(पिछली क़िस्त: माफ़ करना हे पिता – 3)
उन्हीं दिनों कभी मैंने पिता से पूछा कि क्या इंदिरा गांधी तुमको जानती है ? क्योंकि वे खुद को सरकारी नौकर बताते थे और लोग कहते थे कि सरकार इंद्रा गांधी की है. मतलब कि वे इंदिरा गांधी के नौकर हुए. मालिक अपने नौकर को जानता ही है. मेरा सवाल ठीक था. ऐसे ही एक बार मैंने उनसे पूछा जब मैं तुम्हें याद कर रहा था तब तुम कहाँ थे, क्या कर रहे थे.
देहरादून की यादें बस इतनी सी है. शायद सन 74 में देहरादून छूट गया और आज तक फिर कभी वहाँ जाने का इत्तेफाक नहीं हुआ. कई चीजों और वाकयात आज भी यूँ याद हैं जैसे हाल ही की बात हो. पिता का दफ्तर, पास ही में चाय की दुकान, तिराहे पर साइकिल मैकेनिक गुलाटी. उसके बाँये मुड़ कर थोड़ा आगे अहाते के भीतर हमारी कोठरी. चित्रकार होता तो यह सब कैनवस में उकेर सकता था.
फिर पिता का तबादला अल्मोड़ा हो जाता है, बकौल उनके ऑन रिक्वेस्ट. अल्मोड़ा आकर हम गाँव में रहने लगे. पिता गाँव से शहर नौकरी करने आते-जाते हैं. कुछ समय बाद माँ फिर बीमार अस्पताल में भर्ती हो जाती है. पता नहीं क्या मर्ज था. पिता तीमारदारी और नौकरी साथ-साथ करते हैं. मुझे ननिहाल भेज दिया जाता है. एक दिन नानी के साथ माँ से मिलने गया था. याद नहीं हमारी क्या बातें हुई थीं. स्टूल में बैठा पाँव हिलाता उसे देखता रहा. पिता दहेज में मिले तांबे-पीतल के थाली-परात (जो कि उनकी गैरमौजूदगी के कारण ननिहाल में सुरक्षित थे) बेच-बेच कर दवा-दारू कर रहे थे.
माँ से वह आखिरी मुलाकात थी. माँ की याद मेरे लिये कभी भी भावुक कर देने वाली नहीं रही. ऐसा शायद इसलिये कि उसका मेरा साथ काफी कम रहा. हाँ, मुझे काठ का बना एक गोल डब्बा अकसर याद आता है. धानी रंग के डब्बे में लाल-हरी फूल पत्तियाँ बनी थीं. माँ का सपना था कि कभी पैसे जुटे तो अपने लिये नथ बनावाउँगी,यह डब्बा नथ रखने के काम आयेगा. वह डब्बा मैं संभाल कर नहीं रख पाया. माँ साक्षर थी, मुझे पढ़ाया करती थी. गाँव में एक बार उसने मेरे पूछने पर पशुओं की मिसाल देकर बताया कि इंसान के बच्चे भी इसी प्रक्रिया से पैदा होते हैं. मैं हैरान होता हूँ इस बात को सोच कर. ऐसी बातें आजकल की उच्च शिक्षित माँएँ भी अपने बच्चों को बताने की जुर्रत नहीं करती. तब तो बच्चा अगर किसी बात पर ‘मजा आ गया’ कहता तो तमाचा खाता था. क्योंकि तब माँ-बाप को मजा सिर्फ एक ही चीज में आता था, जिसके नतीजे में कम से कम दर्जन भर बच्चे हर वक्त मजे को बदमजगी में बदल रहे होते, जिन्दगी अजीरन बन जाती.
सुबह का समय है, दिन जाड़ों के, धूप निकली है मगर खुद ठिठुरी हुई सी. आँगन में छोटे मामा मुझे पीट पीट कर हिन्दी पढ़ा रहे हैं. ऊपर सड़क में जो एक दुकान है, वहाँ से बीच वाले मामा को आवाज देकर बुलाया जाता है. मामा मुझे भेज देते हैं कि जाकर पूछ आऊँ कि क्या काम है. ताकि अगर कोई बबाली काम हो तो बहाना बनाया जा सके. पाले से भीगे पथरीले रास्ते पर नंगे पाँव चलता हुआ करीब आधा किमी. दूर दुकान में जाता हूँ. दुकानदार मुझे लौटा देता है कि तेरे मतलब की बात नहीं, नवीन को भेज. थोड़ी देर बाद मामा आकर बताते हैं कि अस्पताल में माँ चल बसी. तब डाक विभाग के हरकारे डाक के थैले लेकर पैदल चला करते थे. उन्हीं से पिता ने जवाब भिजवाया था. मेरे कॉपी-किताब किनारे रखवा दिये जाते हैं, मेरे लिये सीढ़ियों में बोरा बिछा दिया गया. लोग कहते हैं, देखो कैसा बड़ों की तरह रो रहा है. वो लोग दहाड़ें सुनने के आदी थे. दहाड़ें मारते हुए सर फोड़ने को आमादा आदमी को संभालने और संसार की असारता पर बोलने के सुख से अनजाने ही उन्हें वंचित कर रहा था मैं.
इसके शायद दूसरे ही दिन छोटे मामा मुझे पिता के पास गाँव छोड़ गये, जहां पिता माँ का क्रियाकर्म कर रहे थे. शायद तकनीकी मजबूरी के कारण ऐसा करना पड़ा होगा. मैं काफी छोटा था और चचा-ताऊ कोई थे नहीं. हिन्दुओं के शास्त्र भारतीय संविधान की तरह काफी लचीले हैं, जैसा बाजा बजे वैसा नाच लेते हैं. चाहें तो हर रास्ता बंद कर दें और अगर मंशा हो तो हजार शहदारियाँ खुल जाती हैं.
माँ के क्रियाकर्म से निपट कर पिता फिर दफ्तर जाने लगे. सुबह मेरे लिये खाना बना कर रख जाते हैं. रात को 8-9बजे लौट कर आते हैं. टॉर्च और जरकिन लेकर एकाध किमी. दूर नौले से पानी लाते हैं. खाना बनाते हैं. उनके लौटने तक मैं दूसरों के घरों में बैठा रहता हूँ. बाद में पिता पानी का जरकिन सुबह साथ लेकर जाते हैं जिसे रास्ते में पड़ने वाले गाँव में रख जाते हैं. शाम को उसी दिशा में नौले जाने का फेरा बच जाता है. मैं दिन भर सूखे पत्ते सा यहाँ-वहाँ डोलता रहता. दूसरे के बच्चों के साथ गाय-बकरियाँ चराने जाते (अपनी कोई गाय बकरी नहीं थी). दूसरे बच्चों की देखादेखी कीचड़नुमा पानी के तालाब में नहाता, काफल के पेड़ों में चढ़ता-गिरता. लगभग साल भर यूँ ही बीत गया. इसी दरमियान मैं स्कूल भी जाने लगा, कुछ उसी तर्ज पर जैसे गाय-बकरियाँ चराने जाता था और वह भी सीधा तीसरी क्लास में. शायद इसलिये कि मेरी हिन्दी चौथी-पाँचवी के बच्चों से अच्छी थी. मास्टर का बोला हुआ मैं कम या बिना गलती के लिख लेता. शायद इसी बात से मास्टर साहब प्रभावित हो गये हों. लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि शिक्षा की बुनियाद रखते ही हिल गयी. इस ऐतबार से मेरी गिनती घोड़े में न गधे में. बाद में दुश्मनों ने काफी समझाया-उकसाया कि भई ऊपर का माला पक्का करवा लो और दीवारों में पलस्तर भी. अब भला झुग्गी की छत भी कहीं सीमेंट और लोहे की हो सकती है.
(जारी)
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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