कला साहित्य

लोककथा : तपस्या का फल

विरेन आज घर से बाजार के लिये यह कहकर निकला था कि वह पूरा सामान खरीद कर लायेगा. एक दुकान से दूसरी दुकान, दूसरी से तीसरी और फिर चौथी. पत्नी भी साथ में थी. बेटा चौदह साल का हो गया था, उसका यज्ञोपवीत किया जाना था. बिरादरी व पास-पड़ोस के लोगों को न्यौता भेजा जा चुका था. हालांकि यज्ञोपवीत में अभी एक सप्ताह शेष था परन्तु आज छुट्टी जो थी. पत्नी खरीददारी में व्यस्त थी तो वह दुकान से निकलकर बाहर सड़क किनारे आकर सिगरेट पीने लगा. एकाएक गेरुआ वस्त्रधारी, कन्धे में झोला लटकाये और हाथ में डण्डा पकड़े हुए एक सन्यासी तेजी से उसके पास से गुजर गया. डण्डे को वह जमीन पर टेकने की बजाय सुरक्षा के लिहाज से बगल में दबाये हुये था. विरेन ने उसकी ओर देखा तो कुछ जाना-पहचाना सा लगा. कौन हो सकता है, कौन हो सकता है, सोचा तो खयाल आया कि यह कहीं महुआ तो नहीं है. कद-काठी, चाल-ढाल से तो महुआ ही लग रहा है. (Folklore)

बीस-बाईस साल हो गये कॉलेज छोड़े हुये, इतने अरसे में तो यादें धुंधला जाती है. परन्तु विरेन को अपनी स्मरण शक्ति पर पूरा भरोसा था. वह मन ही मन लगभग निश्चित हो गया कि यह महुआ ही है. तो फिर लगभग उसके पीछे दौड़ते हुये उसने आवाज लगाई ‘महुआ! ओ महुआ!’ गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्ति के पांव थोड़ा ठिठके, इधर-उधर देखा, परन्तु आवाज पीछे से आ रही थी तो वह मुड़ा. आश्चर्य भी हुआ कि इस अजनबी शहर में कौन हो सकता है जो उसे इस अधिकारपूर्ण ढंग से उसके ‘निकनेम’ से पुकार रहा है. वह रुका, तब तक विरेन भी वहाँ पहुँच चुका था. विरेन ने फिर कहा ‘गजब यार, महुआ ही हो न? तो गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्ति ने हामी भरी. लेकिन कहा ‘मैंने पहचाना नहीं.’  मजाकिया स्वभाव के धनी विरेन ने कहा ‘वे, तेरी बुद्धि घास चरने चली गयी? लंगोटिया यार है तू मेरा. पहचाना, विरेन हूँ भाई विरेन.’  ‘ओह,’ गेरुआ वस्त्रधारी महुआ धीरे से मुस्कराया, एक सन्यासी  होने का दर्प उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था और फिर वह तो इस समय एक साधारण गृहस्थ के सामने खड़ा था, भले ही वह उसका अभिन्न मित्र ही क्यों न रहा हो. सन्यासी ने विरेन के साथ खड़ी स्त्री की ओर इशारा कर पूछा, ‘कौन है यह?’ तो विरेन ने परिचय कराया कि ‘यह मेरी पत्नी है’ और अपनी पत्नी की ओर मुहँ कर महुआ के बारे में बताया ‘हम दोनों साथ पढ़ते थे, हॉस्टल में भी साथ रहे. बाकि बातें घर पर होगी’  कहकर उसने अधिकारपूर्ण ढंग से महुआ का हाथ पकड़कर मुस्कराते हुये कहा ‘महाराज, आज आप हमारा आथितेय स्वीकार करेंगे न?’ और सन्यासी को घर ले आया.

घर पहुँचकर जब दोनों आराम से बैठे तो कुशल-क्षेम पूछने के बाद विरेन ने अपनी पत्नी को बताया कि ‘यह महुआ पढ़ने में तो ठीक-ठाक था. घर से भी कमी नहीं थी, हाँ, मन इसका जरूर डोलता रहता था. कभी खिलाड़ी बनने की बात करता, कभी रंगकर्मी. कभी नेता बनने की बात करता और कभी सन्यास लेने की सोचता. महुआ का मन कभी भी नौकरी के लिये लालायित नहीं होता था. यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह जिम्मेदारियों से भागता था. पता नहीं वह ऐसा क्यों सोचता था और इसी पलायनवादी सोच के चलते आखिरकार आज वह सन्यासी बन गया.’

हल्का नाश्ता व चाय लेने के बाद फिर विरेन ने सीधे महुआ को सम्बोधित करते हुये सवाल किया ‘बता भाई महुआ, कैसी चल रही है यह सन्यास की जिन्दगी? कहाँ-कहाँ रहा इतने साल?’ महुआ ने अपने सन्यासी बनने की बात बढ़ा-चढ़ा कर कही, अमुक-अमुक अखाड़े से जुड़ने की बात कही और फिर कहा कि सोलह वर्षों तक हिमालय में कठोर तपस्या करने की बात बताई. तो विरेन ने पूछा कि यार, उस तपस्या से तुम्हें क्या मिला? क्या-क्या लाभ हुआ? आदि आदि.

सन्यासी महुआ ने कहा कि ‘देख, मैं अभी बताता हूँ कि तपस्या का फल मुझे क्या मिला.’ इतना कहकर महुआ ने हाथ में पकड़ा हुआ डण्डा बाहर आंगन की ओर फेंक दिया और गर्व से कहा कि ‘अब देख मेरी तपस्या का फल.’ सन्यासी बने महुआ ने कुछ मंत्र पढ़े, हाथ हवा में लहराया और उंगलियां मटकाई तो फेंका हुआ डण्डा स्वयं ही उसके हाथ में आ गया और कुटिल मुस्कान के साथ विरेन से पूछा ‘देखा?’ विरेन ने महुआ को गौर से देखा और विस्मित होने का अभिनय किया. फिर पूछा ‘सोलह वर्षों की तपस्या का फल है यह? बहुत बढ़िया.’ फिर विरेन अपनी लय में आ गया. ‘लेकिन यार, केवल एक डण्डा मंगा लेने भर के लिये पूरे सोलह वर्षों तक तपस्या करने की बात जम नहीं रही है.’ तो सन्यासी महुआ कुछ नाराजगी व्यक्त करते हुये संक्षेप में बोला, ‘तुम ग्रहस्थ क्या समझोगे तपस्या को?’  तो विरेन ने उससे डण्डा ले लिया और उसी की ही तरह बाहर आंगन में फेंक दिया और भीतर बैठे अपने लड़के को पास बुलाकर कहा कि, ‘ओय रघ्घू, जा बेटा, वह डण्डा ले आ.’ रघ्घू गया और डण्डा उठा ले आया. तब विरेन ने महुआ की ओर मुस्कराकर कहा कि ‘देखा महुआ? यह डण्डा ही क्या, मैं तो अपनी लम्बी तपस्या के बलबूते पानी से भरी बाल्टी भी मंगा सकता हूँ और भी कई काम करवा सकता हूँ. परन्तु तुम सन्यासी इसे क्या समझोगे.’

देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

लोककथा : दुबली का भूत

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago