जंगलों को बनाए बचाए रखने वाले नियम कानूनों में बहुत जल्दबाजी और अफरा-तफरी से बदलाव कर दिए जाते रहे. इनके पीछे वृद्धि और विकास की जरुरत को ढाल बनाया गया. जंगल के कानून समूचे देश के अवलम्ब क्षेत्र की सुरक्षा के लिए बने जिनमें फेर बदल के प्रयास चाहते रहे कि वन के इलाके तथा इनसे प्राप्त संसाधन गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए आसानी से उपलब्ध होते रहें. स्वाभाविक था कि देर सबेर इसका खामियाजा समूचा देश भुगतता. वनों के अनवरत क्षरण से भूमि का अपरदन व कटाव को तो सामान्य घटना मान लिया जाता रहा पर जब मौसम अपने संहारक रूप में सामने आया तब यह महसूस हुआ कि अब यह दशाएं चक्रीय व संरचनात्मक असंतुलन को प्रदर्शित करने लगी हैं जिनमें जोखिम भी है और खतरा भी. पहाड़ी राज्यों हिमाचल और उत्तराखंड में हाल ही में आई विपदा जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी स्वरूप को दिखाने में सक्षम थीं जिनमें अपार जन व धन की हानि हुई.
(Forest Conservation Act Amendments Hindi)
फॉरेस्ट एक्ट में हाल ही में किए संशोधन वनों के कटान के लिए लगाए जा रहे विधान को लोचदार बना गए थे. विकास की प्रक्रिया में आर्थिक वृद्धि दर संकेतकों को तीव्र करने की इस पुरजोर कोशिश को अब अदालती बहस का सामना करना पड़ेगा. शुरुवात कुछ विलंब से ही सही हो चुकी है. सेवा निवृत भारतीय वन एवम् प्रशासन सेवा के अधिकारियों के समूह ने वन संरक्षण अधिनियम में सरकार द्वारा किए जा रहे फेरबदल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. याचिका कर्ताओं में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के दो पूर्व सचिव एम के रंजीत सिंह, मीना गुप्ता तथा राष्ट्रीय वन्य जीवन बोर्ड की पूर्व सदस्य प्रेरणा सिंह बिंद्रा भी शामिल हैं. सुप्रीम कोर्ट ने 20 अक्टूबर 2023 को याचिका पर सुनवाई की और केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए छह सप्ताह का समय दिया. 21 अक्टूबर को बिंद्रा ने ट्वीट किया कि, “भारत की संपदा, वनों तथा बहुमूल्य वन्य जीवन को संरक्षित करने, हमारी प्राकृतिक एवम सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित कर, हमारी पारिस्थितिक व वित्तीय सुरक्षा हेतु पारिस्थितिकीय तंत्र को बचाने की यह लड़ाई है. यह हमारे जंगलों को संरक्षित करने जीवित रहने की लड़ाई है. हमारे बच्चों के लिए व्यवहार्य पर्यावरण का पाठ है”.
वानिकी की गहरी समझ तथा अनुभव रखने वाले इस समूह की चिंता है कि सरकार के द्वारा वन संरक्षण की आड़ में जो नए नियम तथा विधान थोपे गए हैं उनसे वनों की मात्रा एवम गुणवत्ता में प्रतिगामी प्रभाव पड़ेंगे. जलवायु परिवर्तन के जिन विनाशकारी प्रभावों को देश भोगने लगा है उनके घातक प्रभाव और खराब होने का सिलसिला बढ़ता ही रहेगा. याचिका यह तर्क देती है कि नया संशोधित अधिनियम ऐसी नियामक व्यवस्था पर टिका है जिससे जंगलों को पूर्व से प्राप्त हो रही सुरक्षा कमजोर होती है तथा इनका क्षेत्र संकुचित होता है.
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सुप्रीम कोर्ट में न्याय मूर्ति बी आर गवानी,अरविंद कुमार तथा प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने इस जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार को नोटिस दिया.उच्च न्यायालय में अनुच्छेद 226 के अधीन या सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 32 के अंतर्गत जनहित याचिका दाखिल की जा सकती है. विशेष परिस्थितियों में व्यापक रूप से जनहित से जुड़े खास मामलों में पीआईएल सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई. सेवानिवृत वन अधिकारियों के समूह के वकील कौशिक चौधरी ने वन संरक्षण अधिनियम में सरकार के द्वारा किए गए संशोधनों को रद्द करने तथा इसके विधान को पर्यावरण संगत बनाने का पक्ष प्रस्तुत किया. अपीलकर्ताओं का आरोप था कि सरकार ने जिस तरह वन से जुड़े नियमों में बदलाव कर डाला है उससे सदियों से वनों की सुरक्षा करने वाले नियामक तंत्र की उपादेयता को कमजोर कर डाला है. इसके साथ ही वन भूमि की परिभाषा में काट छांट तथा फेर बदल कर सर्वोच्च न्यायालय के विधानों का उल्लंघन भी किया है. इससे पूर्व भी नए संशोधन अधिनियम के विरोध में देश के महत्वपूर्ण संस्थानों, अनुसंधान संगठनों, वैज्ञानिकों और जागरूक हितचिंतकों की आलोचनात्मक टिप्पणी की भांति यह याचिका इस अवलोकन को तर्कपूर्ण मानती है कि अफरा-तफरी में स्वीकृत कर दिया गया अधिनियम पुराने स्वरूप से प्रतीपगमन दिखाता है क्योंकि इसकी लोचदार नियमावली वन भूमि के काफी बड़े हिस्से को वनों की कटाई के साथ निर्माण कार्यों से होने वाली गतिविधियों को बढ़ावा देती है.
सरकार के द्वारा वन संरक्षण अधिनियम में किए गए रद्दोबदल और इसके प्रकृति तथा निवासियों, जीव जंतुओं, फ्लोरा-फोना पर पड़े विनाशकारी प्रभावों पर चर्चा हुई पर ऐसी कोई खास लहर पैदा नहीं हुई जिससे प्रतिरोध उभरता. विकास और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर मुखर अभिव्यक्ति अब जनता के बीच होती दिखाई भी नही देती. संभवतः इसका एक बड़ा कारण चिपको जैसे आंदोलन की दुर्गति, खिसको झपटो के रूप में दिखती जनमानस ने गहराई से महसूस की है. इसके नायक सरकार से प्रशस्ति सम्मान पर्याप्त सुविधा पा चुके, खास बने.असली कार्यकर्ता अपना काम कर आम ही बने रहे. समय समय पर अन्य आपदाओं की चेतावनी देने वाले प्रतिक्रियावादियों को जिस प्रकार उस इलाके में अवस्थापना तथा अंतर्संरचना की दुहाई दे निस्तेज कर हाशिए पर सरका दिया जाता रहा उसके उदाहरण भी पुराने नहीं. पहाड़ी इलाकों में यात्रा तथा पर्यटन विकास नीतियों पर जोर दिया गया. अंतरसंरचना पर भारी निवेश हुआ तो लगातार ऐसी दशाओं का अनुभव भी जिसने स्थानिक रूप से पहाड़ी इलाकों की धारक क्षमता को कमजोर तथा खोखला कर दिया. साथ ही वन संरक्षण संशोधन पारित हुआ.
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याचिकाकर्ताओं ने कहा कि वन्य जीवन की गहरी समझ रखने वाले वैज्ञानिकों और आंचलिक परिवेश में सदियों से कार्य करने वाले लोगों के सपनों को चकनाचूर कर विरोध के हर स्वर से बेपरवाह हो वन संरक्षण अधिनियम संशोधन को मंजूरी दे दी गई.अब कुछ विलंब से ही सही देश के विभिन्न राज्यों के तेरह याचिक कर्ताओं ने एकमत होकर स्पष्ट किया कि सरकार ने वन क्षेत्र की जो नई परिभाषा गढ़ी उसने भारत के अधिकांश असुरक्षित वन इलाकों को और अधिक संवेदनशील बना दिया है.
2023 का संशोधित वन अधिनियम सुरक्षा के लिए लगाए गए संरक्षणों को हटाए जाने की पुरजोर वकालत करता है.यह संशोधन फॉरेस्ट एक्ट में घोषित एवम अधिसूचित वन क्षेत्रों पर संरक्षण का दायरा बढ़ाता है.
नीतियों के स्वरूप को तय करने में यह अधिनियम भारत के पर्यावरण के साथ ही न्याय एवम विधान के उन स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन करता है जो पूर्ववत निर्दिष्ट किए गए थे.जैसे कि 1996 के आदेश के अनुरूप सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को पर्यावरण संरक्षण हेतु निर्देशित करते स्पष्ट किया था कि यह उनका दायित्व है कि वह पर्यावरण में हो रहे अवक्षय के कारणों का पता लगाए तथा इसकी रोकथाम के लिए हर सावधानी बरते. सुप्रीम कोर्ट (1996) स्पष्ट कर चुका था कि 1980 के अधिनियम का उद्देश्य वनों की कटाई को रोकना है जो पारिस्थितिकीय संतुलन पर विपरीत प्रभाव डालता है. इसलिए इस अधिनियम को सभी प्रकार के वनों से संबंधित किया जाना चाहिए भले ही उन पर स्वामित्व के आधार पर या वनों के वर्गीकरण के आधार पर भिन्नता दिखाई दे. विधेयक में भूमि की दो श्रेणियों को अधिनियम के दायरे से बाहर किया गया था. इसमें पहला,25 अक्टूबर 1980 से पहले वन के रूप में दर्ज भूमि रही जो वन के रूप में अधिसूचित नहीं और दूसरा वह भूमि जो 12 दिसंबर 1996 से पहले वन उपयोग से गैर वन उपयोग में बदल गई. इस तरह यह अधिनियम वनों की कटाई रोकने पर 1996 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध खड़ा हो सकता है.वनों को सुरक्षित करने वाले प्रतिबंध बाहर रखी भूमि पर लागू नहीं होंगे. इससे वन और वन्य जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना संभव है.
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश भी दिया था कि जंगलों में होने वाली सभी गैर वन गतिविधियों पर अंकुश लगना चाहिए जब उन्हें केवल राज्य सरकार से मंजूरी मिली हो,केंद्र सरकार से नहीं.विधेयक में यह भी स्पष्ट किया गया कि फैसले की तारीख से पहले जो भूमि वन से गैर उपभोग वनों में बदल गई है उसे 1980 के अधिनियम के दायरे से छूट दी जाएगी. मतलब साफ है कि कोई भी वन भूमि जिस पर 25 अक्टूबर 1980 और 12 दिसंबर 1991 के मध्य गैर-वन गतिविधि को मंजूरी दी गई थी वह अधिनियम के अंतर्गत नहीं आयेगी.
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सार्वजनिक ट्रस्ट का यह पक्ष भी रेखांकित किया गया कि सार्वजनिक भूमि के साथ ही इस प्रकरण में भारत सरकार के कब्जे वाले जंगल और जमीन देश के समस्त निवासियों और भावी पीढ़ियों की ओर से सरकार के पास हैं अतः स्वाभाविक रूप से वह जंगलों की रक्षा के लिए उत्तरदायी है. इसके साथ ही गैर प्रतीपगमन का सिद्धांत है जिसकी मान्यता है कि मानवता के हित में किसी भी पर्यावरण कानून को दुर्बल नहीं किया जा सकता बल्कि उसमें सुधार किया जा सकता है.
याचिका में कहा गया है कि नए अधिनियम के क्रियान्वयन से कई उन अन्य अधिकारों का हनन होगा जिनमें संविधान के अनुच्छेद 14 के साथ अनुच्छेद 48 ए, 51सी और 51 ए (जी) मुख्य हैं.इनमें अनुच्छेद 14 मौलिक अधिकारों से संबंधित है. अनुच्छेद 48 ए में स्पष्ट है कि राज्य पर्यावरण सुरक्षा तथा सुधार एवम् वनों तथा वन्य जीवन की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है.इस आधार पर वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 संविधान के साथ साथ भारत के पर्यावरण एवम विधान शास्त्र के स्थापित सिद्धांतों के अंतर्गत गारंटी कृत कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है.अतः न्याय पालिका 2023 के वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम को अमान्य तथा शून्य घोषित करे.नया कानून देश के पुराने वन शासन ढांचे की अनदेखी करता है. परियोजनाओं और गतिविधियों को नए कानून में अस्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है और इनकी व्याख्या जनहित की कीमत पर वाणिज्यिक हितों को पूरा करने वाले उपाय के रूप में आसानी से कर ली जाएगी.
इस संशोधन से पहले ही ,फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रपट के अनुसार 1997 से 2019 की समय अवधि में देश ने 11,743 वर्ग किलोमीटर अवर्गीकृत वन क्षेत्र गंवा दिया है. अब नए प्राविधान के लागू होते धारा 1A(1) से वन क्षेत्र की दुर्बल दशा और अधिक बिगड़ेगी तथा अवर्गीकृत वन क्षेत्र के बेहिसाब दोहन पर कोई लगाम लगाने की गुंजाइश बाकी नहीं रह जायेगी.नागालैंड में वन भूमि का लगभग 97 प्रतिशत तथा मेघालय का लगभग 88 प्रतिशत भाग इन नए संशोधनों से किसी भी प्रकार के वैधानिक संरक्षण से रहित हो जायेंगे.
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वन संरक्षण के जिन सुधरे हुए नियमों तथा प्रविधानों को लागू किया जाना है उसके अधीन देश की अंतर्राष्ट्रीय सीमा की परिधि के 100 किलो मीटर की वन भूमि फॉरेस्ट एक्ट के दायरे से बाहर हो जायेगी.संशोधन में यह भी स्पष्ट किया गया है कि सरकार द्वारा बिछाई गई रेल लाइन या सार्वजनिक पथ परिवहन के 0.10 हेक्टेयर के दायरे में आई बसासत पर भी वन अधिनियम से जुड़े विधान प्रभावी नहीं होंगे. वन क्षेत्रों में प्राणि उद्यान ,सफारी , जंगल यात्रा व पारिस्थितिकीय पर्यटन की सुविधाओं की अनुमति दी गई है.याचिका में कहा गया है कि प्राणि उद्यान जीव जंतुओं को कैद करके रखते हैं तथा सफारी इलाके महज बड़े बाड़े हैं जिन्हें किसी भी प्रकार से वन्य जीव व उनकी स्वाभाविक गतिविधियों के सहज संरक्षण के उपायों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता.
याचिकाकर्ता न्यायालय की शरण में इसी आशा से गए कि वन संरक्षण के नाम पर जो संशोधन किए गए है उनमें यह चिंता कहीं नहीं की गई कि देश में वन भूमि के विशाल भू भाग को पहले से दी गई कानूनी सुरक्षा में काफी कमी दिखाई दी है. अब दी जाने वाली ढील से वनों की कटाई तथा अन्य अपरदन संबंधी परेशानियों का सिलसिला शुरू होगा.जंगलों में मेगा परियोजनाएं अनुमत होने से पारिस्थितिकीय तंत्र गंभीर रूप से बाधित तथा जटिल प्रवृति का हो जाना है.
याचिका में कहा गया है कि 2023 का यह संशोधित अधिनियम ऐसे तनाव दबाव और कसाव को उत्पन करेगा जो देश की पर्यावरण परिस्थितियों, पारिस्थितिकी तंत्र एवम खाद्य सुरक्षा के सामने आने वाले संकटों से उत्पन्न होंगे. अधिनियम के संशोधन से यह अब कुछ वन भूमि जैसे डीम्ड वन तथा कम्यूनिटी या सामुदायिक वन भूमि पर लागू नहीं होगा जो वन के शब्द कोष अर्थ के अनुसार कार्यात्मक वन तो हैं पर अधिकारिक रूप से दर्ज नहीं हैं.वनवासियों और स्थानीय लोगों की दिनचर्या और आजीविका की दशाएं तो इससे प्रभावित होंगी ही.इस प्रकार यह संशोधित अधिनियम जंगल की भूमि के उपयोग के मामले में केंद्र सरकार को निरंकुश विवेकाधिकार प्रदान करता है. इसके साथ ही जंगल की जमीन की गुणवत्ता ,नियंत्रण स्थितियों तथा नियामक जांच को सीमित प्रतिमान देते कम करता है.ऐसे सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट होता है कि इसके लागू होने पर असमायोजन की दशाएं उत्पन होती रहेंगी.यह विविध संवैधानिक प्राविधानों एवम पर्यावरण के स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन करता है इसलिए अफरातफरी में लागू इस संशोधन को रद्द किया जाना चाहिए. याचिका में यह स्पष्ट किया गया है कि इस संशोधन से संबंधित कानून बनाने में उचित संसदीय प्रक्रिया तथा परामर्श का अनुपालन नहीं किया गया था.
न्यायपालिका का अभिमत है कि वन संरक्षण अधिनियम का उद्देश्य पर्यावरण असंतुलन के दुष्प्रभाव से सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए जिसके अंतर्गत केवल शब्दकोश की परिभाषा के अधीन की वन भूमि ही सम्मिलित नहीं बल्कि सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हर प्रकार के वह वन शामिल होते हैं भले ही उनका वर्गीकरण या स्वामित्व किसी भी निरपेक्ष आधार पर किया गया हो तथा वह किसी भी प्रकार के विधान या नियम के अधीन संरक्षित किए जा रहे हों तथा अब ये इस सुरक्षा के दायरे से बाहर कर दिए जा रहे हों.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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