रियायत हुसैन अपने पिता विलायत हुसैन के साथ 13 साल की उम्र में हल्द्वानी आ गये थे. विलायत हुसैन ने होरी लाल से बतासे बनाने का काम सीखा था. हल्द्वानी में किशन लाल रतन लाल चंदौसी वालों की फर्म में यह बतासे बनाने का कार्य करते थे. रियायत हुसैन ने अपने पिता के अलावा बरेली के हबीब ‘हब्बी उस्ताद’ से बतासे का काम सीखा था. इन्होंने भी किशन लाल रतन लाल फर्म में काम किया. 1930 में इन्होंने अपना कारखाना खोल लिया. आज इनके तीन पुत्र-इनायत हुसैन, वली मुहम्मद और नूर अहमद सहित अन्य लोग इस कार्य में हाथ बटा रहे हैं. अपने पुराने दिनों को याद करते हुए लल्ला बतासे वाले बताते हैं पहले मंगल बाजार को विशेष रूप से लोग घोड़ों, बैलगाडियों में आया करते थे, अब दुनिया भर के साधन उपलब्ध हैं. वह बताते हैं कि पुराने मिलने वाले आज भी दीपावली के मौके पर उनसे मिलते हैं. वर्षों से बतासे बनाने वाले रियायत हुसैन उर्फ लल्ला बतासे वाले सामाजिक सद्भाव की मिसाल भी हैं.
बरेली के फूटा दरवाजा किला थाने के समीप रहने वाले कल्लू मियां कई वर्षों से रामलीला में रावण परिवार के पुतले बनाने के लिए परिवार सहित यहां आते हैं. वे बताते हैं कि पिछले 45 वर्षों से वे पुतले बनाने का काम कर रहे हैं. उन्हेांने बरेली के मलपुर बदरिया के उस्ताद शंकर लाल से पुतले बनाने का हुनर सीखा था.
बहुत कुछ ऐसा है इस शहर में, जो इस आपसी समझ के बिना सम्भव नहीं है. हल्द्वानी के बसने के साथ ही यहां तहजीब को महत्व दिया जाता था. 85 वर्ष से अधिक की उम्र पार कर चुके नसीर अहमद सलमानी अपने अतीत को याद करते हुए बताते हैं कि तब यहां के मशहूर कोठों में साहबजादे गजरा लिये तहजीब का पाठ सीखने जाया करते थे. आजकल की तरह न उन दिनों घरों के किवाड़ बन्द किये जाते थे और न ही बद्तमीजी होती थी. वे सन 1952 में हल्द्वानी आये और वनभूलपुरा में किराये के मकान में रहने लगे. उस समय वनभूलपुरा में करीब डेढ़ सौ मकान थे. तब कालाढूंगी चौराहे पर उन्होंने नाई की दुकान खोली. फड़ में सजी दुकान में उस्तरे पर सिल्ली और चमड़े से धार लगाई जाती थी और मौसम गड़बड़ाने या सांय होने पर लालटेन जलाकर रोशनी की जाती थी. तब दूर-दूर से घोड़े-तांगों पर लोग दुकान पर दाढ़ी-बाल बनवाने आया करते थे. तब चैराहे के पास 3-4 लोग फूलों के गजरे भी बेचा करते थे. शौकीन लोग हजामत बनाने के साथ ही इत्र वगैहर डालकर, गजरा लिये पीपलटोले में नाच-गाना सुनने और सीखने जाया करते थे. मियां नसीर बताते हैं उनसे पहले हल्द्वानी में तीन लोग बारबर का कार्य करते थे जिनमें मुरादाबाद के नूर अहमद साहब, सद्दीक अहमद और बुलन्दशहर के बाबूलाल.
पुरानी यादों को और ताजा करते हुए नसीर अहमद बताते हैं कि उस दौर में कालाढूंगी चौराहे पर 3-4 दुकानें मात्र थीं. यहां पर लीलाधर जी की चाय की दुकान भी थी, वह कांग्रेसी नेता थे. इस रोड पर तो घना जंगल था. दिन छिपने के बाद कोई नहीं दिखाई देता था. सन 1955-56 में कुसुमखेड़ा का चतुर सिंह पहली बार रिक्शा लाया. तब व्यापारी लोग भेड-बकरियों में आलू और अन्य सामान लाते थे तथा गुड़ पहाड़ों को ले जाते थे. बेहड़ी के रहमान मियां बांसुरी बेचने को आया करते थे. बाद में बहेड़ी का बैण्ड़ आया जो एक जमाने में मशहूर माना जाता था. तब नगीना से मुंशी राम की कम्पनी प्रोग्राम देने आया करती थी. अब न तो वह बात रही और न वह लोग ही.
वर्तमान में शादी-बारात में खुशियां मनाने के लिए बीस से भी अधिक बैण्ड वालों के दल हैं और बड़े तामझाम, नये गानों की धुनों पर थिरकने के लिए लोग भी तैयार हैं. पहले बारातों में महिलायें नहीं जाया करती थीं लेकिन अब बैंड बाजे की धुन के साथ महिलाओं का सड़कों पर नाचना फैशन में शुमार हो गया है.
आजादी से पहले बिजनौर के गांव नगला से शगीर अहमद ने हल्द्वानी में आकर बैण्ड ग्रुप की विधिवत शुरूआत की. शगीर मियां की पत्नी पिथौरागढ़ की थी. इनके पुत्र अलताफ हुसैन और तालिब हुसैन हुए. शगीर मियां सहारनपुर से बैण्ड वादन की तालीम लेकर हल्द्वानी में क्लारनेट बाजा लेकर आये थे. उस समय बरेली में ताज बैण्ड मशहूर हुआ करता था, जिसे ताज मास्टर चलाते थे. शगीर अहमद ने अपने बड़े पुत्र अलताफ के नाम से हल्द्वानी में अलताफ बैण्ड की शुरूआत की. अपने दो बेटों अलताफ और तालिब हुसैन को उन्हेांने यह हुनर सिखाया. इसी परिवार के 54 वर्षीय जाहिद हुसैन आज बैण्ड ग्रुप का संचलान कर रहे हैं. इनके भाईयों में ताहिर, जाहिद, साहिद, वाहिद और बाजिद हैं.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 53
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