नवीन जोशी

पहाड़ ने भी खूब संवारा लखनऊ का चेहरा

किसी भी नगर की सबसे पहली पहचान उसकी नागरिक सुविधाओं से बनती है. लखनऊ अब एक बड़ा महानगर है. सन 1947 में यह छोटा-सा नगर था. इसका प्रबंध नगर पालिका करती थी जिसकी आर्थिक हालत बड़ी खस्ता थी. कुछ इस कारण से और कुछ अधिकारियों-कर्मचारियों की लापरवाही से भी यहां की सड़कें बुरी हालत में थीं. 1900 में बना लखनऊ का जल-कल ध्वस्त हो चुका था. नागरिक पानी के लिए परेशान रहते थे. मुश्किल से एक-दो घण्टे पानी मिलता था. नालियों की सफाई वर्षों से नहीं हुई थी. गंदगी उठाई नहीं जाती थी. कचरा उठाने वाले ट्रक टूटे पड़े थे. कर्मचारियों को वेतन के लाले थे. चुंगी वसूली की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं थी. यह बदहाली देखते हुए मुख्यमंत्री गोविंदबल्लभ पंत ने 1948 में लखनऊ नगर पालिका को भंग करके बी डी सनवाल को वहां प्रशासक बनाकर बैठा दिया. ये वही आईसीएस बी डी (भैरव दत्त) सनवाल थे जो 1943 में लखनऊ के सिटी मजिस्ट्रेट बने थे और कालांतर में प्रदेश के मुख्य सचिव बने. मुख्य सचिव पद पर तैनात होने वाले वे अंतिम आईसीएस अफसर थे. उनके बाद आईएसएस अधिकारी मुख्य सचिव बने.
(People of Uttarakhand in Lucknow)

खैर, श्री सनवाल ने चार साल में न केवल लखनऊ की नागरिक सुविधाओं का चेहरा बदल दिया, बल्कि इसके नक्शे में यादगार संस्थान, इमारतें और महानगर जैसी विशाल आवास-कालोनी जोड़े. उन्होंने नगर पालिका प्रशासक का दायित्व सम्भालते ही अधिकारियों-कर्मचारियों की चूड़ियां कसीं, सबको जवाबदेह बनाया, स्वयं चुंगी नाकों का दौरा किया और जैसा कि उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है- “1949-50 में नगर पालिका की आय दुगुनी हो गयी और अगले अप्रैल से 150 प्रतिशल बढ़ गयी.” ध्वस्त जल-कल व्यवस्था को पालिका के अभियंता ठीक नहीं कर सके तो श्री सनवाल ने एक रिटायर लेकिन काबिल अभियंता दस्तूर साहब को अपने से भी अधिक वेतन देकर नियुक्त किया जिन्होंने लखनऊ में पानी आपूर्ति व्यवस्था में चमत्कारिक सुधार कर दिए. दस्तूर साहब काम के धुनी थे और सख्त प्रशासक भी थे. वे शहर में जल आपूर्ति का खुद निरीक्षण करते थे और जहां भी खुले नलों से पानी बहता देखते वहां की सप्लाई एक हफ्ते के लिए काट देते थे. इससे पानी बर्बाद करने की प्रवृत्ति रुक गई. आज सन 2021 में, जबकि पानी का भीषण संकट सिर पर खड़ा है, शहर में कितना पानी बर्बाद किया जाता है! अब कोई दस्तूर साहब नहीं हैं. होंगे भी तो उनकी पूछ नहीं होती. खैर, सनवाल साहब ने पालिका की बढ़ी आमदनी से छह रोड रोलर खरीदे, मालगाड़ी बुक करके बांदा से रोड़ी मंगवाई और राजधानी की सड़कें दुरस्त कीं.

गोमती पार महानगर आवासीय कॉलोनी, लालबाग का भोपाल हाउस और माल एवन्यू का प्रतिष्ठित म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल भी लखनऊ को सनवाल जी की देन हैं. महानगर कॉलोनी का डिजायन उन्होंने प्रसिद्ध अमेरिकी वास्तुशिल्पी ट्रेजर से बनवाया जो उन दिनों प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर उत्तर प्रदेश आए हुए थे. अब तो महानगर कॉलोनी काफी बदल गई है, इसलिए कम नज़र आएगा लेकिन उस समय यहां की सड़कें सीधी की बजाय अर्धवृत्ताकार (सर्कुलर) बनवाई गई थीं. आज यह जानकर ताज़्ज़ुब होगा कि सन 1950-52 में महानगर में छह-सात आने प्रति वर्ग फुट की दर से भूखण्ड बेचे गए थे. लालबाग का प्रसिद्ध भोपाल हाउस भी नगर पालिका ने श्री सनवाल की देख-रेख में बनवाया था. इस भवन को बनाने में लोहे के गर्डर प्रयुक्त हुए हैं जिनके लिए तब रेलवे से एक जीर्ण-शीर्ण पुल खरीदा गया था.

श्री सनवाल ने ही आज भी प्रतिष्ठित म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल की स्थापना कराई थी. प्रसिद्ध वकील, समाजसेवी और राजनेता तेज बहादुर सप्रू के आईसीएस पुत्र एसएनसप्रू उस समय शिक्षा सचिव थे. उनका मन एक अच्छा नर्सरी स्कूल खोलने का था लेकिन सरकार के पास बजट नहीं था. नव स्वाधीन देश में अर्थिक संकट बना रहता था. चूंकि तब तक श्री सनवाल की प्रशासनिक सूझ-बूझ से नगर पालिका का खजाना भर गया था, इसलिए सप्रू जी की सलाह पर श्री सनवाल नर्सरी स्कूल खोलने के लिए तत्पर हो गए. माल एवन्यू में, जहां आज भी यह स्कूल है, कांग्रेसी महिलाओं का क्लब चलता था. वह ज़्यादातर समय खाली पड़ा रहता था. लेडी वजीर हसन इस क्लब की अध्यक्ष थीं. श्री सनवाल ने वह क्लब भवन किराए पर लिया और वहां म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल की स्थापना कर दी. बच्चों को कथक सिखाने के लिए तब दो सौ रु मासिक पारिश्रमिक पर लच्छू महाराज की सेवाएं भी ली गई थीं. ये प्रसंग श्री सनवाल ने स्वयं अपनी अत्मकथा में दर्ज़ किए हैं. उन्होंने नगर पालिका भवन में एक पुस्तकालय और एक आर्ट गैलरी भी बनवाई थी. आर्ट गैलरी के लिए लखनऊ के नामी कलाकारों के चित्र दो-दो सौ रु में खरीदे गए थे. एक-एक चित्र कलाकारों ने अपनी तरफ से नि:शुल्क दिया था. श्री सनवाल ने लिखा है- “कालांतर में पुस्तकालय की आधी पुस्तकें और आर्ट गैलरी के अनेक चित्र म्युनिसिपल अधिकारियों और सभासदों के घर पहुंच गए.” आज और भी बड़े पैमाने पर जारी अफसरों व राजनेताओं की यह लूट-वृत्ति आज़ादी के बाद ही पनप गई थी.

लखनऊ में रेलवे का जो विख्यात अनुसंधान, अभिकल्प एवं मानक संगठन (आरडीएसओ) है उसकी स्थापना में एक उत्तराखण्डी अभियंता का योगदान है. पद्म विभूषण से अलंकृत, रेलवे बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन घनानंद पाण्डे के समक्ष जब आरडीएसओ की स्थापना का प्रस्ताव आया तो उन्होंने इसके लिए लखनऊ को चुना. वे लखनऊ के ही निवासी थे. तब से लेकर आज तक आरडीएससो भारतीय रेलवे के लिए महत्वपूर्ण शोध और डिजायन तैयार करता रहा है. लखनऊ के गौरव-संस्थानों में यह भी प्रमुख रूप से शामिल है. राजधानी का एक और महत्त्वपूर्ण संस्थान, गिरि विकास अध्ययन संस्थान, प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ टी एस पपोला का स्थापित किया हुआ है. आर्थिक योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के अध्ययन, शोध एवं सुझावों के लिए कभी इस संस्थान की बड़ी मान्यता थी. 
(People of Uttarakhand in Lucknow)

लखनऊ मेडिकल कॉलेज (अब छत्रपति साहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय) में 1972 में मॉलीक्युलर बायोलॉजी प्रयोगशाला खोलने का श्रेय प्रसिद्ध विज्ञानी प्रो सुरेंद्र सिंह परमार को जाता है. जवाहरलाल नेहरू के नाम पर स्थापित यह देश और दक्षिण एशिया की पहली मॉलीक्युलर लेबोरेटरी थी. उल्लेखनीय यह भी है कि इस प्रयोगशाला की स्थापना के लिए प्रो परमार ने अकेले अभियान चलाया और उन्हीं के आग्रह पर सरकार ने इसके लिए विशेष अनुदान दिया था. स्वयं प्रो परमार ने कई महत्त्वपूर्ण शोध किए और सम्मान-पुरस्कार पाए. बाद में वे अमेरिका चले गए और वहां के कई प्रसिद्ध विश्वविद्याल्यों से सम्बद्ध रहे. वहां भी उन्होंने अपने शोध कार्यों से काफी नाम कमाया.

1949 से 1952 तक लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता रहे एम एस बिष्ट की देख-रेख में लखनऊ में कई निर्माण कार्य हुए. वह विभिन्न कार्यालय और संस्थानों के भवनों के निर्माण का दौर था. प्रदेश में वायरलेस नेटवर्क के विकास और विस्तार में छत्रपति जोशी के योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता. संचार का तब यही सबसे विश्वसनीय माध्यम था, जिसकी आज कल्पना करना भी कठिन है. उन्होंने 1962 में चीन से युद्ध के बाद दुर्गम पहाड़ों में वायरेस संचार का विस्तृत जाल बिछाया. बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में तुरत-फुरत वायरलेस नेटवर्क स्थापित करके मुक्ति वाहिनी को सफलता दिलाने में श्री जोशी ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी. पीएसी में वायरलेस अधिकारी के रूप में सेवा शुरू करने वाले श्री जोशी को बाद में सरकार ने पद्मश्री से नवाजा और आईपीएस संवर्ग दिया था.

साहित्य, पत्रकारिता, कला, संगीत-नृत्य, रंगमंच, आदि सांस्कृतिक क्षेत्रों में उत्तराखण्डियों ने लखनऊ ही नहीं देश-प्रदेश को भी समृद्ध किया. अंतराष्ट्रीय ख्याति वाले प्रसिद्ध चितेरे रणवीर सिंह बिष्ट और मूर्तिकार अवतार सिंह पंवार के योगदान को किसी परिचय की अवश्यकता नहीं है. लोक-संस्कृति के क्षेत्र में भी उत्तराखण्डियों की धमक स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और बाद में यहां खूब महसूस की गई. 1948 में स्थापित ‘कुमाऊं परिषद’ लखनऊ के उत्तराखण्डियों की प्रतिनिधि संस्था कई दशक तक बनी रही. शास्त्रीय अवें लोक धुनों पर आधारित ‘कुमाऊं परिषद’ की गेय रामलीला की याद आज भी पुराने लोग करते हैं. 1955 में गणेशगंज में स्थापित ‘गढ़वाल संस्था’ ने भी गढ़वाल के लोक नृत्य-गीतों की यादगार प्रस्तुतियां दीं. उसके बाद तो इस शहर में उत्तराखण्डी मूल के निवासियों की दर्जनों संस्थाएं सांस्कृतिक मंच पर धमाल मचाती आ रही हैं. आकाशवाणी, लखनऊ से अक्टूबर 1962 में शुरु हुआ ‘उत्तरायण कार्यक्रम’ 2016 तक उत्तराखण्डी बोलियों के साहित्य और लोक कलाओं के प्रसारण का सबसे बड़ा मंच बना रहा. लोक संस्कृतियों के लिए पूरे देश में एक घण्टे का कोई भी दूसरा कार्यक्रम नहीं था. उत्तर प्रदेश की लुप्त प्राय नौटंकी विधा को पुनर्स्थापित करने और उसका नागर रूप विकसित करने के लिए पिछले मास ही दिवंगत उर्मिल कुमार थपलियाल को भूला नहीं जा सकेगा.
(People of Uttarakhand in Lucknow)

साठ के दशक में नगर नियोजन के विद्वान द्वारिका नाथ साह को नैनीताल नगर पालिका से बुलाकर लखनऊ नगर महापालिका में विशेष रूप से तैनात किया गया था. नगर नियोजन पर उनका काम ‘कोलम्बी प्लान’ के तहत सम्मानित हुआ था. शहर को हाथी पार्क और नीबू पार्क श्री साह की योजनकारी की ही देन हैं.    

पृथक राज्य तो उत्तराखंड सन 2000 में बना. यह पर्वतीय क्षेत्र पहले संयुक्त प्रांत और बाद में उत्तर प्रदेश का महत्त्व भू-भाग रहा. वहां की नदियों और जंगलों ने मैदानों को जल एवं वन-सम्पदा ही नहीं दिए, वरन विविध प्रतिभाओं से सम्पन्न भी बनाया. उत्तराखण्ड से प्रवास का लम्बा इतिहास है. आज़ादी मिलने के बहुत पहले से लखनऊ उत्तराखण्ड के प्रवासियों का एक मुख्य ठिकाना बनता गया. विविध क्षेत्रों में उनके योगदान का इतिहास भी पुराना है. उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में अल्मोड़ा से लखनऊ आकर बसे डॉक्टर हरदत्त पंत का बड़ा नाम था. महाराजा बलरामपुर ने उन्हें अपना निजी चिकित्सक नियुक्त किया था. डॉ पंत ने अपने प्रभाव का उपयोग करके महाराजा बलरामपुर से उनका एक भवन अस्पताल खोलने के लिए मांगा. इस तरह उन्होंने ‘हिल रेजीडेंसी’ नाम से जिस अस्पताल की शुरुआत की थी, वही आज का बलरामपुर अस्पताल है जो यहां का प्रमुख सरकारी चिकित्सालय है. आज अमीनाबाद में जो प्रसिद्ध महिला महाविद्यालय है, उसकी स्थापना में भी डॉ पंत का हाथ रहा. किस्सा यह है कि एक बार लखनऊ के रईस पुत्तू लाल बहुत बीमार पड़ गए. काफी इलाज के बाद भी वे ठीक न हुए तो महाराजा बलरामपुर ने अपने चिकित्सक डॉ पंत को उनके पास भेजा. डॉ पंत के इलाज से वे ठीक हो गए. प्रसन्न पुत्तू लाल ने डॉ पंत को इनाम में अशर्फियां देनीं चाहीं. डॉ पंत ने अशर्फियां नहीं लीं लेकिन कहा कि अगर कुछ देना ही है तो अपनी एक धर्मशाला में कन्याओं का स्कूल शुरू करने के वास्ते कुछ कमरे दे दीजिए. तब लखनऊ में बालिकाओं के लिए कोई स्कूल न था और डॉ पंत अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए चिंतित थे. पुत्तू लाल ने सहर्ष मंजूरी दे दी. इस तरह छह बालिकाओं के साथ जिस स्कूल की स्थापना हुई वही बाद में महिला विद्यालय बना. यह जानना शायद रोचक होगा कि डॉ पंत की बेटी प्रसिद्ध साहित्यकार शिवानी की मां थीं. यानी डॉ पंत शिवानी के नाना होते थे. यह पूरा प्रसंग स्वयं शिवानी ने अपने संस्मरणों में दर्ज़ किया है.

1903 में अमीनाबाद में स्थापित परसी साह स्टूडियो आज़ादी से पहले और बाद में भी कई दशक तक अपनी फोटोग्राफी के लिए प्रसिद्ध था. सभी महत्वपूर्ण सरकारी और सामाजिक कार्यक्रमों के फोटो परसी साह खींचते थे. जिस गली में उनका स्टूडियो था वह आज भी अमीनाबाद में परसी साह लेन कहलाती है. अच्छे कलाकार बुद्धि बल्लभ पंत ने भी लाटूश रोड में एक स्टूडियो खोला था जो साठ के दशक तक कलात्मक फोटोग्राफी के अलावा विदेशी कैमरों और फिल्मों की उपलब्धता के लिए जाना जाता था.        

गोविंद बल्लभ पंत, हरगोविंद पंत, हेमवतीनंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी, बल्देव सिंह आर्य, आदि सुपरिचित स्वतंत्रता सेनानियों और आजाद देश में बड़ी राजनैतिक भूमिका निभाने वालों की चर्चा यहां जानबूझकर नहीं की जा रही है. देवकी नंदन पाण्डे, विचित्र नारायण शर्मा, भक्त दर्शन और बैरिस्टर मुकुंदी लाल जैसे स्वतंत्रता संग्रामियों एवं सामाजिक नेताओं ने आज़ादी से पूर्व और पश्चात राजनीति को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि, प्रदेश और राजधानी को अपनी बहुमूल्य सेवाएं दीं. वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों, अभियंताओं, विज्ञानियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों, इत्यादि के उल्लेख से यह सूची काफी लम्बी हो जाएगी.
(People of Uttarakhand in Lucknow)

नव भारत टाइम्स, लखनऊ से साभार.

नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.

इसे भी पढ़ें: परदेस में रहने वाले पहाड़ी को पत्नी की प्यार भरी चिठ्ठी

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

1 day ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

3 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

6 days ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

6 days ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

1 week ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago